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आमेर का कछवाहा वंश

आमेर के कछवाहा वंश को भगवान राम के पुत्र कुश का वंशज माना जाता है। अयोध्या पर शासन करने के पश्चात् कुश के वंशज मुकुटपुर में रहे, तत्पश्चात् सोन नदी के समीपस्थ प्रदेश साकेत व रोहिताश पर अधिकार किया। उन्हीं के वंशज राजा नल ने 826 ई. के लगभग नश्वर/नरवर (ग्वालियर) की नींव डाली। नल के पुत्र साल्हकुमार (ढोला) थे, जिनका विवाह महज 3 साल की उम्र में बीकानेर स्थ‍ित पूंगल क्षेत्र के पंवार राजा पिंगल की पुत्री मरवण (मारू) से हुआ। जो ढोला-मारू के नाम से प्रसिद्ध हैं।

नल की 21वीं पीढ़ी में ग्वालियर के शासक सोढ़ा देव के पुत्र तेजकरण (दुल्हराय) थे। जिनका विवाह दौसा (मौरा) के शासक रालपसी चौहान की पुत्री सुजान कंवर से हुआ था।

दौसा में चौहान और बड़गुर्जरों का शासन था। लेकिन आपसी शत्रुता बढ़ने पर चौहानों ने अपने जवाई दुल्हाराय को आमंत्रित किया। दुल्हाराय ने बड़गुर्जरों को पराजित कर दिया। रालपसी ने दौसा का क्षेत्र दुल्हाराय को दे दिया। दुल्हाराय ने अपने पिता सोढ़ा देव को दौसा का शासक बनाया।

दौसा के पश्चात दुल्हाराय ने मीणाओं को पराजीत कर मांची/मांझी पर अधिकार स्थापित कर उसे अपनी दूसरी राजधानी बनाया। और इसका नाम भगवान राम के नाम पर रामगढ़ रखा। इसके बाद दुल्हाराय ने यहां पर अपनी कुलदेवी जमवाय माता के मंदिर का निर्माण करवाया। इसी कारण इसे जमवारामगढ़ कहा जाता है।

कछवाहा शासकों की आराध्य देवी या इष्ठ देवी शिला माता है।

दुल्हाराय और मारूणी के पुत्र कोकिल देव ने मीणाओं से आमेर को विजित कर उसे अपनी राजधानी बनाया तभी से यह राजवंश आमेर के कछवाह वंश के नाम से विख्यात है।

कोकिल देव ने 1207 ई. में आमेर को राजधानी बनाया। कुछ पुस्तकों में इसका समय 1035ई. बताया गया है।

कछवाहा शासक पंचवनदेव को अजमेर के शासक पृथ्वीराज चौहान तृतीय के समकालीन माना जाता है।

मेवाड़ के शासक महाराणा कुंभा के समय आमेर रियासत को मेवाड़ की करद रियासत (कर देने वाली) बना दिया गया था।

कछवाह वंश के शासक चन्द्रसेन के पुत्र पृथ्वीराज ने 1527 ई. में खानवा के युद्ध में राणा सांगा के साथ भाग लिया था।

पृथ्वीराज गलता के रामानुज सम्प्रदाय के संत कृष्णदास पयहारी के अनुयायी थे।

पृथ्वीराज कछवाह ने अपने राज्य को 12 भागों में विभाजित कर अपने पुत्रों में बांट दिया जिन्हें बारह कोटड़ी कहा गया।

पृथ्वीराज की पत्नी बालाबाई धार्मिक थी। इन्हें आमेर की मीरां भी कहा जाता है।

तथ्य

आमेर की मीरां - बालाबाई

बागड़ की मीरां - गवरीबाई

राजस्थान की दूसरी मीरां - रानाबाई

राजस्थान की राधा - मीरां बाई

पृथ्वीराज ने अपनी पत्नी बाला बाई (बीकानेर के शासक लूणकरण की पुत्री) के प्रभाव में आकर अपने छोटे पुत्र पूर्णमल को उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। इससे क्रोधित होकर उसका ज्येष्ठ पुत्र भीमदेव ने पूर्णमल को पराजित कर स्वयं को शासक घोषित कर दिया। भीमदेव ने 1533-1536 ई. तक शासन किया।

भीमदेव के बाद उसका पुत्र रत्नसिंह शासक बना। वह विलासी एवं अयोग्य था। इस कारण शासन की शक्तियाँ तेजसी रायमलोत के हाथों में केन्द्रित थी।

रत्नसिंह ने अफगान शासक शेरशाह सूरी (1544 ई.) की अधीनता को स्वीकार कर लिया।

वह राजस्थान का पहला शासक था जिसने अफगानों की अधीनता को स्वीकार किया।

रत्नसिंह के समय उसके चाचा सांगा ने मोजमाबाद के क्षेत्र पर अधिकार कर अपने नाम पर सांगानेर बसाया। सांगा की मृत्यु के उपरान्त उसका छोटा भाई भारमल रत्नसिंह से वैमनस्य रखने लगा। उसने रत्नसिंह के छोटे भाई आसकरण को अपने पक्ष में कर लिया।

आसकरण ने रत्नसिंह को विष देकर मार डाला और स्वयं को शासक घोषित किया, किन्तु भारमल ने आसकरण से विश्वासघात कर उसे पदच्युत कर दिया और स्वयं को आमेर का शासक घोषित कर दिया।

भारमल (बिहारीमल) (1547-1574 ई.)

भारमल पृथ्वीराज के सबसे छोटे पुत्र थे। भारमल के विश्वासघात से प्रेरित होकर आसकरण इस्लामशाह (शेरशाह सूरी का पुत्र) की शरण में चला गया और सहायता माँगी। इस्लामशाह ने भारमल के विरुद्ध अपने सेनापति हाजी खाँ को नियुक्त किया। भारमल ने हाजी खाँ को भी अपने पक्ष में कर लिया। भारमल ने आसकरण को नरवर (मध्य प्रदेश) की रियासत प्रदान कर उसे सन्तुष्ट कर दिया। भारमल ने 1556 ई. में सर्वप्रथम मजनूं खां (नारनौल, हरियाणा का अधिकारी) की सहायता से दिल्ली में अकबर से मुलाकात की।

पूर्णमल का पुत्र ‘सूजा’ अपने आपको राज्य का वास्तविक हकदार मानता था और इसलिए उसने ‘मेवात’ के सूबेदार ‘मिर्जा सर्फुद्दीन’ से मिलकर 1558 ई. में आमेर पर आक्रमण कर दिया। भारमल को स्वयं पहाड़ों में जाकर छिपना पड़ा और जब 1561 ई. में स्वयं सर्फुद्दीन आमेर आया तो उसे एक बड़ी धनराशि देने के लिए विवश होना पड़ा। विजयी सूबेदार ने उसके पुत्र जगन्नाथ, आसकरण के पुत्र राजसिंह और जोबनेर के जगमल के पुत्र खगार को, जो आमेर के राज्य की रक्षा में लगे हुए थे धरोहर के तौर पर अपने पास रख लिया।

भारमल अब समझ गया था कि मिर्जा को अगर अकबर का समर्थन मिल जायेगा तो उसको आमेर से हाथ धोना पड़ेगा और सूजा का अधिकार हो जायेगा। इसलिए मिर्जा की सिफारिश के पूर्व ही 1562 ई. में जब अकबर ने अजमेर में स्थित ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की मजार के दर्शन के लिए प्रस्थान किया तो मार्ग में भारमल उसकी सेवा में उपस्थित हुआ।

दूसरी मुलाकात चकताई खां के सहयोग से सांगानेर में हुयी। 20 जनवरी 1562 ई. को भारमल ने अकबर की अधीनता स्वीकार की। साथ ही उसने अपने संबंधियों और सरदारों को मिर्जा सर्फुद्दीन की धरोहर से छुड़वाने की भी प्रार्थना की। जब बादशाह अजमेर से लौटा तो भारमल के परिवार को, जो मिर्जा के पास धरोहर के रूप में था, राजा को सुपुर्द करने का आदेश दिया।

सांभर नामक स्थान पर 6 फरवरी, 1562 ई. को भारमल ने अपनी कन्या हरकाबाई (शाहीबाई/यौद्धाबाई) का विवाह अकबर से कर दिया। भारमल पहला राजपूत शासक था जिसने मुगलों की अधीनता को स्वीकार कर उनसे वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किए। अकबर ने हरकाबाई को ‘मरियम उज जमानी’ की उपाधि से विभूषित किया था। इसी ने बाद में सलीम (जहांगीर) को जन्म दिया।

1570 ई. में भारमल के सहयोग से अकबर ने नागौर दरबार का आयोजन किया।

अकबर ने भारमल को अमीर उल-उमरा की उपाधि प्रदान की तथा 5000 मनसब दिया।

भगवानदास / भगवन्त दास (1574-1589 ई.)

