भौगोलिक परिस्थिति - हिन्दु जन जागरण
औरंगजेब की हिन्दु विरोधी नीतियां
मराठा संत एवं कवियों के धार्मिक आन्दोलन
मुगल साम्राज्य की पतनोन्मुख स्थिति
शिवाजी
शिवाजी का जन्म 20 अप्रैल, 1627 (कुछ जगह 19 फरवरी, 1630) को शिवनेर दुर्ग (पूना) में हुआ। उनके पिता का नाम शाह जी भोंसले व माता का नाम जीजा बाई था। इनके गुरू समर्थ रामदास जी (धरकारी संप्रदाय) थे। इनके संरक्षक दादाजी कोणदेव थे।
राज्याभिषेक: 1674 ई. (रायगढ़ दुर्ग में)
उपाधि: छत्रपति, हिन्दु धर्मोद्धारक, रांजा(औरंगजेब द्वारा)
प्रथम विजय: सिंहगढ़ किला (1643 ई.)
सर्वप्रथम 1646 ई. में शिवाजी ने तोरण का किला जीता। कुछ पुस्तकों में शिवाजी द्वारा जीता गया प्रथम दुर्ग सिंहगढ़ का उल्लेख है।
प्रथम राज्याभिषेक: जून, 1674 (रायगढ़ दुर्ग में विश्वेश्वर/गंगाभट्ट द्वारा)
द्वितीय राज्याभिषेक: सितंबर, 1674 निश्चलपुरी गोसाई द्वारा
शिवाजी की विजय
सर्वप्रथम, 1643 ई. में सिंहगढ़ का किला जीता।
1646 ई. में तोरण पर अधिकार किया।
1657 ई. में पहली बार शिवाजी का मुकाबला मुगलों से हुआ। शिवाजी बीजापुर की तरफ से मुगलों से लड़े।
1659 ई. में बीजापुर शासक ने शिवाजी को दबाने के लिए अफजल खां के नेतृत्व में एक टुकड़ी भेजी। शिवाजी ने अफजल खां की हत्या कर दी।
1660 ई. में औरंगजेब ने शिवाजी को खत्म करने के लिए अपने मामा शाइस्ता खां को दक्षिण का गवर्नर नियुक्त किया परन्तु 1663 ई. में शिवाजी ने रात में पूना के महल पर आक्रमण कर दिया और शाइस्ता खां भाग निकला।
1664 ई. में शिवाजी ने सूरत को लूटा।
औरंगजेब ने आमेर के राजा, मिर्जाराजा जयसिंह को शिवाजी दमन के लिए भेजा। जयसिंह के साथ युद्ध में शिवाजी की हार हुई तथा शिवाजी ने संधि कर ली।
इस संधि से शिवाजी को 23 किले मुगलों को सौंपने पड़े।
1666 ई. में जयसिंह के आश्वासन पर शिवाजी औरंगजेब से मिलने आगरा आये परन्तु उचित सम्मान न मिलने पर उठ कर चल दिए। इससे नाराज होकर औरंगजेब ने शिवाजी को कैद कर जयपुर भवन (आगरा) में रखा।
श्विाजी ने औरंगजेब से समझौता कर लिया एवं अपने पुत्र शंभा जी को मुगल युवराज मुअज्जम की सेवा में भेज दिया।
औरंगजेब ने श्विाजी को राजा की उपाधि प्रदान की।
1670 ई. में शिवाजी ने पुनः मुगलों पर युद्ध शुरू किया और पुरन्दर की संधि द्वारा खोये अनेक किलों को पुनः जीत लिया।
कर्नाटक अभियान (1677 ई.)
