दर्शन | आधार ग्रंथ | प्रतिपादक |
---|---|---|
सांख्य दर्शन | सांख्य सूत्र | कपिल मुनि |
योग दर्शन | योग सूत्र | पतंजलि |
न्याय दर्शन | न्याय सूत्र | गौतम |
वैशेषिक दर्शन | वैशेषिक सूत्र | कणाद/उलूक |
पूर्व मीमांशा | पूर्व मीमांशा | सूत्र जैमिनी |
उत्तर मीमांशा | ब्रह्म सूत्र | वेदव्यास/वादरायण |
धार्मिक आन्दोलन के कारण
उत्तरवैदिक काल से वर्णव्यवस्था का जटिल हो जाना। अब वर्णव्यवस्था कर्म के आधार पर नहीं बल्कि जन्म के आधार पर हो गयी थी। धार्मिक जीवन आडंबरपूर्ण, यज्ञ एवं बलि प्रधान बन चुका था।
उत्तरवैदिक काल के अंत तक धार्मिक कर्मकाण्डों एवं पुरोहितों के प्रभुत्व के विरूद्ध विरोध की भावना प्रकट होने लगी थी।
उत्तर-पूर्वी भारत में कृषि व्यवस्था का विकास भी धार्मिक आन्दोलन की शुरूआत का एक मुख्य कारण था।
जैन धर्म की स्थापना का श्रेय जैनियों के प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव को जाता है।
जैन धर्म को संगठित करने एवं विकसित करने का श्रेय वर्धमान महावीर को दिया जाता है।
जैन धर्म के प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव या आदिनाथ थे।
तीर्थकर | प्रतीक चिन्ह |
---|---|
आदिनाथ/ऋषभदेव | वृषण/सांड/बैल |
अजितनाथ | हाथि |
संभवनाथ | घोड़ा |
मल्लिनाथ | कलश |
नेमिनाथ | नील कमल |
अरिष्टनेमी | शंख |
पाश्र्वनाथ | सांप(सर्प) |
महावीर स्वामी | सिंह |
ऋषभदेव का उल्लेख ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद, श्रीमद् भागवत, विष्णुपुराण, एवं भागवत पुराण में हुआ है।
ऋषभदेव का जन्म अयोध्या में हुआ था एवं इनकी मृत्यु अट्ठवय पर्वत अर्थात कैलाश पर्वत पर हुई थी।
ऋषभदेव का प्रतीक चिन्ह सांड है।
जन्म - वाराणसी में
पिता - वाराणसी के राजा अश्वसेन
माता - वामादेवी
पत्नी - प्रभावति
ज्ञान प्राप्ति - समवेत पर्वत पर
शरीर त्याग - पारसनाथ पहाड़ी पर
पाश्र्वनाथ के अनुयायी निग्रंथ कहलाते थे।
ये जैनधर्म के 24 वें तीर्थकर एवं जैन धर्म के वास्तविक संस्थापक थे।
जन्म - 540 ई.पू., जन्मस्थल - कुण्डग्राम
पिता - सिद्धार्थ(वज्जि संघ के ज्ञातृक कुल में)
माता - त्रिशला(लिच्छवी वंश के शासक चेटक की बहन)
पत्नि - यशोदा
पुत्री - प्रियदर्शना(अनोज्जा),दामाद - जामाली(प्रथम शिष्य एवं प्रथम विरोधी)
बचपन का नाम - वर्धमान महावीर
ज्ञान प्राप्ति स्थल - जृम्भिक गांव, ऋजुपालिका नदी के तट पर साल के वृक्ष के नीचे
प्रथम उपदेश - राजगृह में(वितुलाचल पर्वत पर बैठकर)
निर्वाण - पावापुरी(राजगृह) में मल्लगणराज्य के प्रधान सस्तिपाल के यहां। 468 ई.पू. में।
अहिंसा - जीव की हिंसा न करना
सत्य - सदा सत्य बोलना
अपरिग्रह - संपत्ति एकत्रित नहीं करना
अस्तेय - चोरी न करना
ब्रह्मचर्य - स्त्री से संपर्क न बनाना(महावीर स्वामी ने जोड़ा था)
सम्यक ज्ञान - वास्तविक ज्ञान
सम्यक दर्शन - जैन तीर्थकरों तथा उपदेशों में दृढ़ आस्था तथा श्रद्धा रखना/सत्य में विश्वास
सम्यक चरित्र - इंद्रियों एवं कर्मो पर पूर्ण नियंत्रण
जैन धर्म में अहिंसा पर विशेष बल दिया गया है।
जैन धर्म में कृषि एवं युद्ध में भाग लेने पर प्रतिबंध लगाया गया है।
जैन धर्म पुनर्जन्म व कर्मवाद में विश्वास करता है।
