सन्यासी विद्रोह बंगाल में हुआ। विद्रोह करने वाले सन्यासी शंकराचार्य के अनुयायी थे एवं गिरी सम्प्रदाय के थे।
विद्रोह का प्रारंभिक कारण तीर्थयात्रा पर लगाया जाने वाला कर था। बाद में इस आन्दोलन में बेदखली से प्रभावित किसान, विघटित सिपाही, सत्ताच्युत जमींदार एवं धार्मिक नेता भी शािमल हो गये।
विद्रोह के प्रमुख नेता: मूसाशाह, मंजरशाह, देवी चौधरी एवं भवानी पाठक थे।
विद्रोह को कथानक बनाकर बंकिम चन्द्र चटर्जी ने आनन्द मठ उपन्यास लिखा।
विद्रोह को दबाने का श्रेय वारेन हेस्टिंग्स को दिया जाता है।
फकीर विद्रोह(1776-77 ई.): बंगाल में मजमुन शाह एवं चिराग अली ने।
रंगपुर विद्रोह(1783 ई.): बंगाल में विद्रोहियों ने भू-राजस्व देना बंद कर दिया था।
दीवान वेलाटंपी विद्रोह(1805 ई.): इसे 1857 के विद्रोह का पूर्वगामी भी कहा जाता है। यह आंदोलन त्रावणकोर के शासक पर सहायक संधि थोपने के विरोध में वेलाटंपी के नेतृत्व में शुरू हुआ।
कच्छ विद्रोह(1819 ई.): यह विद्रोह राजा भारमल को गद्दी से हटाने के कारण हुआ। इसका नेतृत्व भारमल एवं झरेजा ने किया।
यह विद्रोह बंगाल में हुआ। पागलपंथ एक अर्द्धधार्मिक सम्प्रदाय था जिसे करमशाह ने चलाया था।
टीपू मीर, करमशाह का पुत्र था। टीपू ने जमींदारों के मुजारों के विरूद्ध यह आन्दोलन शुरू किया था।
यह असम में हुआ। इसका नेतृत्व गोमधर कुंवर एवं रूप चन्द्र कोनार ने किया। अहोम विद्रोह का कारण अहोम प्रदेश को अंग्रेजी राज्य में शामिल करना था। कंपनी ने शांतिपूर्ण नीति अपनायी एवं 1833 ई. में उत्तरी असम महाराज पुरन्दर सिंह को दे दिया।
अंग्रेजो द्वारा मैसूर पर सहायक संधि थोपने के बाद राज्य द्वारा बढ़ाई गयी भू-राजस्व की दर के विरोध में।
बारासात विद्रोह (1831 ई.) : इसका नेतृत्व टीटू मीर ने किया। यह आर्थिक कारणों से प्रेरित विद्रोह था।
यह आंदोलन बंगाल में हुआ। इसके नेता दादू मीर थे।
फरैजी लोग शरीयतुल्ला द्वारा चलाये गए संप्रदाय के अनुयायी थे।
मोहम्मद मोहसिन(दादू मीर) ने जमींदारों की जबरदस्ती वसूली का प्रतिरोध करने के लिए किसानों को संगठित किया। यह अंग्रेजों एवं जमीदारों के विरूद्ध किसान आन्दोलन था।
दादू मीर ने नारा दिया - समस्त भूमि का मालिक खुदा है।
इस आन्दोलन को वहाबी आन्दोलन का सहयोग प्राप्त था।
पाॅलिगरों ने विजयनगर साम्राज्य के काल में पूर्वी घाट के जंगलों में अपने स्वतंत्र राज्य कायम कर लिए थे। ये हथियारबन्द दस्ते रखते थे।
यह विद्रोह अंग्रेजों के विरूद्ध था जिसका नेतृत्व वीर. पी. कट्टवामन्न ने किया।
यह विद्रोह उड़ीसा तट के पहाड़ी खुर्द क्षेत्र में जगबंधु के नेतृत्व में 1817 में शुरू हुआ।
यह पश्चिमी क्षेत्र में हुआ। रामोसी पश्चिमी घाट में रहने वाली एक आदिम जाति थी।
1822 ई. में चित्तर सिंह के नेतृत्व में विद्रोह शुरू हुआ।
नरसिंह दत्तात्रेय पेतकर ने बादामी का दुर्ग जीतकर वहां सतारा के राजा का ध्वज फहरा दिया था।