इस अभियान में शिवाजी ने जिंजी, मदुरै, बेल्लूर आदि के साथ कर्नाटक एवं तमिलनाडु के लगभग 100 किलों को जीता।
शिवाजी ने जिंजी को अपने दक्षिण भाग की राजधानी बनाया।
12 अप्रैल, 1680 ई. में शिवाजी की मृत्यु हो गयी।
विचार
‘मैं शिवाजी को हिन्दु प्रजाति का अंतिम रचनात्मक प्रतिभा-सम्पन्न व्यक्ति और राष्ट्र निर्माता मानता हूं।’ - जदुनाथ सरकार
‘विगत एक सहस्त्राब्दि में शिवाजी जैसा कोई हिन्दु सम्राट नहीं हुआ था।’ - स्वामी विवेकानन्द।
शिवाजी का प्रशासन
प्रशासन में शिर्ष पर छत्रपति होता था।
छत्रपति प्रभुत्व सम्पन्न निरंकुश शासक, अंतिम कानून निर्माता, प्रशासकीय प्रधान, न्यायाधीश और सेनापति था।
अष्ठप्रधान : शासन का संचालन 8 मंत्रियों की संस्था की सहायता से होता था। इन मंत्रियों का कार्य छत्रपति को परामर्श देना मात्र था। प्रत्येक मंत्री राजा के प्रति उत्तरदायी था।
1. पेशवा: राजा का प्रधानमंत्री। कार्य - सम्पूर्ण राज्य शासन की देखभाल।
2. अमात्य/मजमुआदार: वित्त एवं राजस्व मंत्री (मजूमदार)
3. वाकिया नवीस: राजा एवं दरबार के दैनिक कार्यों का विवरण रखना। (गृहमंत्री)
4. शुरू नवीस/सचिव: राजकीय पत्र व्यवहार कार्य।
5. दबीर/सुमन्त: विदेश मंत्री
6. सर-ए-नौबत/सेनापति: सेना का भर्ती, संगठन, रसद आपूर्ति कत्र्ता
7. पण्डितराव: धार्मिक अनुदानों संबंधित कार्य।
8. न्यायाधीश: राजा के बाद मुख्य न्यायाधीश (दीवान एवं फौजदारी दोनों)
चिटनिस: मुंशी(पत्राचार लिपिक) होता था।
नोट: पण्डितराव व न्यायाधीश को छोड़कर सभी युद्ध में भाग लेते थे।
शिवाजी के पास स्थायी एवं नियमित सेना थी।
घुड़सवार:
शिवाजी की सेना में भिन्न-भिन्न जातियों के सैनिक थे।
सैनिकों को नकद वेतन दिया जाता था।
मावली सैनिक: शिवाजी के अंगरक्षक।
पागा: घुड़सवार सेना का एक संगठन था।
शिवाजी की राजस्व व्यवस्था रैय्यतवाडी प्रथा पर आधारित थी।
भूमि की पैमाइश के आधार पर उत्पादन का अनुमान लगाया जाता था तथा किसान से लगान निर्धारित किया जाता था।
राजस्व नकद या वस्तु के रूप में चुकाया जा सकता था।
आरंभ में शिवाजी ने उपज का 33 प्रतिशत भाग कर के रूप में वसूल किया बाद में इसे बढ़ा कर 40 प्रतिशत कर दिया।
भूमि की पैमाइश काठी/जरीब से की जाती थी।
कृषकों को तकाबी ऋण भी प्रदान किया जाता था।
गांव के प्राचीन पैतृक अधिकारी पाटिल और जिले के देशमुख/देशपाण्डे होते थे।
चौथ: विजित राज्यों के क्षेत्रों से उपज का 1/4 भाग कर के रूप में वसूल किया जाता था।
सरदेशमुखी: यह एक अतिरिक्त कर था जो उपज का 1/10 भाग या 10 प्रतिशत होता था।
शिवाजी की न्याय व्यवस्था प्राचीन स्मृतियों पर आधारित थी।
ग्राम स्तर पर अपराधिक मामलों की सुनवाई पटेल करता था।
अपील की अंतिम अदालत हाजिर-मजलिस थी।
अंतिम/सर्वोच्च न्यायाधीश/कानून निर्माता छत्रपति था।
शिवाजी की मृत्यु के बाद 21 अप्रैल, 1680 ई. को राजा राम का राज्याभिषेक हुआ। इसके कुछ समय बाद ही शिवाजी के दो पुत्रों (दो पत्नियों से उत्पन्न) शम्भा जी एवं राजा राम के बीच उत्तराधिकार का विवाद हुआ। अन्ततः राजा राम को गद्दी से उतारकर शम्भा जी 20 जुलाई 1680 ई. को सिंहासनारूढ़ हुए।