अकबर ने भारमल की मृत्यु उपरान्त उसके पुत्र भगवानदास को ‘राजा’ की उपाधि से विभूषित कर आमेर का शासक घोषित कर दिया।

अकबर ने भगवानदास को 5000 का मनसब तथा पंजाब का सूबेदार (1582-89 ई.) नियुक्त किया।

उसने भगवानदास को सितम्बर-अक्टूबर 1573 ई. में महाराणा प्रताप को सन्धि हेतु मनाने के लिए भी नियुक्त किया था।

भगवानदास ने अपनी पुत्री मानबाई का विवाह अकबर के पुत्र सलीम से किया जिससे खुसरो नामक शहजादे का जन्म हुआ।

भगवानदास ने दीन ए इलाही को स्वीकार करने से इनकार कर दिया

लाहौर (रावी नदी के किनारे) में भगवानदास की मृत्यु हो गई।

अकबर ने भगवानदास को नगाड़ा एवं ध्वज देकर सम्मानित किया था और ऐसा सम्मान प्राप्त करने वाला राजस्थान का एकमात्र राजा था।

मानसिंह (1589-1614 ई.)

मानसिंह का जन्म 6 दिसंबर 1550 को मौजमाबद (जयपुर) में हुआ था।

भगवान दास की मृत्यु के बाद अकबर ने इसके पुत्र मानसिंह को मिर्जाराजा और फर्जन्द (पुत्र) की उपाधियों से विभूषित कर आमेर का शासक घोषित कर दिया। मान सिंह अकबर के नौ रत्नों में से एक थे।

अकबर के नवरत्न -

  1. मान सिंह
  2. बीरबल (महेश दास)
  3. अबुल फजल-अकबरनामा, आइन-ए-अकबरी
  4. फैजी
  5. अब्दुर्रहीम खान-ए-खाना
  6. तानसेन
  7. टोडरमल
  8. हाकिम हुकाम
  9. मुल्ला दो प्याजा

कुंवर मानसिंह 12 वर्ष की आयु से ही अर्थात् 1562 ई. से मुगल सेवा में रहा। मानसिंह के दादा भारमल ने 1562 ई. में अकबर की अधिनता स्वीकार कर अपने पुत्र और पौत्र को मुगल सेवा में भेज दिया था।

मानसिंह प्रथम के सैन्य अभियान

मानसिंह का प्रथम अभियान बूँदी के राजा सुर्जन हाड़ा के विरूद था। 1569 ई. में सुर्जन हाड़ा पर आक्रमण कर रणथम्भौर पर अधिकार किया।

सरनाल के युद्ध में उसने विशेष ख्याति अर्जित की थी। अप्रैल 1573 में डूँगरपुर के शासक आसकरण को परास्त किया। यहाँ से कुँवर उदयपुर गया और राणा प्रताप से उसकी भेंट हुई। बिहार में दाउदखाँ के विद्रोह की सूचना मिली तो सम्राट ने उसको दबाने के लिए उस ओर प्रस्थान किया। इस अवसर पर मानसिंह भी उसके साथ था। मानसिंह के जीवन में मेवाड़ अभियान एक बड़ी महत्त्वपूर्ण घटना थी। गुजरात से लौटते हुए 1573 ई. में वह एक मर्तबा मेवाड़ जा चुका था। मानसिंह ने अपने युवराज काल में 18 जून, 1576 ई. को हल्दीघाटी के युद्ध का नेतृत्व किया।

मेवाड़ अभियान (हल्दीघाटी युद्ध) के बाद अकबर ने मानसिंह को 1580 ई. में उत्तर-पश्चिमी सीमान्त भागों एवं सिंध प्रदेश की सुव्यवस्था के लिए नियुक्त किया। 1581 ई. में मानसिंह ने काबुल के हाकिम मिर्जा को परास्त किया। हाकिम मिर्जा की लौटती हुई सेना का मानसिंह ने सिन्धु नदी तक पीछा किया और वह पुनः लाहौर चला आया। जब अकबर को इस विषय की सूचना मिली तो उसने उसका मनसब 5000 जात एवं 5000 सवार कर दिया।

सम्राट ने मानसिंह की सेवा से प्रसन्न होकर उसे सिन्धु प्रदेश का प्रमुख अधिकारी बना दिया और जब 30 जुलाई 1585 ई. में मिर्जा की मृत्यु हो गयी और उसके पुत्रों के अल्पवयस्क होने से स्थानीय सामन्तों ने काबुल पर अधिकार कर लिया, तो इस स्थिति से लाभ उठाने के लिए कुँवर मानसिंह को ससैन्य काबुल जाने का आदेश मिला। आपसी फूट का लाभ उठाफर मानसिंह ने काबुल पर मुगल शक्ति का अधिकार स्थापित करने में सफलता दिखायी। इन सेवाओं के उपलक्ष्य में सम्राट ने कुँवर मानसिंह को काबुल का सूबेदार नियुक्त कर दिया। कुँवर मानसिंह काबुल में जनप्रिय हो गया था और उसने वहां सुव्यवस्था स्थापित कर अपने उत्तरदायित्व को ठीक तरह से निभाया था।

काबुल से मानसिंह का स्थानान्तरण बिहार कर दिया गया, क्योंकि वहां स्थानीय जमींदारों के उपद्रव हो रहे थे और कई छोटे-छोटे राजा मुगल सत्ता की अवहेलना कर मनमानी करते थे। मानसिंह 1587 से 1594 ई. तक बिहार के सुबेदार था। 1589 ई. में भगवान दास की मृत्यु के कारण मानसिंह का राज्याभिषेक पटना (बिहार) में हुआ था। वह आमेर पहुँचा और वहाँ औपचारिक रूप से उसकी गद्दीनशीना हुई। अकबर ने भी उसके लिए टीका भेजकर और उसके 5000 के मनसब को पक्का कर सम्मानित किया।

इसके बाद सबसे पहले उसने गिधोर (बिहार) के राजा पूर्णमल को परास्त कर उसे मुगल अधीनता स्वीकार करने को बाध्य किया।

मानसिंह ने उड़ीसा के राजा रामचन्द्र की पुत्री अक्षा देवी से विवाह किया।

मानसिंह की सेवाओं से प्रसन्न होकर 1594 ई. में सम्राट ने उसे बंगाल सूबेदार बनाया। सबसे पहले उसने सूबे की राजधानी टाण्डा से बदल कर राजमहल कर दी, जिसकी सैनिक स्थिति तका जलवायु सन्तोषजनक थी। उसने पूर्वी बंगाल के विद्रोहियों को, जिनमें ईसाखाँ, सुलेमान और केदारराय मुख्य थे, दबाया।

बंगाल से लौटते समय जसोर के राजा केदार के यहां से ही शिलामाता की मूर्ति मानसिंह अपने साथ लाए थे और आमेर के महलों में स्थापित करवाया था।

