राजस्थानी भाषा की उत्पति शौरसेनी गुर्जर अपभ्रंश से मानी जाती है।
उपभ्रंश के मुख्यतः तीन रूप नागर, ब्राचड़ और उपनागर माने जाते हैं। नागर के अपभ्रंश से सन् 1000 ई. के लगभग राजस्थानी भाषा की उत्पति हुई। राजस्थानी एवं गुजराती का मिला-जूला रूप 16 वीं सदी के अंत तक चलता रहा। 16 वीं सदी के बाद राजस्थानी का विकास एवं स्वंतत्र भाषा कके रूप में होने लगा। 17 वीं सदी के अंत तक आते आते राजस्थानी पूर्णतः एक स्वतंत्र भाषा का रूप ले चूकी थी।
वर्तमान में राजस्थानी भाषा बोलने वालों की संख्या 6 करोड़ से भी अधिक है। 72 इसकी बोलियां मानी जाती है। केन्द्रीय साहित्य अकादमी ने इसे स्वतंन्त्र भाषा के रूप में मान्यता दे दी है। परंतु इसे अभी संवैधानिक मान्यता प्राप्त होना बाकी है।
राजस्थानी भाषा का इतिहास से ज्ञात होता है कि वि. स. 835 में उधोतन सूरी द्वारा लिखित कुवलयमाला में वर्णित 18 देशी भाषाओं मरू भाषा को भी शामिल किया गया है।
कवि कुशललाभ क ग्रंथ पिंगल शिरोमणि तथा अबूल फजल की आइने अकबरी में भी मारवाड़ी शब्द प्रयूक्त हुआ है। राजस्थानी बोलियों का प्रथम वर्णनापत्मक दर्शक(1907-1908) में सर जाॅर्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने अपने आधुनिक भारतीय भाषा विषयक विश्व कोष Linguistic survey of india के दो खण्डों में प्रकाशित किया था। यहां की भाषा के लिए राजस्थानी शब्द का प्रयोग भी पहली बार किया। उन्होंने राजस्थानी भाषा की चार उपशाखाएं बताई है।
पश्चिमी राजस्थानी - मारवाड़ी, मेवाड़ी, बागड़ी, शेखावटी
मध्य पूर्वी राजस्थानी - ढंूढाड़ी, हाड़ौती
उत्तरी पूर्वी - मवाती, अहीरवाटी
दक्षिणी पूर्वी - मालवी, निमाड़ी
ऐतिहासीक विश्लेषण के आधार पर सन् 1914-1916 तक इटली क विद्वान एल. पी. तेस्सीतोरी ने इंडियन ऐन्टीक्वेटी पत्रिका के अंकों में वर्णन से राजस्थानी की उत्पत्ति और विकास पर अभूत पूर्व प्रकाश पड़ा।
ग्रियर्सन, टेसीटोरी, प्रो. नरोत्तम स्वामी, हीरालाल महेश्वरी, मोतीलाल मेनारिया, डां धीरेन्द्र वर्मा, डा. श्याम सुन्दरदास ने राजस्थानी भाषा का वर्गीकरण किया।
ये राजस्थानी साहित्य की प्रमुख शैलियां है। डिंगल शब्द का प्रयोग राजस्थान के प्रसिद्ध कवि आसियां बांकीदास ने अपनी रचना कुकविबतीसी(1871) में किया।
इन्होने राजस्थानी बोलियों को पंाच भागों में बांटा।
इटली के इस विद्वान ने सन् 1914 ई. से सन् 1919 ई. के मध्य बीकानेर के दरबार में रहकर चारण तथा भाट साहित्य का अध्ययन किया।
एल.पी. टेस्सीटोरी ने राजस्थानी बोलियों को दो वर्गो में बांटा।
अ. पश्चिमी राजस्थानी ब. पूर्वी राजस्थानी
इन्होंने राजस्थानी बोलियों को चार वर्गो में बांटा।
वर्तमान में इनका वर्गीकरण सर्वाधिक मान्य है।
इन्होंने राजस्थानी बोलियों को पंाच वर्गाे में बांटा।
अ. मारवाड़ी ब. मालवी स. ढूंढाडी द. मेवाती य. बागड़ी