ये शिवाजी के छोटे पुत्र थे।
शिवाजी ने इन्हें पन्हाला किले में कैद कर दिया था।
16 जनवरी, 1681 ई. को इनका राज्याभिषेक हुआ। इन्होंने रायगढ़ को अपनी राजधानी बनाया। इन्होंने ब्राह्मण कवि कलश को प्रशासन का सर्वोच्च पद सौंपा।
इनके समय में अष्ठप्रधान में विघटन हो गया था।
इन्होंने औरंगजेब के पुत्र अकबर को संरक्षण दिया था। इसी कारण औरंगजेब ने इनकी हत्या करवा दी। शम्भा जी के साथ कवि कलश की हत्या भी करवायी गयी।
शम्भा जी की मृत्यु के बाद राजा राम पुनः राजगद्दी पर बैठा।
राजा राम स्वयं को शाहू(शम्भा जी का पुत्र) का प्रतिनिधि कहता था।
राजा राम के समय में ही प्रतिनिधि पद का सृजन हुआ जो पेशवा से ऊपर एवं छत्रपति से नीचे का पद था। इस प्रकार अष्ठप्रधान में अब 9 मंत्री हो गये।
1689 ई. में ही औरंगजेब के आक्रमण के भय से राजाराम ने रायगढ़ को छोड़कर जिंजी में शरण ली एवं 8 वर्षों तक जिंजी को राजधानी बना वहीं रहा।
औरंगजेब ने 1689 ई. में रायगढ़ पर आक्रमण कर शाहू को बंदी बना लिया जो औरंगजेब की मृत्य (1707 ई.) तक कैद में रहा।
राजा राम के समय 1689 में मुगलों ने रायगढ़ पर कब्जा कर लिया।
1698 ई. में राजाराम जिंजी से वापस आया और सतारा को राजधानी बनाया। 1700 ई. में राजाराम की मृत्यु हो गयी।
शिवाजी-II (ताराबाई के संरक्षण में) (1700-07 ई.)
राजा राम की मृत्यु के बाद उनकी विधवा ताराबाई ने अपने चार वर्षीय पुत्र को शिवाजी-2 नाम से गद्दी पर बैठाया एवं स्वयं उसकी संरक्षिका बन गयी।
1707 ई. में औरंगजेब की मृत्यु के बाद, औरंगजेब के पुत्र आजमशाह ने जुल्फिकार खां के कहने पर शाहू जी को आजाद कर दिया।
औरंगजेब की कैद से रिहा होने के बाद सतारा पहुंचा तो सतारा पर ताराबाई का अधिकार था।
खेड़ा का युद्ध (12 अक्टूबर, 1707): यह ताराबाई की सेना एवं शाहू जी की सेना के बीच हुआ। इस युद्ध में बालाजी विश्वनाथ की सहायता से शाहू जी विजयी हुआ। ताराबाई भागकर दक्षिणी महाराष्ट्र पहुंच गयी।
1708 में शाहू जी का राज्याभिषेक हुआ उसकी राजधानी सतारा थी।
वार्ना की संधि, 1731 द्वारा मराठा राज्य दो भागों में बंट गया।
1708 ई. में शाहू जी ने बाला जी विश्वनाथ को सेनाकर्ते (सेना के व्यवस्थापक) का पद प्रदान किया।
1713 ई. में बालाजी विश्वनाथ को पेशवा के पद पर आसीन किया। इसके बाद यह पेशवा पद वंशानुगत हो गया।
1714 ई. में राजा राम की दूसरी पत्नि राजस बाई ने ताराबाई एवं उसके पुत्र शिवाजी-2 को कैद कर लिया और अपने पुत्र शम्भा जी-II के साथ कोल्हापुर में बस गयी।
ताराबाई के कहने पर राजाराम-II को छत्रपति बनाया गया।
बालाजी बाजीराव एवं राजाराम-2 के बीच
इस संधि के अनुसार, मराठा संघ का वास्तविक नेता पेशवा बन गया।
यह ब्राह्मण था जो पेशवाओं के क्रम में सातवां था।
बालाजी विश्वनाथ को मराठा सम्राज्य का द्वितीय संस्थापक माना जाता है।