जैन धर्म के अनुसार कर्मफल ही जन्म तथा मृत्यु का कारण है।
जैन धर्म में वर्ण व्यवस्था की निंदा नहीं की गयी है।
जैन धर्म संसार की वास्तविकता को स्वीकार करता है।
सृष्टिकर्ता के रूप में ईश्वर को स्वीकार नहीं करता है।
जैन धर्म में देवताओं के अस्तित्व को स्वीकार किया गया है। परन्तु उनका स्थान जिन से नीचे रखा गया है।
जैन धर्म का दर्शन ‘अनेकान्तवाद’, ‘स्यादवाद’ एवं ‘अनिश्वरवादिता’ है। जैन धर्म में ‘सृष्टि की नित्यता’ को दर्शन के रूप में शामिल किया गया है।
जैन धर्म ईश्वर एवं वेदों की सत्ता को अस्वीकार करता है।
जैन धर्म मोक्ष एवं आत्मा को स्वीकार करता है।
नोट - स्यादवाद को अनेकान्तवाद या सप्तभंगी सिद्धांत भी कहा जाता है।
अनेकान्तवाद: जिस प्रकार जीव भिन्न-भिन्न होते हैं उसी प्रकार उनमें आत्माएं भी भिन्न-भिन्न होती है। इसके अनुसार आत्मा को परिवर्तनशील मानता है।
स्यादवाद: इसके अनुसार तत्व ज्ञान को पृथक-पृथक दृष्टिकोण से देखा जाता है क्योंकि प्रत्येक काल में जीव का ज्ञान एक नहीं हो सकता है। ज्ञान की विभिन्नताएं सात प्रकार से हो सकती है। अतः यह दर्शन सप्तभंगीनय भी कहा जाता है।
अनिश्वरवादिता एवं सृष्टि की नित्यता: जैन ईश्वर में विश्वास नहीं करते थे। वे ईश्वर को विश्व का निर्माणकत्र्ता और नियन्ता भी नहीं मानते थे। उनके अनुसार सृष्टि आदि काल से चलती आ रही है और उनन्त काल तक चलती रहेगी। यह शाश्वत नियम के आधार पर कार्य करती है।
जैन धर्म में संसार को दुःख मूलक माना गया है। व्यक्ति को सांसारिक जीवन की तृष्णाएं घेरे रहती है। यही दुःख मूल कारण है।
संसार त्याग तथा संन्यास मार्ग ही व्यक्ति को सच्चे मार्ग पर ले जा सकती है।
संसार के सभी प्राणी अपने-अपने संचित कर्मो के अनुसार ही कर्मफल भोगते हैं।
कर्म से छुटकारा पाकर ही व्यक्ति निर्वाण की ओर अग्रसर होता है।
जैन धर्म के अनुसार प्रत्येक जीव में विधमान आत्मा स्वभाविक रूप से सर्व-शक्तिमान एवं सर्वज्ञाता होती है। किन्तु पुदगल के कारण यह बंधन में पड़ जाती है। पुद्गल एक कर्म पदार्थ है।
जब आत्मा में पुदगल घुल-मिल जाता है तो आत्मा में एक प्रकार का रंग उत्पन्न करता है। यह रंग लेस्य कहा जाता है। लेस्य 6 रंगों का होता है।
काला, नीला, धूसर - बुरे चरित्र का सूचक
पीला, लाल, सफेद - अच्छे चरित्र का सूचक
पुदगल से मुक्ति
पुदगल से मुक्ति पाने के लिए त्रिरत्न(सम्यक ज्ञान, सम्यक दर्शन, सम्यक चरित्र) का अनुशीलन अनिवार्य है।
जब कर्म(पुदगल) का अवशेष समाप्त हो जाता है। तब मोक्ष की प्राप्ति होती है।
महावीर स्वामी ने पावापुरी में जैन संघ की स्थापना की।
संघ के अध्यक्ष(क्रमानुसार) - महावरी स्वामी, सुधर्मन - जम्बुस्वामी - अन्तिम केवलिन
तीर्थकर - अवतार पुरूष
अर्हंत - जो निर्वाण के बहुत करीब थे।
आचार्य - जैन संन्यासी समूह के प्रधान।
उपाध्यक्ष - जैन धर्म के अध्यापक/संत।
भिक्षु-त्रिक्षुणी - ये संन्यासी जीवन व्यतीत करते थे।
श्रावक-श्राविका - ये गृहस्थ होकर भी संघ के सदस्य थे।
निष्क्रमण - जैन संघ में प्रवेश करने के लिए एक विधि संस्कार
जैन संघ में ऊंच-नीच एवं अमीर-गरीब का कोई भेद नहीं था।
चन्दना - यह भिक्षुणियों के संघ की अध्यक्षा थी।