कुवलयमाला में जिसे मरूभाषा कहा गया है, वह यही मारवाड़ी है। इसका प्राचिन नाम मरूभाषा है। जो पश्चिमी राजस्थान की प्रधान बोली है। मारवाड़ी का आरम्भ काल 8 वीं सदी से माना जा सकता है। विस्तार एवं साहित्य दोनों ही दृष्टियों से मारवाड़ी राजस्थान की सर्वाधिक समृद्ध एवं महत्वपूर्ण भाषा है। इसका विस्तार जोधपुर, बीकानेर, जैसलमेर, पाली, नागौर, जालौर, एवं सिरोही जिलों तक है। विशुद्ध मारवाड़ी केवल जोधपुर एवं आसपास के क्षेत्र में ही बोली जाती है। मारवाड़ी कके साहित्य रूप को डिंगल कहा जाता है। इसकी उत्पति गुर्जरी अपभ्रंश से हुई है। जैन साहित्य एवं मीरां के अधिकांश पद इसी भाषा में लिखि गए हैं। राजिये रा सोरठा, वेली किसन रूक्मणी री ढोला मारवण, मूमल आदि लोकप्रिय काव्य मारवाड़ी भाषा में ही रचित हैं।
मारवाड़ी की बोलियां - मेवाड़ी, वागड़ी, शेखावाटी, बीकानेर, ढककी, थली, खैराड़ी, नागौरी, देवड़ापाड़ी, गौड़वाड़ी।
उदयपुर एवं उसके आसपास के क्षेत्र को मेवाड़ कहा जाता है। इसलिए यहां की बोली मेवाड़ी कहलाती है। यह मारवाड़ी के बाद राजस्थान की महत्वपूर्ण बोली के विकसित और शिष्ट रूप के दर्शन हमें 12 वीं एवं 13 वीं शताब्दी में ही मिलने लगते है। मेवाड़ी का शुद्ध रूप मेवाड़ के गांवों में ही देखने को मिलता है।मेवाड़ी में लोक साहित्य का विपुल भण्डार है। महाराणा कुंभा द्वारा रचित कुछ नाटक इसी भाषा में है।
डूंगरपुर एवं बांसवाड़ा के सम्मिलित राज्यों का प्राचिन नाम वागड़ था। अतः वहां की भाषा वागड़ी कहलायी, जिस पर गुजराती का प्रभाव अधिक है।यह भाषा मेवाड़ी के दक्षिणी भाग, दक्षिणी अरवाली प्रदेश तथा मालवा की पहाड़ीयों तक केक्षेत्र में बोली जाती है। भीली बोली इसकी सहायक बोली है।
उत्तरी जयपुर को छोड़कर शेष जयपुर, किशनगढ़, टोंक, लावा तथा अजमेर-मेरवाड़ा के पूर्वी अंचलों में बोली जाने वाली भाषा ढंूंढाड़ी कहलाती है। इस पर गजराती, मारवाड़ी एवं ब्रजभाषा का प्रभाव समान रूप से मिलता है। ढंूढाड़ी में गद्य एवं पद्य दोनों में प्रचुर साहित्य रचा गया। संत दादू एवं उनके शिष्यों ने इसी भाषा में रचनाएं की। इस बोली को जयपुरी या झाड़शाही भी कहते हैं। इसका बोली के लिए प्राचनीनतम उल्लेख 18 वीं शदी की आठ देस गुजरी पुस्तक में हुआ है। ढूंढाड़ी की प्रमुख बोलीयां - तोरावाटी, राजावाटी, चैरासी(शाहपुरा), नागरचोल, किशनगढ़ी, अजमेर, काठेड़ी, हाड़ौती।
झुंझुनूं जिले का दिक्षिणी भाग, सीकर जिले का पूर्वी एवं दक्षिणी-पूर्वी भाग तथा जयपुर जिले के कुछ उत्तरी भाग को तोरावाटी कहा जाता है। अतः यहां की बोली तोरावाटी कहलाई। काठेड़ी बोली जयपुर जिले के दक्षिणी भाग में प्रचलित है जबकि चैरासी जयपुर जिले के दक्षिणी-पश्चिमी एंव टोंक जिले के पिश्चमी भाग में प्रचलित है। नागरचोल सवाईमाधोपुर जिले के पश्चिमी भाग एवं टोंक जिले के दक्षिणी एवं पर्वी भाग में बोली जाती है। जयपुर जिले के पुर्वी भाग में राजावाटी बोली प्रचलित है।
हाड़ा राजपूतों द्वारा शासित होने के कारण कोटा, बूंदी, बांरां एवं झालावाड़ का क्षेत्र हाड़ौती कहलाया और यहां की बोली हाड़ौती, जो ढूंढाड़ी की ही एक उपबोली है। हाड़़ौती का भाषा के अर्थ में प्रयोग सर्वर्पथम केलाॅग की हिन्दी ग्रामर में सन् 1875 ई. में किया गया। इसके बाद ग्रियर्सन ने अपने गं्रथ में भी हाड़ौती को बोली के रूप में मान्यता दी। वर्तमान में हाड़ौती कोट, बूंदी(इन्द्रगढ़ एंव नैनवा तहसीलों के उत्तरी भाग को छोड़कर), बारां(किशनगंज एवं शाहबाद तहसीलों के पूर्वी भाग के अलावा) तथा झालावाड़ के उत्तरी भाग की प्रमुख बोली है। हाड़ौती के उत्तर में नागरचोल, उत्तर-पर्व में स्यौपुरी, पर्व तथा दक्षिण में मालवी बोली जाती है। कवि सूर्चमल्ल मिश्रण की रचनाएं इसी बोली में है।