1596 ई. में उसने कूचबिहार के राजा लक्ष्मीनारायण के राज्य को मुगल सत्ता के प्रभाव क्षेत्र में सम्मिलित किया। उसे संधि कर उसकी बहन अबलादेवी से विवाह किया। यहीं रहते हुए उसके पुत्र दुर्जनसिंह और हिम्मत सिंह मर चुके थे। वह स्वयं 1596 ई. में बीमार हो गया था, अतः उसने अजमेर रहकर बंगाल सूबे की व्यवस्था देखते रहने का निश्चय किया।

मानसिंह ने बंगाल की देखरेख के लिए अपने पुत्र जगतसिंह को नियुक्त करवाया, परन्तु अभाग्यवश 1599 ई. में उसकी आकस्मिक मृत्यु हो गयी। जगतसिंह की मृत्यु के बाद इसकी स्मृति में आमेर के महलों में जगत शिरोमणि मंदिर का निमार्ण करवाया गया। यह भगवान श्रीकृष्ण का मंदिर है। इस मंदिर का निर्माण मानसिंह की पत्नी रानी कणकावती द्वारा करवाया गया।

1605 ई. में अकबर की मृत्यु के बाद उसका पुत्र सलीम नूरूद्दीन जहाँगीर के नाम से मुगल साम्राज्य का शासक बना।

इसके अगले ही वर्ष 1606 ई. में खुसरो ने अपने पिता जहाँगीर के विरुद्ध विद्रोह की घोषणा कर दी। इस विद्रोह में उसके मामा मानसिंह ने साथ दिया और सिक्खों के पाँचवें गुरु अर्जुनदेव ने उसे शासक बनने का आशीर्वाद प्रदान किया।

जहाँगीर ने मानसिंह को बंगाल नियुक्त कर दिया और खुसरो के विद्रोह का अन्त कर गुरु अर्जुनदेव सिंह को मृत्युदण्ड दे दिया।

मानसिंह का महत्त्व जहाँगीर के समय में उतना न रह सका। उसे वह कभी बंगाल और कभी दक्षिण भेजता रहता था। अन्त में 1614 ई. में उसकी इलीचपुर (महाराष्ट्र) में मृत्यु हो गयी। आमेर के कच्छवाहा शासकों में मानसिंह का स्थान महत्त्वपूर्ण है।

मानसिंह अपने वंश की परम्परा के अनुसार हिन्दू धर्म में विश्वास रखता था। उसके धर्म में उसे इतनी श्रद्धा थी कि उसने अकबर के आग्रह पर भी दीन-ए-इलाही की सदस्यता स्वीकार नहीं की। इसी तरह से मुँगेर (बिहार) के शाह दौलत नामी संत के कहने से भी इस्लाम धर्म स्वीकार नहीं किया।

बैकुंटपुर जो पटना जिले में है, मानसिंह ने एक भवानी शंकर का मन्दिर बनवाया और उसमें विष्णु, गणेश तथा मातृदेव की मूर्तियों की स्थापना की। मानसिंह ने गया (बिहार) में महादेव का मंदिर, वृन्दावन में गोविन्द देव जी का मंदिर और आमेर में शिला देवी का मंदिर स्थापित करवाया।

मानसिंह ने बैराठ में पंचमहल तथा पुष्कर में मानमहल का निर्माण करवाया।

मानसिंह ने अपने समय में राजमहल/अकबरनगर (बंगाल में) और मानपुर (बिहार में) के नगरों की स्थापना की।

वह न केवल युद्ध नीति, रण-कौशल तथा शासन कार्य में ही कुशल था वरन् संस्कृत भाषा में उसकी, रुचि थी। आमेर का स्तम्भ-लेख, रोहतासगढ़ का शिलालेख और वृन्दावन का अभिलेख उसके संस्कृत भाषा के प्रति-प्रेम के द्योतक हैं। ‘मानचरित्र’ तथा ‘महाराजकोष’ नामक ग्रन्थ उसके शासनकाल में रचे गये थे। इसके समय में राय मुरारीदास ने ‘मान-प्रकाश’ तथा जगन्नाथ ने ‘मानसिंह कीर्ति मुक्तावली’ की रचना की थी। मानसिंह के भाई माधोसिंह के आश्रय में पुण्डरीक ने ‘रागचन्द्रोदय’, ‘रागमंजरी’, ‘नर्तन निर्णय’ तथा ‘दूनी प्रकाश’ और दलपतराज ने ‘पत्र प्रशस्ति’ तथा ‘पवन पश्चिम’ की रचना की थी। इसके समय में हरिनाथ, सुन्दरदास भी दरबारी कवि थे। इसके समय में दादूदयाल ने ‘वाणी’ की रचना की थी।

अकबर ने मानसिंह को 7000 का मनसब व फर्जन्द (बेटा) की उपाधि प्रदान की।

मानसिंह की मृत्यु के बाद भावसिंह शासक बना। जिसने 1614 ई. से 1621 ई. तक शासन किया।

मिर्जाराजा जयसिंह (1621-1667 ई.)

भावसिंह के कोई पुत्र नहीं था। जयसिंह-प्रथम, मानसिंह प्रथम के पुत्र जगतसिंह के पुत्र महासिंह के पुत्र थे। भावसिंह के उपरान्त जयसिंह-प्रथम शासक बना। जयसिंह प्रथम ने तीन मुगल सम्राटों जहाँगीर (1605-1627 ई.), शाहजहाँ (1628-1658 ई.) और औरंगजेब (1658-1707 ई.) की सेवा की।

मिर्जा राजा जयसिंह का पालन पोषण माता दमयन्ती ने माधोराजपुरा (दौसा) किला में किया था। रानी दमयन्ती ने जयसिंह की शिक्षा-दीक्षा का अच्छा प्रबन्ध किया था। उसको फारसी, तुर्की, उर्दू, हिन्दी और संस्कृत का साधारण ज्ञान पहले ही करा दिया गया था जिसको उसने आगे चलकर समृद्ध किया। जब भावसिंह की मृत्यु हुई तो वह दौसा से आमेर लाया गया और राज्य का स्वामी घोषित किया गया। इस समय इसकी आयु 11 वर्ष की थी।

आमेर की गद्दी पर बैठते ही मुगल सम्राट जहाँगीर ने जयसिंह को 3 हजार जात व 1500 सवारों का मनसबदार बनाकर सम्मानित किया। सर्वप्रथम उसकी नियुक्ति 1623 ई. में मलिक अम्बर के विरुद्ध, जो अहमदनगर (महाराष्ट्र) के राज्य की रक्षा मुगलों के विरुद्ध कर रहा था, की गयी।

शाहजहाँ के काल में सम्राट ने उसे 4000 का मनसबदार बनाकर सम्मानित किया और इसे महावन के जाटों को दबाने के लिए भेजा। 1630 ई. में उसके पद में भी वृद्धि की गयी। सम्राट शाहजहाँ राजा के इन साहसी कार्यों से बहुत प्रभावित हुआ और उसके मनसब को 5000 कर दिया। जयसिंह को शुजा के साथ कन्धार भेजा गया। शाहजहाँ ने 1638 ई. में उसे मिर्जा राजा की पदवी से विभूषित किया।

1651 ई. में जयसिंह की नियुक्ति सादुल्लाखाँ के साथ कन्धार के युद्ध के लिए की गयी जहाँ उसने मुगल सेना का संचालन अग्रभाग में रहकर किया। बादशाह ने इस सेवा के उपलक्ष में उसका मनसब 6 हजार जात और 6 हजार सवार कर दिया।

1659 ई. में दौराई (अजमेर) के युद्ध में जयसिंह ने दारा शिकोह के विरूद्ध औरंगजेब का साथ दिया था।

1664 ई. में औरंगजेब ने जयसिंह को शिवाजी के विरुद्ध दक्षिण में नियुक्त किया।

मिर्जाराजा जयसिंह ने शिवाजी को अधीनता स्वीकार करने के लिए विवश कर दिया। शिवाजी और मिर्जाराजा जयसिंह के मध्य 11 जून, 1665 ई. को पुरन्दर की सन्धि सम्पन्न हुई। जिसके अनुसार शिवाजी ने पहली बार मुगलों की अधीनता को स्वीकार किया