1708 ई. में इन्हें सेनाकर्ते का पद प्रदान किया गया। 1713 ई. में पेशवा बने।
दिल्ली संधि/मुगल मराठा संधि/बालाजी-सैयद हुसैन संधि
कारण: फर्रूख्सियार को सिंहासन से हटाना
यह संधि पेशवा बालाजी विश्वनाथ एवं सैय्यद हुसैन अली (मुगलों की ओर से) के बीच हुई।
रिचर्ड टेम्पल ने इस संधि को मराठों का मैग्नाकार्टा कहा था।
इस संधि पर हस्ताक्षर करने वाला मुगल शासक रफी उद दरजात था।
मराठा शक्ति को चर्मोत्कर्ष पर पहुंचाया।
मुगल साम्राज्य की तात्कालिक स्थिति पर बाजीराव ने कहा ‘हमें इस जर्जर वृक्ष के तने पर प्रहार करना चाहिए, शाखाएं तो स्वयं ही गिर जाएंगी’।
शूकरखेड़ा के युद्ध में मराठों ने दक्कन के निजामुलमुल्क का सहयोग किया एवं निजाम ने मुगल सूबेदार मुबारिज खां को परास्त किया।
पालखेड़ा का युद्ध (7 मार्च, 1728 ई.) में बाजीराव ने निजाम को परास्त किया। इस युद्ध में हारने के बाद निजाम ने मुंशी शिवगांव की संधि की। इस संधि के बाद दक्कन में मराठा सर्वोच्चता स्थापित हो गयी।
डभोई का युद्ध (1731 ई.) में बाजीराव ने त्रयम्बक राव को परास्त किया।
1738 ई. में गुजरात को मराठा राज्य में मिला लिया गया।
अमझेरा का युद्ध (1728 ई.)
बाजीराव ने मालवा के सूबेदार गिरधर बहादुर को पराजित किया।
मुगल सूबेदार सवाई जयसिंह, मुहम्मद खां बंगश, गिरधर बहादुर इत्यादि मराठा पेशवा बाजीराव एवं मराठा सरदार ऊदा जी पवार एवं मल्हार राव होल्कर को रोकन में असफल रहे।
1735 ई. तक मालवा में मुगलों की सत्ता लगभग समाप्त हो गयी।
बुन्देलखण्ड विजय: 1728 ई. में मराठों ने मुगलों से बुन्देलखण्ड के सभी विजित प्रदेश वापस छीन लिए।
छत्रसाल ने पेशवा की शान में आयोजित दरबार में एक मुस्लिम नर्तकी ‘मस्तानी’ को पेश किया एवं काल्पी, झांसी, सागर एवं ह्रदयनगर पेशवा को जागीर में भेंट किया।
दिल्ली पर आक्रमण (29 मार्च, 1737): 3 दिन दिल्ली में रहने के बाद पेशवा को मालवा की सूबेदारी मिल गयी एवं 13 लाख वार्षिक धनराशि की अदायगी के आश्वासन पर पेशवा वापस लौटा।
भोपाल का युद्ध (7 जुलाई, 1738 ई.): में बाजीराव ने निजाम को घेर लिया एवं संधि करने पर विवश किया। 1738 ई. में दुरई सराय की संधि द्वारा सम्पूर्ण मालवा एवं नर्मदा से चम्बल तक का क्षेत्र मराठों को प्राप्त हुआ।
बसीन विजय (1739 ई.): मराठों ने पुर्तगालियों से बसीन छीन लिया।
1732 ई. में बाजीराव ने एक इकरारनामा तैयार किया जिससे सम्पूर्ण मराठा राज से 4 नए मराठा राज्यों की आधारशिला तैयार हुई।
ग्वालियर: सिंधिया राजवंश (रानोजी सिंधिया द्वारा)
इन्दौर: होल्कर राजवंश (मल्हार राव होल्कर द्वारा)
बड़ौदा: गायकवाड़ राजवंश (पिला जी गायकवाड़)
नागपुर: भोंसले राजवंश (शाहू के साथ संबंध)
अन्य नाम: नाना साहब
इसने मराठा शासक राजाराम-2 से संगोला समझौता करके राज्य के सम्पूर्ण अधिकार स्वंय ले लिए।
1742 ई. में झांसी मराठों का उपनिवेश बना।
1751 ई. में उड़ीसा पर मराठों का अधिकार हो गया। बंगाल एवं बिहार से चौथ प्राप्त।