यह विद्रोह अंग्रेजों के विरूद्ध था।
यह आन्दोलन धार्मिक आन्दोलन के रूप में शुरू हुआ इसका उद्देश्य सिख धर्म में प्रचलित बुराइयों और अंध विश्वासों को दूर कर इस धर्म को शुद्ध करना था।
बाद में यह आन्दोलन राजनीतिक आन्दोलन के रूप में परिवर्तित हो गया एवं इसका उद्देश्य अंग्रेजों को यहां से बाहर निकालना था।
आन्दोलन की शुरूआत भगत जवाहर मल ने की। इनके साथ बालक सिंह भी आन्दोलन में शामिल थे।
1863 ई. में राम सिंह कूका इस आन्दोलन से जुड़े एवं पहला विद्रोह 1869 ई. में फिरोजपुर में किया जो राजनैतिक था एवं उद्देश्य अंग्रेजों को उखाड़ फेंकना था। बाबा राम सिंह ने ही नामधारी आन्दोलन चलाया था।
सरकार ने आदिवासियों में प्रचलित सामूहिक संपत्ति की अवधारणा के स्थान पर निजी संपत्ति की अवधारणा को थोप दिया।
ब्रिटिश सरकार ने जनजातीय क्षेत्रों में साहूकार, जमींदार एवं ठेकेदार जैसे शोषक समूहों को स्थापित किया इन्होंने जनजातियों का अत्यधिक शोषण किया।
आदिवासी क्षेत्रों में अफीम की खेती पर रोक लगा दी एवं देशी शराब के निर्माण पर आबकारी कर लगा दिया गया।
जनजाति क्षेत्रों में ईसाई मिशनरियों की गतिविधियां।
सरकार ने वन क्षेत्रों में कठोर नियंत्रण से जनजातियों द्वारा ईंधन व पशुचारे के रूप में वन के प्रयोग पर प्रतिबंध लगा दिया।
सरकार ने झूम कृषि पर प्रतिबंध लगा दिया।
भील विद्रोह महाराष्ट्र व राजस्थान में हुआ।
1818 ई. में खानदेश पर अंग्रेजी आधिपत्य एवं नई कर प्रणाली तथा नई सरकार के भय से विद्रोह प्रारंभ हुआ। यह अलग-अलग समय में अलग-अलग नेतृत्व में चलता रहा। 1820 ई. में सरदार दशरथ, 1822 ई. में हिरिया और 1825 ई. में सेवरम ने नेतृत्व किया।
1857 ई. में अंग्रेजों से लोहा लेने वाले भील नेता भागोजी तथा काजल सिंह थे।
राजस्थान में आदिवासियों के हकों के लिए पहला राजनीतिक संघर्ष एकी आन्दोलन/भोमट भील आन्दोलन के रूप में मोतीलाल तेजावत के नेतृत्व में शुरू हुआ।
कारण: ‘बराड’ आदि राजकीय करों की वसूली में भीलों के साथ क्रूर व्यवहार।
‘डाकन प्रथा’ पर रोक व अन्य सामाजिक सुधारों से भीलों की भावनाएं आहत।
वनोत्पाद को संचित करनेक े भीलों के परम्परागत अधिकारों पर रोक
तम्बाकू, अफीम, नमक आदि पर नए कर लगाना।
अत्यधिक लाग-बाग व बैठ बेगार प्रथा।
मोतीलाल तेजावत ने अहिंसक एकी आन्दोलन की शुरूआत चित्तौड़गढ़ के मातृकुण्डिया नामक स्थान से की।
तेजावत ने 21 सूत्री मांग पत्र तैयार किया जिसे ‘मेवाड़ पुकार’ संज्ञा दी।
नीमडा गांव में 7 मार्च, 1922 ई. में एक सम्मेलन में मेवाड़ भील कोर के सैनिकों ने अंधाधुंध फायरिंग की जिससे 1200 भील मारे गए।
नीमड़ा हत्याकाण्ड दूसरा जलियांवाला हत्याकाण्ड था।
संथाल विद्रोह बिहार(भागलपुर से राजमहल तक) में हुआ।
इस विद्रोह की शुरूआत आर्थिक कारणों से हुई परन्तु बाद में इसका उद्देश्य विदेशी शासन को खत्म करना बन गया।