पुरन्दर की संधि के समय यूरोपियन इतिहासकार मनूची मौजूद था।

इस संधि के अनुसार यह निश्चय हुआ कि-

  1. 35 किलों में से 23 किले मुगलों को सुपुर्द कर दिये जायें। इस तरह 40 लाख की आमदनी का भाग शिवाजी से ले लिया गया।
  2. 12 छोटे दुर्ग शिवाजी के लिए रखे जायें।
  3. शिवाजी के पुत्र शम्भाजी को 5 हजार का मनसबदार बनाया जाय और शिवाजी को दरबारी सेवा से मुक्त समझा जाय।
  4. परन्तु जब कभी शिवाजी को मुगल सेवा के लिए निमन्त्रित किया जाय तो वह उपस्थित हो।
  5. उपरोक्त शर्तों के अतिरिक्त शिवाजी ने यह भी सुझाव दिया कि यदि कोंकण में 4 लाख हूण वार्षिक का प्रदेश और बालाघाट में 5 लाख हूण का शुल्क बादशाह उसे देना स्वीकार कर ले और मुगलों की भावी बीजापुर विजय के बाद भी ये प्रदेश उसके अधिकार में रहने दिये जाएं तो वह बादशाह को 40 लाख हूण 13 वार्षिक किस्तों में देगा।
  6. इसके अलावा शिवाजी ने मुगल अधीनता स्वीकार की।

मिर्जाराजा जयसिंह के परामर्श पर ही शिवाजी ने पहली बार आगरा की यात्रा की और उसी के परामर्श पर मारवाड़ के महाराजा जसवंत सिंह ने औरंगजेब की अधीनता को स्वीकार किया था।

आदिलशाह के विरूद्ध मिर्जाराजा जयसिंह बीजापुर (कर्नाटक) अभियान की विफलता से इतना अधिक दुखी हुआ कि 28 अगस्त, 1667 ई. को बुरहानपुर (मध्य प्रदेश) के पास मिर्जा राजा जयसिंह का देहावसान हो गया। जयपुर के कच्छवाहा वंश में इन्होंने सर्वाधिक 46 वर्ष तक शासन किया।

बुरहानपुर में मिर्जा जयसिंह की 38 खंभों की छतरी बनी हुई है।

मिर्जाराजा जयसिंह के दरबार में बिहारी नामक प्रसिद्ध कवि विद्यमान था, जिसने ‘बिहारी सतसई’ ग्रन्थ की रचना की। कुलपति मिश्र बिहारी का भांजा था।

अन्य प्रसिद्ध विद्वान रामकवि ने ‘जयसिंह चरित्र’ नामक ग्रन्थ रचा। इसके राज्यकाल में और भी अनेक काव्य और भक्ति के ग्रन्थों की रचना हुई जिसमें धर्म प्रदीप, भक्ति रत्नावली, भक्ति निर्णय, भक्ति निवृत्ति, हरनकर रत्नावली आदि विशेष उल्लेखनीय है।

मिर्जाराजा जयसिंह ने आमेर के जयगढ़ दुर्ग का निर्माण करवाया। यह दुर्ग तोपें बनाने का कारखाना था। यहाँ एशिया की सबसे विशाल तोप जयबाण स्थित है।

सवाई जयसिंह द्वितीय (1700-1743 ई.)

मिर्जा राजा जयसिंह के बाद रामसिंह-प्रथम (1667-82 ई.) और बिशन सिंह (1682-1700 ई.) शासक बने।

बिशन सिंह के उपरान्त मात्र 12 वर्ष की अवस्था में जयसिंह द्वितीय शासक बना। इसका मूल नाम विजयसिंह था और उसके छोटे भाई का नाम जयसिंह था।

औरंगजेब ने दोनों भाईयों के नाम परस्पर परिवर्तित करके उसे सवाई की उपाधि से विभूषित किया और वह सवाई जयसिंह के नाम से विख्यात हो गया।

1707 ई. में औरंगजेब की मृत्यु के बाद उसके दोनों पुत्रों आजम और मुअज्जम के मध्य उत्तराधिकार युद्ध प्रारंभ हो गया। जून, 1707 को जजाऊ का युद्ध (इलाहाबाद, यूपी) हुआ जिसमें सवाई जयसिंह ने आजम का समर्थन किया। आजम पराजित हुआ और मुअज्जम विजित हुआ और उसने बहादुरशाह प्रथम के नाम से स्वयं को मुगल साम्राज्य का शासक घोषित कर दिया तथा आमेर का नाम बदलकर मोमिनाबाद/इस्लामाबाद रखा।

बहादुरशाह प्रथम ने सवाई जयसिंह को आमेर से निष्कासित करके उसके छोटे भाई विजयसिंह को आमेर का शासक घोषित कर दिया।

निष्कासित सवाई जयसिंह को मेवाड़ के महाराणा अमरसिंह द्वितीय और मारवाड़ के महाराजा अजीतसिंह का सहयोग प्राप्त हुआ। (देबारी समझौता)

अमरसिंह द्वितीय ने अपनी पुत्री चन्द्रकुँवरी का विवाह सवाई जयसिंह से इस शर्त पर किया कि उससे उत्पन्न पुत्र ही आमेर का उत्तराधिकारी होगा।

महाराजा अजीतसिंह ने भी अपनी पुत्री सूरज कंवर का विवाह सवाई जयसिंह से किया।

अमरसिंह द्वितीय व अजीतसिंह के सहयोग से सवाई जयसिंह ने आमेर को पुनः प्राप्त कर लिया

फर्रुखसियर ने 1716 ई. में सवाई जयसिंह को भरतपुर के जाट राजा चूड़ामन के विरूद्ध सैन्य अभियान पर भेजा। जिसमें सवाई जयसिंह को सफलता नहीं मिली और सैयद मुजफ्फर खां ने चूड़ामन को मुगल अधिनता स्वीकार करने के लिए मना लिया। जब मुहम्मदशाह मुगल सम्राट बना तो 1722 ई. में फिर जाटों को दबाने का काम जयसिंह को मिला। चूड़ामन के मर जाने पर उसके लड़के मोकम, वीर, रूमा मुगल शक्ति का विरोध करते रहे। परन्तु जयसिंह ने चूड़ामन के भतीजे बदनसिंह को अपनी ओर मिला लिया। इसकी सहायता से जाट फिर खदेड़े गये और अन्त में मोकम जोधपुर चला गया। इस विजय से प्रसन्न होकर मुहम्मदशाह ने जयसिंह को सरमद-ए-राजा-ए हिंद, राज-राजेश्वर, श्री राजाधिराज सवाई की उपाधि प्रदान कर सम्मानित किया। बदनसिंह को जिसने सवाई जयसिंह की जाटों को दबाने में सहायता की थी, जाटों का नेता स्वीकार किया और उसे ‘ब्रज राजा’ की पदवी दी गयी।

सवाई जयसिंह ने अपनी बहन अमर कुंवरी का विवाह बूँदी के शासक बुद्धसिंह हाड़ा के साथ किया और वहाँ के उत्तराधिकार के प्रश्न पर हस्तक्षेप किया।

बूँदी के आन्तरिक झगड़े में जब सवाई जयसिंह ने बूँदी बुद्धसिंह को पदच्युत कर दिया तब बुद्धसिंह की रानी ने जयपुर के विरुद्ध मराठों को अपनी सहायता के लिए के आमंत्रित किया। फलस्वरूप राजस्थान की राजनीति में मराठों का प्रथम प्रवेश हुआ। इसके बाद तो राजपूत शासक मराठों से सैनिक सहायता प्राप्त करने को लालायित हो उठे। इस प्रकार मराठे आरम्भ में भाड़ैत सैनिक सहयोगी के रूप में राजस्थान में आये और धीरे-धीरे वे प्रान्त में सर्वेसर्वा बन गये।