1752 ई. में निजाम एवं मराठों के बीच भलकी की संधि हुई एवं बराड का आधा क्षेत्र मराठों को प्राप्त हुआ।
सिन्दखेड़ा युद्ध (1757 ई.) में मराठों ने निजाम से कई प्रदेश छीने।
उदगीर का युद्ध (1760 ई.) में मराठों ने निजाम को हराकर अहमदनगर, दौलताबाद, बुरहानपुर एवं बीजापुर प्राप्त किए।
बालाजी बाजीराव के समय ही पानीपत का तीसरा युद्ध हुआ।
यह युद्ध अहमदशाह अब्दाली एवं मराठों के मध्य हुआ जिसमें मराठों की हार हुई। मराठा शक्ति का बहुत ह्रास हुआ।
पानीपत के तीसरे युद्ध में हार के बाद मराठों की प्रतिष्ठा को पुनः बहाल करने की कोशिश की।
हैदराबाद के निजाम एवं मैसूर के हैदरअली को चौथ देने के लिए बाध्य किया।
इसी के काल में मुगल बादशाह शाह आलम-II ने 1772 ई. में मराठों की संरक्षिता स्वीकार की।
इसकी मृत्यु के बाद मराठा साम्राज्य का पतन प्रारंभ हो गया।
यह माधव राव का छोटा भाई था। इसकी हत्या रघुनाथ राव ने की।
यह नारायण राव का पुत्र था।
नाना फडनवीश के नेतृत्व में मराठा राज्य की देखभाल के लिए ‘बारा भाई कौंसिल’ की नियुक्ति की।
फड़नवीस की मृत्यु के बाद मराठा शक्ति पेशवा बाजीराव-2, दौलत राव सिंधिया एवं यशवन्त राव होल्कर के हाथ में रही।
पेशवा बाजीराव-2 एवं दौलतराव सिंधिया ने होल्कर के खिलाफ षड़यंत्र रचा एवं 1801 ई. में पेशवा ने जसवंत राव होल्कर के भाई विट्टू जी की निर्मम हत्या कर दी।
जसवंत राव होल्कर ने 1802 ई. में पूना पर आक्रमण किया एवं पेशवा और सिंधिया की संयुक्त सेना को ह्रदयसर नामक स्थल पर पराजित कर पूना पर अधिकार कर लिया। बाजीराव-2 बसीन भाग गया वहां उसने 31 दिसम्बर, 1802 ई. में अंग्रेजों के साथ बसीन की संधि कर ली।
मराठा क्षेत्र मुख्य रूप से 6 रियासतों में बंटा था -
सतारा - छत्रपति | पुणे - पेशवा |
ग्वालियर - सिंधिया | नागपुर - भौंसले |
बड़ौदा - गायकवाड़ | इन्दौर -होल्कर |
मालवा में सिंधिया वंश की स्थापना रानो जी सिंधिया ने की।
प्रारंभ में इनकी राजधानी उज्जैन थी बाद में ग्वालियर को राजधानी बनाया गया।
महादजी सिंधिया इस वंश का एक प्रतापी शासक हुआ।
1803 ई. में दौलत राव सिंधिया अपने क्षेत्र को अंग्रेजों के समर्पण के लिए बाध्या हो गया।
नागपुर में भौंसले वंश की स्थापना रघु जी भोंसले ने की।
रघुजी भोंसले को बंगाल एवं बिहार में साम्राज्य विस्तार का उत्तरदायी माना जाता है।
गुजरात में गायकवाड़ वंश की स्थापना पिला जी राव गायकवाड़ ने की।
गायकवाड़ गुजरात में मराठा सेनापति दबाधे परिवार के अधीनस्थ थे।
दामाजी राव गायकवाड़ मराठा सेना के साथ पानीपत के तृतीय युद्ध में अंग्रेजों के खिलाफ लड़ा था।
इन्दौर में होल्कर राजवंश की स्थापना मल्हार राव होल्कर ने की थी।
ये होल्कर वंश का गौरव एवं कुशल शासिका मानी जाती हैं।
ये मल्हार राव होल्कर के पुत्र खांडेराव होल्कर की पत्नी थी।
मालवा के इन्दौर क्षेत्र में शांति, लुटेरों से मुक्ति एवं अनेक सामाजिक एवं धार्मिक तथा मन्दिर, धर्मशाला, सड़क, घाट, कुएं, बावड़ियों के निर्माण के लिए स्मरणीय हैं।
