उत्सर्जी अंग - आंत्र, त्वचा, फेफड़े, वृक्क, यकृत आदि।
यूरिया का निर्माण यकृत में होता है। जो वृक्क के माध्यम से उत्सर्जीत होता है। अनुपयोगी वर्णक पित्त लवणों में बदल कर पित्त रस के साथ आंत्र(आहार नाल) में पहुंच जाते है जहां वे मल के साथ बाहर निकल जाते है।
आकृति - सेम के बीज के आकार का।
- एक जोड़ी वृक्क।
- एक जोड़ी मुत्रवाहिनी
- एक मुत्राशय
- एक मुत्रद्वार
बाहरी सतह - उत्तनुमा
आन्तरिक सतक - अवतलनुमा
दांयी किड़नी(वृक्क) बांयी किड़नी से नीचे होती है।इसकी अवतल सतह से एक जोड़ी वृक्कीय धमनी, एक जोड़ी वृक्कीय शिरा और अपनी - अपनी मुत्रवाहिनी सम्बन्धित रहती है।प्रत्येक वृक्क में दस लाख नेफ्रोन पाये जाते है। जो उत्सर्जन की संरचनात्मक व क्रियात्मक ईकाई कहलाती है।
मानव में कुल नेफ्रोन - 20 लाख।
रूधिर का छनित भाग - ग्लोमेरूलस फिल्ट्रेट।
समस्त नेफ्रोन की संग्रह वाहिनियों से आया हुआ अछनित मूत्र कहलाता है।
मुत्र - 96 प्रतिशत जल, 2 प्रतिशत युरिया, 2 प्रतिशत युरिक एसिड।
PH - 6-8 हल्का अम्लीय
युरोक्रोम के कारण हल्का पिला रंग।
डायलाइसीस अवस्था(अपोहन) - रूधिर का तापमान शुन्य डिग्री से. होना चाहिए इसमें कृत्रिम प्रतिस्कन्दन का उपयोग किया जाता है।
वृक्क में बनी पत्थरी को कैल्शियम आॅक्सीलेट कहते है।
युरिया यकृत में बनती है परन्तु किडनी में छनती है।
यकृत के कारण दायी किडनी बायी किडनी से कुछ नीचे होती है।
मल का विशिष्ट रंग बिलिरूबीन(पित्त लवण) के कारण होता है।
मुत्र में अमोनियां जैसी गंध जीवाणुओं द्वारा युरिया को अमोनिया में बदलने से आती है।
त्वचा से भी अनावश्यक लवण व युरिया पसिने के रूप में निकलते है।
आहार नाल में पचित भोजन का अपशिष्ट भाग मल के रूप में मलाशय में एकत्रित हो जाता है।
यह कार्बनडाइ आॅक्साइड का उत्सर्जन करता है।
उत्सर्जन की प्रकृति के आधार पर जन्तुओं को तीन श्रेणीयों में बांटा जाता है।
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