हुरड़ा सम्मेलन

सवाई जयसिंह ने राजस्थान में बढ़ती हुई मराठा शक्ति का प्रतिरोध करने के लिए मेवाड़ के जगतसिंह द्वितीय की अध्यक्षता में 17 जुलाई, 1734 ई. को हुरड़ा सम्मेलन का आयोजन भीलवाड़ा में करवाया, किन्तु राजपूत रियासतों को एकजुट करने का यह प्रयत्न विफल हो गया। इस सम्मेलन में मेवाड़ के महाराणा जगतसिंह द्वितीय, जयपुर के सवाई जयसिंह, जोधपुर के अभयसिंह, कोटा के दुर्जनशाल, बीकानेर के जोरावरसिंह, नागौर के बख्तसिंह, बूँदी के दलेलसिंह, करौली के गोपालसिंह और किशनगढ़ के राजसिंह आदि शासकों ने भाग लिया।

अश्वयेध यज्ञ : सवाई जयसिंह ने हुरड़ा सम्मेलन (1734 ई.) के एक माह बाद ही प्रथम अश्वमेध यज्ञ किया था। यज्ञ अगस्त, 1734 ई. को संपूर्ण हो गया। 1742 ई. में दूसरा अश्वमेध अधिक बड़े पैमाने पर किया गया। इस यज्ञ का घोड़ा जयपुर नगर में छोड़ा गया जिसको सुवर्ण पटिटका बांधकर चारों ओर घुमाया गया। बताया जाता है कि कुंभाणी राजपूतों ने इस घोड़े को रोककर अपने वंश-गौरव का परिचय दिया। प्रचलित प्रथा के अनुसार जयपुर सेना ने उनसे युद्ध कर घोड़े को छुड़ाया। यज्ञ की चिर-स्मृति के लिए एक पहाड़ी पर यूप स्तम्भ की भी प्रतिष्ठा करवायी गयी। सम्पूर्ण यज्ञ की प्रधानता पुण्डरीक रत्नाकर ने की थी। सवाई जयसिंह अन्तिम हिन्दू नरेश था जिसने भारतीय परम्परा के अनुकूल अश्वमेध यज्ञ किया

सवाई जयसिंह पहला राजपूत हिन्दू शासक था जिसने सती प्रथा को समाप्त करने की कोशिश की। वह पहला हिन्दू राजपूत राजा था जिसने विधवा पुनर्विवाह को वैद्यता प्रदान करने हेतु नियम बनाए तथा उन्हें लागू करने का प्रयास किया। सवाई जयसिंह पहला शासक था जिसने अन्तर्जातीय विवाह प्रारम्भ करने का प्रयास किया। उसने विवाह के अवसर पर अधिक खर्च करने और विशेष रूप से राजपूतों में विवाह के समय अपव्यय करने की प्रथा पर रोक लगायी। जनहित कल्याणकारी संस्थाओं को बनाकर जिनमें कुएँ, धर्मशाला, अनाथालय, सदाव्रत आदि मुख्य थे, उसने समाज के हित की रक्षा की।

सवाई जयसिंह ने यह नियम बना दिया कि भविष्य में वैरागी, स्वामी व संन्यासी अस्त्र-शस्त्र नहीं रखेंगे, सम्पत्ति जमा नहीं करेंगे और अपने घरों में स्त्रियां नहीं रखेंगे। वैरागियों व साधुओं को गृहस्थ जीवन की ओर प्रेरित किया ताकि कुछ वर्गों में बढ़ते व्यभिचार पर रोक लगे। उसने मथुरा में उनके लिए ‘वैराग्यपुरा’ नाम की एक बस्ती भी बसाई।

उसने ब्राह्मणों की अनेक उपजातियों में भोजन-व्यवहार का अन्तर कम करने का प्रयास किया। उसके कहने पर छः उपजातियों में बंटे ब्राह्मणों ने साथ बैठकर भोजन करना स्वीकार किया। ये ब्राह्मण ‘छन्यात’ कहलाये।

1720 ईo में मुहम्मद शाह रंगीला ने जयसिंह के अनुरोध पर जजिया कर को सदा के लिए समाप्त कर दिया।

सवाई जयसिंह ने दिल्ली के सात बादशाहों का काल देखा था।

सवाई जयसिंह को कच्छवाह राजवंश का चाणक्य कहते हैं।

सवाई जयसिंह ने 1725 ई. में ग्रह नक्षत्रों की शुद्ध सारणी का निर्माण करवाया और उसका नाम जीज-ए-मुहम्मद शाही रखा।

सवाई जयसिंह ने ज्योतिष के प्रसिद्ध ग्रन्थ जयसिंह कारिका नामक ग्रन्थ की रचना की।

सिद्धांत कौस्तुभ और सम्राट सिद्धांत, पंडित जगन्नाथ सम्राट द्वारा लिखे गए दो ग्रंथ हैं। पंडित जगन्नाथ सम्राट खगोलशास्त्री और गणितज्ञ थे जिन्होंने जय सिंह द्वितीय के दरबार में सेवा की।

केवलराम के द्वारा विभाग सारणी तैयार की गई।

सवाई जयसिंह ने जयपुर, दिल्ली, मथुरा, उज्जैन, और बनारस में पाँच वैद्यशालाएँ स्थापित की।

सबसे बड़ी वैद्यशाला जयपुर का जंतरमंतर है जिसकी स्थापना 1728 ई में की गई। इसका सबसे बड़ा यंत्र सम्राट यंत्र है जो विश्व की सबसे बड़ी सौर घड़ी माना जाता है, रामयंत्र, जयप्रकाशयंत्र भी यहाँ स्थित है। जयपुर वैद्यशाला को 2010 की यूनेस्को की विश्व धरोहर सूची में भी शामिल किया गया है।

सबसे प्राचीन वैद्यशाला दिल्ली (1724) की है।

सवाई जयसिंह के समय का प्रसिद्ध विद्वान पुण्डरिक रत्नाकर था जिसने जयसिंह कल्पद्रुम नामक ग्रन्थ की रचना की।

सवाई जयसिंह ने 18 नवम्बर, 1727 ई. जयपुर नगर की नींव रखी और उसे अपनी नवीन राजधानी (पहली दौसा, दूसरी जमवारामगढ़, तीसरी आमेर) बनाया। इसका वास्तुकार विद्याधर भट्टाचार्य था। नींव पंडित जगन्नाथ सम्राट द्वारा रखी गयी और इसकी जानकारी बख्तराम द्वारा रचित ग्रंथ बुद्धि विलास में मिलती है।

1715 ई. पिलसूद का युद्ध मराठों व सवाई जयसिंह के मध्य हुआ जिसमें सवाई जयसिंह विजयी हुआ।

1733 ई. में मंदसौर का युद्ध मध्यप्रदेश में मराठों व सवाई जयसिंह के मध्य हुआ जिसमें मराठों ने विजय प्राप्त की।

1741 ई. गंगवाना का युद्ध जोधपुर शासक अभयसिंह तथा सवाई जयसिंह के मध्य हुआ जिसमें जयसिंह ने विजय प्राप्त की।

सवाई जयसिंह ने मुहम्मद शरीफ एवं मुहम्मद मेहरी को पाण्डु लिपियों का अध्ययन करने हेतु विदेशों में भेजा था।

सवाई जयसिंह ने जयपुर में नाहरगढ़ दुर्ग का निर्माण करवाया।

सिटी पैलेस, जल महल, सिसोदिया रानी का बागमहल का निर्माण सवाई जयसिंह ने करवाया।

1 सितम्बर, 1743 ई. को रक्त विकार के कारण सवाई जयसिंह की मृत्यु हो गई।

सवाई ईश्वरी सिंह ( 1743-1750 ई.)