चेलना - यह श्राविकाओं संघ की अध्यक्षा थी।
श्वेताम्बर | दिगम्बर |
---|---|
मोक्ष प्राप्ति के लिए वस्त्र त्याग आवश्यक नहीं | मोक्ष के लिए वस्त्र त्याग आवश्यक |
स्त्रियां मोक्ष की अधिकारी हैं। | स्त्रियों को निर्वाण संभव नहीं |
कैवल्य के बाद भी भोजन की आवश्यकता | कैवल्य के बाद भोजन की आवश्यकता नहीं |
श्वेताम्बर मतानुसार महावीर स्वामी विवाहित थे। | दिगम्बर मतानुसार महावीर स्वामी अविवाहित थे। |
19वीं तीर्थर मल्लिनाथ स्त्री थी। | 19वें तीर्थकर मल्लिनाथ पुरूष थे। |
अंग, उपांग, प्रकीर्ण, छेद सूत्र, मूल सूत्र आदि को मानते थे। | दिगम्बर इन साहित्यों में विश्वास नहीं रखते थे। |
इसके प्रमुख स्थूल भद्र थे। | इसके प्रमुख भद्रबाहु थे। |
श्वेताम्बर - पुजेरा/मूर्तिपूजक/डेरावासी/मन्दिर मार्गी/ढुंढ़िया/स्थानकवासी/साधुमार्गी/थेरापंथी।
दिगम्बर - बीसपंथी/तेरापंथी/तीसपंथी/गुमानपंथी/तोतापंथी
जैन साहित्य को आगम कहा जाता है। इसमें 12 अंग, 12 उपांग, 10 प्रकीर्ण, 6 छेदसूत्र, 4 मूलसूत्र होते हैं।
जैन धर्म के ग्रंथ अर्द्धमागधी(प्राकृत) भाषा में लिखे गए थे।
भद्रबाहु ने कल्पसूत्र को संस्कृत में लिखा।
आचरांगसूत्र - जैन मुनियों के जीवन के लिए आचार नियम।
भगवती सूत्र - महावीर के जीवन तथा कृत्यों एवं उनके समकालीनों का वर्णन। इसमें सोलह महाजनपदों का उल्लेख है।
नायाधम्मकहा - महावीर की शिक्षाओं का संग्रह।
12 उपांग - इसमें ब्राह्मण का वर्णन, प्राणियों का वर्गीकरण, खगोल विधा, काल विभाजन, मरणोपरान्त जीवन का वर्णन आदि।
10 प्रकीर्ण - जैन धर्म से संबंधित विधि विषयों का वर्णन।
6 छेदसूत्र - इसमें भिक्षुओं के लिए उपयोगी नियम तथा विधियों का संग्रह।
थेरावलि - इसमें जैन सम्प्रदाय के संस्थापकों की सूची दी गयी है।
नादि सूत्र एवं अनुयोग सूत्र - जैनियों के शब्द कोष है। इसमें भिक्षुओं के लिए आचरण संबंधी बातें है।
कल्पसूत्र | भद्रबाहु |
द्रव्यसंग्रह | नमिचन्द |
कुवलयमाला | उधोतन सूरी |
स्यादवादजरी | मल्लीसेन |
स्थान - पाटलिपुत्र, वर्ष - 300 ई.पू., अध्यक्ष - स्थूलभद्र
नोट - इसी सम्मेलन में जैन धर्म 2 सम्प्रदायों में बंट गया था।
स्थान - वल्लभी(गुजरात), वर्ष - 512 ई., अध्यक्ष - इेवर्धिगण(क्षताश्रमण)
नोट - इस सम्मेलन में बिखरे ग्रंथों का संकलन किय गया।
अयोध्या - यहां 5 तीर्थकरों का जन्म हुआ था। प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव का जन्म यहीं हुआ था।
सम्मेद शिखर - यहां पाश्र्वनाथ ने अपना शरीर त्यागा था।
पावापुरी - यहां महावरी स्वामी ने निर्वाण प्राप्त किया था।
कैलाश पर्वत - यहां आदिनाथ/ऋषभदेव ने निर्वाण प्राप्त किया।
श्रवणबेलगोला - यहां गौमतेश्वर बाहुवली की विशाल प्रतिमा है।
माउन्ट आबू - यहां सफेद संगमरमर से बने दिलवाडा के जैन मंदिर स्थित हैं।
यह जैन धर्म का एक संम्प्रदाय है जिसकी उत्पत्ति दिगम्बर संम्प्रदाय से हुई यह श्वेतांबरों की सान्यताओं का भी पालन करता है।
महापद्मनंद, धनानंद, बिम्बिसार, अजात शत्रु, उदयनि, चन्द्रगुप्त मौर्य, बिन्दुसार, सम्प्रति, चण्डप्रधोत, खारवेल, अमोघवर्ष, कुमारपाल आदि।
Continue ... प्राचीन धार्मिक आन्दोलन(बौद्ध धर्म)
© 2024 RajasthanGyan All Rights Reserved.