अलवर एवं भतरपुर जिलों का क्षेत्र मेव जाति की बहुलता के कारण मेवात के नाम से जाना जाता है। अतः यहां की बोली मेवाती कहलाती है। यह अलवर की किशनगढ़, तिजारा, रामगढ़, गोविन्दगढ़, लक्ष्मणगढ़ तहसीलों तथा भरतपूर की कामां, डीग व नगर तहसीलों के पश्चिमोत्तर भाग तक तथा हरियाणा के गुड़गांव जिला व उ. प्रदेश के मथुरा जिले तक विस्तृत है। यह सीमावर्तिनी बोली है। उद्भव एवं विकास की दृष्टि से मेवाती पश्चिमी हिन्दी एवं राजस्थानी के मध्य सेतु का कार्य करती है। मेवाती बोली पर ब्रजभाषा का प्रभाव बहुत अधिक दृष्टिगोचर होता है।लालदासी एवं चरणदासी संत सम्प्रदायों का साहित्य मेवाती भाषा में ही रचा गया है। चरण दास की शिष्याएं दयाबाई व सहजोबाई की रचनाएं इस बोली में है। स्थान भेद के आधाार पर मेवाती, मेव व ब्राह्मण मेवाती आदि।
आभीर जाति के क्षेत्र की बोली होने के कारण इसे हीरवाटी या हीरवाल भी कहा जाता है। इस बोली के क्षेत्र को राठ कहा जाता है इसलिए इसे राठी भी कहते है। यह मुख्यतः अलवर की बहरोड़ व मुंडावर तहसील, जयपुर की कोटपूतली तहसील के उत्तरी भाग हरियाणा के गुड़गांव, महेन्द्रगढ़, नारनौल, रोहतक जिलों एवं दिल्ली के दक्षिणी भाग में बोली जाती है। यह बांगरू(हरियाणवी) एवं मेवाती के बीच की बोली है।
जोधपुर का हम्मीर रासौ महाकाव्य, शंकर राव का भीम विलास काव्य, अलीबख्शी ख्याल लोकनाट्य आदि की रचना इसी बोली में की गई है।
यह मालवा क्षेत्र में बोली जाने वाली भाषा है। इस बोली में मारवाड़ी एवं ढूंढाड़ी दोनों की कुछ विशेषताएं पाई जाती है। कहीं-कहीं मराठी का भी प्रभाव झलकता है। मालवी एवं कर्णप्रिय एवं कोमल भाषा है। इस बोली का रांगड़ी रूप कुछ कर्कश है, जो मालवा क्षेत्र के राजपूतों की बोली है।
इसे मालवी की उपबोली मााना जाता है। नीामाड़ी को दक्षिणी राजस्थानी भी कहा जाता है। इस पर गुजराती, भीली, एवं खानदेशी का प्रभाव है।
शाहपुरा बूंदी आदि के कुछ इलाकों में बोली जाने वाली बेाली, जो मेवाड़ी, ढूंढाड़ी एवं हाड़ौती का मिश्रण है।
मालवा के रजापूतों में मालवी एवं मारवाड़ी के मिश्रण से बनी रांगड़ी बोली भी प्रचलित है।
मारवाड़ी की उपबोली शेखावटी राज्य के शेखावटी क्षेत्र(सीकर, झुझुनू तथा चूरू जिले के कुछ क्षेत्र) में बोली जाति है। जिस पर मारवाड़ी एवं ढूंढाड़ी का पर्याप्त प्रभाव दृष्टिगोचर होता है।
जालौर जिले की आहोर तहसील के पूर्वी भाग से प्रारम्भ हेाकर बाली(पाली) में बोली जाने वाली यह मारवाड़ी की उपबोली है। बीसलदेव रासौ इस बोली की मुख्य रचना है।
यह भी मारवाड़ी की उपबोली है। जो सिरोही क्षेत्र में बोली जाती है। इसका दुसरा नाम सिरोही है।
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