महाराजा सवाई जयसिंह की मृत्यु के बाद उनके पुत्र ईश्वरीसिंह ने राजकाज संभाला। इन्हें जागृतदेव व भौमियादेव भी कहते हैं।

देबारी समझोते के अनुसार चंद्रकुंवरी से उत्पन्न पुत्र को ही आमेर का शासक बनाया जाना था किन्तु सूरज कुवंरी से ईश्वरी सिंह का जन्म पहले हुआ। चंद्रकुवंरी ने माधोसिंह को जन्म दिया। अतः बडा हाने के नाते 1743 में ईश्वरी सिंह शासक बना किन्तु माधोसिंह ने अपना दावा प्रस्तुत किया। परिणाम स्वरूप दोनो के मध्य राजमहल का युद्ध हुआ।

राजमहल का युद्ध (1747 ई.) : राजमहल का युद्ध जयपुर के उत्तराधिकार को लेकर सवाई जयसिंह के दोनों पुत्रों ईश्वरीसिंह व माधोसिंह के मध्य लड़ा गया। युद्ध में मल्हार राव होल्कर और मुगल सम्राट ईश्वरीसिंह का समर्थन कर रहे थे, जबकि रानोजी सिंधिया, खाण्डेराव एवं कोटा का दुर्जनसाल,  मेवाड़ के शासक माधोसिंह के पक्ष में थे। इन्होंने ईश्वरीसिंह के सामने तीन मांगे रखी, (1) ईश्वरीसिंह टोंक, टोड़ा, मालपुरा एवं निवाई के परगने माधोसिंह को देगा। (2) उम्मेद सिंह हाड़ा को बूँदी का शासक स्वीकार किया जायेगा तथा मराठों को युद्ध हर्जाना देगा (3) तीन परगने नैनवा, समिधि तथा कारवार कोटा के राव दुर्जनसाल तथा प्रतापसिंह हाड़ा को दिया जायेगा।

ईश्वरीसिंह ने इन मांगों को अस्वीकार कर दिया तथा अपनी सेना लेकर टोंक के पास राजमहल पहुंच गया। जहां 1 मार्च, 1747 को राजमहल के युद्ध में माधोसिंह व उसके समर्थकों को परास्त किया।

इस विजय के उपलक्ष्य में उसने जयपुर के त्रिपोलिया बाजार में सरगासूली या ईसरलाट नामक मीनार का निर्माण करवाया। सरगासूली को जयपुर की कुतुबमीनार भी कहते हैं। इसका शिल्पी गणेश खोवान था। यह मुगल राजपूत शैली में बनी इमारत है। इसे जयपुर का विजय स्तम्भ भी कहते हैं।

इस युद्ध के परिणामस्वरूप मराठों का जयपुर ही नहीं वरन् राजस्थान की राजनीति में भी हस्तक्षेप बढ़ गया। वह धन लेकर किसी भी पक्ष का समर्थन करने लगे।

बगरु का युद्ध (1748 ई.) : जयपुर के उत्तराधिकार को लेकर ईश्वरीसिंह एवं माधोसिंह के मध्य पुनः 1748 ई. में बगरु का युद्ध हुआ। इस बार पेशवा व होल्कर की सेनाएँ माधोसिंह के पक्ष में थी। अतः बगरु के युद्ध में ईश्वरीसिंह की पराजय हुई। इस युद्ध के बाद जयपुर राज्य का विभाजन हो गया। ईश्वरीसिंह को टोंक, टोड़ा, मालपुरा सहित पाँच परगने माधोसिंह को देने पड़े एवं मराठों को युद्ध के हर्जाने के फलस्वरूप एक बड़ी धन-राशि देने की माग भी स्वीकार्त पड़ी। जब ईश्वरीसिंह मराठों को हर्जाना नहीं दे पाया तो 1750 ई. में मराठा सरदार मल्हार राव होल्कर जयपुर आ धमका। मराठों के डर से त्रस्त होकर ईश्वरीसिंह ने अपनी तीन रानियों व एक पासवान के साथ आत्महत्या कर ली।

वह राजपूताना का एकमात्र शासक था जिसने मराठों के दबाव से आत्महत्या की।

ईश्वरीसिंह की छतरी सिटी पैलेस जयपुर में बनी हुई है।

कृष्ण कवि ने ईश्वरी विलास ग्रंथ लिखा।

माधोसिंह प्रथम (1750 से 1768 ई.)

ईश्वरीसिंह के उपरान्त उसका भाई माधोसिंह प्रथम शासक बना जिसने 1750 से 1768 ई. तक शासन किया।

माधोसिंह प्रथम 7 फीट लम्बा 4 फीट चौड़ा उच्च कद काठी का शासक था।

माधोसिंह के राजा बनने के बाद मराठा सरदार मल्हार राव होल्कर एवं जयअप्पा सिंधिया ने इससे बड़ी रकम की मांग की, जिसके न चुकाये जाने पर मराठा सैनिकों ने जयपुर में उपद्रव मचाया, फलस्वरूप नागरिकों ने विद्रोह कर मराठा सैनिकों का कत्लेआम कर दिया।

कांकोड का युद्ध (अक्टूबर 1759 ई.) : टोंक में यह युद्ध 1759 ई. को सवाई माधोसिंह प्रथम व मल्हार राव होल्कर के मध्य लड़ा गया था। जिसमें सवाई माधोसिंह प्रथम विजयी हुए थे।

महाराजा माधोसिंह ने मुगल बादशाह अहमदशाह, जाट महाराजा सूरजमल (भरतपुर) एवं अवध नवाब सफदरजंग के मध्य समझौता करवाया। इसके परिणामस्वरूप बादशाह ने रणथम्भौर किला माधोसिंह को दे दिया। इससे नाराज हो कोटा महाराव शत्रुसाल ने जयपुर पर आक्रमण कर नवम्बर, 1761 ई. में भटवाड़ा (बारां) के युद्ध में जयपुर की सेना को पराजित किया। कवि डूंगरसी ने अपने ग्रंथ शत्रुशाल रासो में इस युद्ध का वर्णन किया है। कोटा सेना का नेतृत्व झाला जालिमसिंह ने किया था। झाला जालिमसिंह को हाड़ौती का वीर दुर्गादास राठौड़ कहते हैं।

मावन्डा-मंडोली का युद्ध : मांडा का प्रसिद्ध युद्ध 14 दिसंबर 1767 को भरतपुर के महाराजा जवाहर सिंह और जयपुर की सेनाओं के बीच हुआ था। जिसमें माधोसिंह प्रथम विजय हुये और जयपुर के गुरुसहाय व हरसहाय खत्री मारे गये। 1763 ई. में सवाई माधोसिंह ने सवाईमाधोपुर नगर बसाया। साथ ही जयपुर में मोती डूँगरी पर महलों का निर्माण करवाया।

माधोसिंह प्रथम ने जयपुर ग्रामीण में शील की डूँगरी पर चाकसू नामक स्थान पर शीतला माता का मंदिर बनवाया।

इनके समय बृजपाल उच्च कोटि के वीणा वादक थे।

इनके दरबारी कवि द्वारकानाथ भट्ट ने गलवा गीत, वाणी वैराग्य नामक ग्रंथों की रचना की।

इनकी मृत्य 1768 ई. में हो गई।

पृथ्वीसिंह (1768 से 1778 ई.)

यह अल्प आयु में राजा बना इसके समय नरुका शाखा के प्रतापसिंह ने 1775 ई. में अलवर की स्थापना की। जहर खुरानी के कारण पृथ्वी सिंह की मृत्यु हो गई।

सवाई प्रतापसिंह (1778 से 1803 ई.)