अहिल्या बाई होल्कर महिला सशक्तिकरण की पक्षधर थीं।
अहिल्या बाई होल्कर ने कलकत्ता से बनारस तक सड़क, बनारस का अन्नपूर्णा मन्दिर गया में विष्णु मन्दिर बनवाए।
बनारस के काशी विश्वनाथ मंदिर की वर्तमान आकृति का निर्माण अहिल्या बाई होल्कर ने करवाया। रणजीत सिंह ने मंदिर के लिए सोना दान किया एवं दो स्वर्ण गुंबद बने।
सूरत की संधि (1775 ई.): बम्बई की अंग्रेजी सरकार एवं रघुनाथ राव के बीच।
इस संधि में तय हुआ की अंग्रेज रघुनाथ राव (राघोवा) को पेशवा बनाने में सहायता करेंगे।
मराठे बंगाल एवं कर्नाटक पर आक्रमण नहीं करेंगे।
18 मई, 1775 ई. में आरस के मैदान में अंग्रेज एवं मराठों के बीच पहला संघर्ष हुआ इस संघर्ष में मराठों की हार हुई।
1. पुरन्दर की संधि (1 मार्च, 1776 ई.): वारेन हेस्टिंग ने पूना दरबार में कर्नल अप्टन को भेज कर यह संधि की। यह संधि कार्यान्वित नहीं हुई।
2. बडगांव की संधि (1779 ई.): पुणे दरबार एवं अंग्रेजों के बीच यह संधि हुई। वारेन हेस्टिंग ने इस संधि को मानने से इन्कार कर दिया।
3. सालबाई की संधि (1782 ई.): महादजी सिंधिया की मध्यस्था से पुना दरबार एवं अंग्रेजों के बीच यह संधि 17 मई, 1782 ई. में हुई। इससे आंग्ल-मराठा संघर्ष रूका। इस संधि से अंग्रेजों ने रघुनाथ राव का साथ छोड़ माधव नारायण राव को पेशवा माना।
यह युद्ध दो मुख्य केन्द्रों में शुरू हुआ।
1. दक्कन - वेलेजली के अधीन अंग्रेज सेना एवं सिंधिया व भोसले की संयुक्त सेना के बीच। इसमें वेलेजली विजयी रहा।
2. जनरल लेक के अधीन अंग्रेज सेना एवं सिंधिया की सेना के बीच उत्तर भारत में। इसमें भी अंग्रेज सेना ने विजय प्राप्त की।
1. देव गांव की संधि (17 दिसम्बर, 1803 ई.): यह भोसले एवं अंग्रेजों के बीच हुई।
2. सुर्जी-अर्जनगांव की संधि (30 दिसम्बर, 1803 ई.): यह सिंधिया एवं अंग्रेजों के बीच थी।
यह युद्ध पेशवा एवं अंग्रेजों के मध्य हुआ जिसमें पेशवा पराजित हुआ।
पूना की संधि (13 जून, 1817): यह पेशवा बाजीराव-2 एवं अंग्रेजों के बीच हुई।
इस संधि से पेशवा को मराठा संघ की प्रधानता त्यागनी पड़ी।
दौलतराव संधिया एवं अंग्रेजों के बीच 5 नवंबर, 1817 ई. को ग्वालियर की संधि हुई।
नागपुर के भोसले एवं अंग्रेजों के बीच 27 मई, 1816 ई. में सहायक संधि हुई।
होल्कर एवं अंग्रेजों के बीच 6 जनवरी, 1818 ई. में मंदसौर की संधि हुई।
पेशवा एवं अंग्रेजों के बीच और दो बार संघर्ष हुआ -
पेशवा बाजीराव द्वितीय ने 3 जून, 1818 में सर जाॅन मेल्कम के समक्ष आत्म समर्पण कर दिया। बाजीराव-2 को 8 लाख रू वार्षिक पेंशन पर कानपुर के समीप बिठूर में रहने की आज्ञा दी गयी।
मराठा साम्राज्य का अंतिम छत्रपति शाहजी अप्पा साहेब थे।
उत्तरकालीन मराठों का अकुशल नेतृत्व
मराठा सैन्य प्रणाली में आधुनिकता का अभाव
मराठों की अपर्याप्त नौसेना
गुप्तचर प्रणाली का अभाव
मराठा सरदारों की आपसी कलह।
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