सवाई माधोसिंह प्रथम के उपरान्त इस शाखा का प्रमुख शासक सवाई प्रतापसिंह बना।

1786 ई. में जयपुर और मराठा के मध्य एक संधि हुई जिसके तहत जयपुर रियासत को 63 लाख रूपये मराठों को देने थे।

63 लाख रुपये नहीं देने के कारण महादजी सिंधिया ने आक्रमण किया था।

तुंगा का युद्ध (1787 ई.) (जयपुर ग्रामीण) : यह युद्ध सवाई प्रतापसिंह व माधावराज सिंधिया के मध्य जयपुर ग्रामीण में लड़ा गया था। जिसमें सवाई प्रतापसिंह की विजय हुई थी। सवाई प्रतापसिंह के साथ जोधपुर के महाराजा विजयसिंह थे। प्रतापसिंह का सेनापति सूरजमल शेखावत (बिसाऊ के ठाकुर) था। जिसकी 8 खम्भों की छतरी तूंगा (जयपुर ग्रामीण) में बनी हुयी है। महादजी सिंधिया के लिए यह एक बड़ी असफलता थी, क्योंकि न तो वह राजपूतों से धनराशि वसूल सका और न ही वह उन्हें कुचल सका। युद्ध के परिणामस्वरूप प्रतापसिंह की प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई। अजमेर पर जोधपुर के शासक विजयसिंह ने अधिकार कर लिया।

महादजी सिंधिया (माधवराज सिंधिया) ने कहा था कि - यदि मैं जीवित रहा तो जयपुर को मिट्टी में मिला दूँगा।

पाटन का युद्ध (1790 ई.) : यह युद्ध 20 जून, 1790 को पाटन (नीम का थाना) में सवाई प्रतापसिंह व महादजी सिंधिया के मध्य लड़ा गया था। जिसमें महादजी सिंधिया की विजय हुई थी। सिंधिया की सेना का नेतृत्व लकवा दादा और डी. बोइन (फ्रांसीसी) ने किया, जबकि अफगान नेता इस्माइल बेग राजपूतों के साथ था।

युद्ध का प्रमुख कारण महादजी सिंधिया की तूंगा के युद्ध के कारण खोई हुई प्रतिष्ठा को पुनः प्राप्त करना था। मराठों ने अजमेर पर अधिकार कर लिया तथा राजपूत शासकों से एक बड़ी धनराशि हर्जाने के रूप में वसूल की।

मेड़ता का युद्ध (1790 ई.) : प्रतापसिंह व मराठों के मध्य हुआ जिसमें मराठे विजयी हुये। फ्रांसिसी सेनापति डी.बोई की मृत्यु हो गई। डी बोइन की छतरी मेड़ता में है।

सांभर की संधि (5 जनवरी, 1791 ई.) : पाटन व मेड़ता की पराजय के बाद प्रतापसिंह द्वारा 60 लाख रुपये की राशि व अजमेर का परगना मराठों को वापिस लौटाना पड़ा।

फतेहपुर का युद्ध (1799 ई.) सीकर : सवाई प्रतापसिंह व जॉर्ज थॉमस, (झांझ फिरंगी) के मध्य हुआ। जिसमें आयरलैण्ड निवासी जॉर्ज थॉमस विजयी हुआ।

मालपुरा (टोंक) का युद्ध (16 अप्रैल 1800 ई.) : मालपुरा की लड़ाई मार्च, 1800 में जयपुर और सिंधिया के बीच उत्पन्न संकट के कारण हुई। धन के दबाव को लेकर राजपूतों एवं मराठों में मतभेद गहरा गया था। धन को लेकर मराठा सरदारों दौलतराव सिंधिया एवं होल्कर के मध्य मतभेद उत्पन्न हो गया था। जयपुर के सवाई प्रतापसिंह ने अपने शत्रु के आंतरिक संघर्ष का फायदा उठाने का प्रयास किया जिसके कारण मालपुरा का संघर्ष हुआ। मार्च, 1800 में प्रतापसिंह ने खुले तौर पर धन की मांग को खारिज कर दिया जो 1791 ई. की संधि से तय किया गया था। युद्ध में महादजी सिंधिया की विजय हुई थी।

सवाई प्रतापसिंह प्रसिद्ध कवि एवं संगीत के ज्ञाता थे।

सवाई प्रतापसिंह ब्रजनिधि नाम से काव्य रचना करते थे।

अलवर के महाराजा बख्तावर सिंह शगुन लीला तथा झालावाड़ के झाला राजेन्द्र सिंह सुधाकर नाम से रचनाएँ लिखा करते थे।

सवाई प्रतापसिंह ने 1799 ई. को जयपुर में हवामहल का निर्माण करवाया।

हवामहल 5 मंजिला इमारत है, जिसमें 953 खिड़कियाँ हैं। इसका शिल्पी लालचन्द था।

सवाई प्रतापसिंह ने जयपुर में संगीत सम्मेलन बुलवाकर देवर्षि बृजपाल भट्ट द्वारा “राधा गोविन्द संगीत सार” नामक ग्रंथ की रचना करवाई।

उस्ताद चांदखां इनके संगीत गुरु थे, जिन्होंने स्वरसागर नामक ग्रंथ की रचना की।

सवाई प्रतापसिंह ने उस्ताद चांदखां को बुद्ध प्रकाश की उपाधि प्रदान की।

पदमाकर ने जयविनोद तथा राधाकृष्ण ने राग रत्नाकर ग्रंथ की रचना की।

गणपत भारती सवाई प्रतापसिंह के काव्य गुरु थे।

सवाई प्रतापसिंह का शासन काल जयपुरी चित्रकला का स्वर्णकाल माना जाता हैं।

सवाई प्रतापसिंह के समय तमाशा लोक नाट्य महाराष्ट्र से राजस्थान आया।

सवाई प्रतापसिंह के दरबार में 22 कवि, 22 संगीतज्ञ, 22 नाटककार थे जिसे संयुक्त रूप से गंधर्व बाईसी कहते हैं।

सवाई जगतसिंह द्वितीय (1803-1818 ई.)

प्रतापसिंह की मृत्यु के बाद उनके पुत्र जगतसिंह द्वितीय गद्दी पर बैठे।

गिंगोली का युद्ध (1807 ई.) (डीडवाना कुचामन) : इनके समय जयपुर राज्य एवं जोधपुर महाराजा मानसिंह के मध्य मेवाड़ के महाराणा भीमसिंह की पुत्री कृष्णा कुमारी के विवाह को लेकर विवाद हुआ, जिसमें जयपुर की सेना ने जोधपुर की सेना को मार्च, 1807 ई. में ‘गंगोली’ के निकट (परबतसर) युद्ध में हराया।

अमीर खां पिण्डारी (टोंक) के कहने पर कृष्णाकुमारी को जहर दे दिया

सवाई जगतसिंह द्वितीय की रसकपुर नामक एक रखैल के कारण काफी बदनामी हुई। इसी कारण उसे जयपुर का बदनाम शासक कहा जाता है।

1818 ई. में मराठों एवं पिंडारियों से राज्य की रक्षा करने हेतु जगतसिंह द्वितीय ने ईस्ट इंडिया कंपनी से संधि कर राज्य की सुरक्षा का भार कम्पनी पर डाल दिया। 21 दिसम्बर, 1818 ई. को जगतसिंह द्वितीय का देहान्त हो गया। उनके बाद उनके नाबालिग पुत्र जयसिंह तृतीय (1818-1835 ई.) गद्दी पर बैठे। परंतु 1835 ई. में इनका भी देहान्त हो गया। तब इनके 16 माह के पुत्र रामसिंह-द्वितीय जयपुर के राजा बने।

सवाई रामसिंह द्वितीय (1835-1880 ई.)

महाराजा रामसिंह के नाबालिग होने के कारण जयपुर राज्य के प्रशासन को ब्रिटिश सरकार ने अपने संरक्षण में ले लिया मेजर जॉन लुडलो ने जनवरी, 1843 ई. में जयपुर का प्रशासन संभाला। उन्होंने सती प्रथा, दास प्रथा, कन्या वध एवं दहेज प्रथा आदि पर रोक लगाने के आदेश जारी किये। महाराजा रामसिंह को वयस्क होने के बाद शासन के समस्त अधिकार प्रदान किये गये। 1857 ई. के स्वतंत्रता संग्राम में महाराजा रामसिंह ने अंग्रेजों की भरपूर सहायता की। ब्रिटिश सरकार ने इन्हें ‘सितारे-ए-हिन्द’ की उपाधि साथ ही कोटपुतली की जागीर प्रदान की।

1870 ई. में गवर्नर जनरल एवं वायसराय लॉर्ड मेयो ने जयपुर एवं अजमेर की यात्रा की। दिसम्बर, 1875 ई. में गवर्नर जनरल लार्ड नार्थब्रुक तथा फरवरी, 1876 ई. में प्रिंस ऑफ वेल्स प्रिंस अल्बर्ट ने जयपुर की यात्रा की। इनकी स्मृति में अल्बर्ट हॉल एवं रामनिवास बाग बनवाया। अल्बर्ट हॉल में ईसाई, इस्लामिक तथा हिन्दू स्थापत्य शैलियों का बहुत ही सुन्दर समन्वय है। इसकी आकृति लन्दन के ओपेरा हाउस जैसी तथा मोटे रूप में पिरामिड़ाकार है। राजस्थान सरकार ने इसे संग्रहालय में परिवर्तित कर दिया जो अल्बर्ट हॉल म्यूजियम के नाम से प्रसिद्ध है। अल्बर्ट हॉल के वास्तुकार स्विंटन जैकब थे। जब प्रिंस अल्बर्ट जयपुर आये तो उनके सम्मान में जयपुर शहर को गुलाबी रंग से रंगवाया। गुलाबी रंग स्वागत् तथा सेवा भाव का प्रतीक है। वर्तमान में यह गुलाबी नगर के नाम से विश्व भर में प्रसिद्ध है। सवाई रामसिंह ने ताला एवं आदि नदियों को रोककर रामगढ़ बाँध बनवाया। इनके समय सन् 1844 में जयपुर में महाराजा एवं महारानी कॉलेज, संस्कृत कॉलेज, महाराजा लाइब्रेरी का निर्माण हुआ। सन् 1857 में महाराजा रामसिंह ने ‘राजस्थान स्कूल ऑफ आर्ट एण्ड क्राफ्ट’ (हुनेरी मदरसा) की स्थापना की।

इनके समय स्वामी दयानन्द सरस्वती जी 1865, 1866, 1878 ई. तीन बार जयपुर आये।

प्रिंस अल्बर्ट ने रामसिंह द्वितीय को ग्राण्ड कमाण्डर स्टार ऑफ इण्डिया का खिताब दिया।

1878 ई. में इन्होंने “रामप्रकाश नाट्यशाला” की स्थापना की जिसे राजस्थान का प्रथम पारसी रंगमच माना जाता है।

सवाई रामसिंह द्वितीय के समय जयपुर में “दीवानी तथा फौजदारी” न्यायालय की स्थापना हुई।

संस्कृत साहित्य तथा ब्लू पोटरी का स्वर्णकाल रामसिंह द्वितीय का काल था।

लॉर्ड मेयो जो 1869 से 1872 तक भारत के राजप्रतिनिधि (वाइसराय) थे, ने 1970 में जयपुर और अजमेर का भ्रमण किया और अजमेर में मेयो कॉलेज की स्थापना की घोषणा की।

1880 ई. में इनका निधन हो गया।

सवाई माधोसिंह द्वितीय (1880-1922 ई.)

रामसिंह द्वितीय की निःसन्तान मृत्यु हो गई तो ईसरदा के ठाकुर के पुत्र माधोसिंह द्वितीय को शासक बनाया गया। इनका वास्तविक नाम कायम सिंह था। यह राधाकृष्ण के भगत थे।

इन्होंने 1902 ई. लंदन में आयोजित एडवर्ड सप्तम के राज्याभिषेक समारोह में भाग लिया था।

यह समुद्र मार्ग से ओलम्पिया जहाज से यूरोप जाने वाले प्रथम राजा थे।

इन्होंने शुद्धता एवं पवित्रता का अत्यधिक ध्यान रखा। महाराजा लंदन गये तब गंगा जल से भरे हुए चांदी के दो विशाल जार ले गये थे। जिसमें प्रत्येक का वजन 345-345 किग्रा. था तथा प्रत्येक की क्षमता 900 गेलन थी। ये जार विश्व के सबसे बड़े चांदी के जार हैं जो गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में नामित हैं।

1903 ई. में एडवर्ड सप्तम का बड़ा भाई ड्यूक ऑफ कनॉट, सिटी पैलेस दरबार में आये और माधोसिंह द्वितीय को ग्राण्ड कमाण्डर द विक्टोरियन ऑर्डर से सम्मानित किया।

जब पंडित मदनमोहन मालवीय जी जयपुर आये तो उनका भव्य स्वागत कर बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के लिए इन्होंने 5 लाख रुपये दिये थे।

नाहरगढ़ (जयपुर) दुर्ग में अपनी 9 पासवानों के लिए एक जैसे 9 महल बनवाये थे। इन महलों का नाम जवाहर महल, सूरज महल, चांद महल, फूल महल, खुशहाल महल, ललित महल, लक्ष्मी महल, बसंत महल, आनंद महल है।

माधोसिंह ने जयपुर के सिटी पैलेस में मुबारक महल बनवाया जो हिन्दू, इस्लामिक तथा ईसाई शौलियों का खूबसूरत नमूना है। यह महल मेहमान नवाजी के लिये था। वर्तमान में यह सिटी पैलेस म्यूजियम में परिवर्तित हो गया है।

सवाई माधोसिंह बब्बर शेर के नाम से प्रसिद्ध था।

वृन्दावन में माधो बिहारी मंदिर का निर्माण करवाया।

1922 ई. में सवाई माधोसिंह द्वितीय की मृत्यु हो गई।

सवाई मानसिंह द्वितीय (1922-1956 ई.)

माधोसिंह के बाद इनके दत्तक पुत्र महाराजा मानसिंह द्वितीय जयपुर की गद्दी पर आसीन हुए जो स्वतंत्रता प्राप्ति तक यहाँ के शासक रहे। इनका वास्तविक नाम मोर मुकुट सिंह था। इनकी शिक्षा अजमेर में मेयो कॉलेज तथा वूलचित्र की रायल मिलिट्री अकादमी में हुई थी। इनका प्रधानमंत्री मिर्जा इस्माईल था। अपने प्रधानमंत्री के सहयोग से मानसिंह द्वितीय ने जयपुर को आधुनिक स्वरूप दिया तथा अपने नाम से अनेक संस्थान स्थापित किये, जैसे-सवाई मानसिंह हॉस्पिटल, सवाई मानसिंह मेड़िकल कॉलेज, सवाई मानसिंह स्कूल, सवाई मानसिंह स्टेडियम इत्यादि। ये अपने समय के विश्व के सर्वोत्तम पोलो खिलाड़ी थे। ऐसा कहा जाता है कि कूचबिहार की राजकुमारी गायत्री देवी भी इनके साथ कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में पढ़ती थी। राजकुमारी ने जब उन्हें पोलो खेलते हुए देखा तो इनसे विवाह कर लिया। मानसिंह द्वितीय ने ‘सिटी पैलेस म्यूजियम, जयपुर’ की स्थापना की। 30 मार्च, 1949 को वृहत् राजस्थान के गठन के बाद इन्हें राज्य का प्रथम राजप्रमुख बनाया गया। इस पद पर इन्होंने 1 नवम्बर, 1956 ई. को राज्यपाल की नियुक्ति तक कार्य किया। ये जयपुर के अंतिम महाराजा थे। वे भारतीय सेना के मानद् लेफ्टिनेंट जनरल तथा ब्रिटिश सेना के कैप्टन थे। 61वीं केवलरी तथा राजपूताना राइफल्स (सवाई मान गार्ड) के भी वे मानद् कमांडर थे। 7 अप्रैल, 1949 से 31 अक्टूबर, 1956 ई. तक सवाई मानसिंह राजस्थान के राजप्रमुख रहे। फरवरी, 1962 में वे राज्यसभा के सदस्य निर्वाचित किये गये तथा 1965 में स्पेन में भारत के राजदूत नियुक्त हुए। जून 1970 में पोलो खेलते हुए गिर जाने से लन्दन में सवाई मानसिंह का निधन हो गया था।

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