प्रमुख कारण: स्थायी बन्दोबस्त से जमीन छीन ली गयी, कर उगाहने वाले अधिकारियों का दुव्र्यवहार, पुलिश का दमन एवं साहूकार व जमींदारों की वसूली।
यह अंग्रेजों, जमींदारों एवं साहूकारों के खिलाफ हिंसक विद्रोह था।
इसका नेतृत्व सिद्धु एवं कान्हू ने किया।
मुण्डा विद्रोह छोटा नागपुर क्षेत्र में हुआ।
कारण: खूंट कट्टी (सामूहिक खेत) की परंपरा को जमींदारों, महाजनों एवं ठेकेदारों ने समाप्त करने का प्रयास किया।
प्रारंभ में यह आन्दोलन सरदारी की लड़ाई के रूप में था परन्तु बाद में इसका स्वरूप सामाजिक-धार्मिक एवं राजनैतिक हो गया था।
बिरसा मुण्डा ने अपने आप को भगवान का दूत घोषित किया एवं अपने समर्थकों को सिंगबोंगा की पूजा करने की सलाह दी।
बिरसा ने महाजनों, ठेकेदारों, हाकिमों और ईसाइयों एवं दिकुओं (गैर-आदिवासियों) के कत्ल का आह्नान किया।
बिरसा मुण्डा मुण्डा जाति का शासन स्थापित करना चाहते थे।
इस आन्दोलन में मुण्डा महिलाओं ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।
इस विद्रोह को उलगुलन विद्रोह एवं सरदारी लडायी के नाम से भी जाना जाता है। बिरसा मुण्डा को धरती आबा कहा जाता था।
यह विद्रोह झारखण्ड राज्य के छोटानागपुर क्षेत्र में हुआ।
कारण: चावल से बनी शराब पर लगाया गया उत्पादन शुल्क।
इनकी जमीनों को कंपनी ने मुस्लिमों एवं सिखों को दे दिया।
यह आन्दोलन 1831 ई. में बुद्धो भगत के नेतृत्व में शुरू हुआ। 1832 ई. में इसका नेतृत्व गंगा नारायण ने किया।
यह विद्रोह मेघालय में जयन्तिया-गारो पहाड़ियां में हुआ।
इस विद्रोह का कारण अंग्रेजों द्वारा ब्रह्मपुत्र घाटी-सिलहट को जोड़ने के लिए एक सड़क का निर्माण करने वाली योजना थी।
इसका नेतृत्व तीरथ सिंह ने किया एवं साथ ही बारमानिक तथा मुकुन्द सिंह भी नेतृत्वकर्ता रहे।
यह विद्रोह उड़ीसा एवं उसके आसपास के क्षेत्र में हुआ।
कारण: बाहर से आकर बसने वाले लोग, विदेशी सरकार का भय एवं मोरिया प्रथा (नरबलि प्रथा) पर लगाया गया प्रतिबंध।
इस आन्दोलन का नेतृत्व चक्र बिसोई ने किया।
आन्दोलन/विद्रोह | वर्ष | क्षेत्र | कारण | नेतृत्व |
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रम्पा विद्रोह | 1879 ई. | आंध्र प्रदेश | जागीरदारों के भ्रष्टाचार एवं नए जंगल कानून | राजू रंपा |
खामती विद्रोह | 1839 ई. | असम | अंग्रेजी न्याय व्यवस्था, राजस्व वसूली के नियम एवं नए कर | खवागोहाई एवं रूनूगोहाई |
खोंडा-डोरा विद्रोह | 1900 ई. | विशाखापत्तनम | अंग्रेजों को बाहर निकाल स्वंय का शासन स्थापित करना | कोर्रामलैया |
चुआर विद्रोह | 1768 ई. | मेदिनीपुर(बंगाल) | अंग्रेजों द्वारा शोषण एवं अत्यधिक राजस्व | राजा जगन्नाथ |
हो विद्रोह | ... | छोटानागपुर क्षेत्र | बढ़े हुए भूमिकर के कारण अंग्रेजों एवं जमींदारों के विरूद्ध | ... |
कूकी आन्दोलन | 1826-44 ई. | मणिपुर एवं त्रिपुरा | अंग्रेजों के खिलाफ | .... |
गडकरी विद्रोह | 1844 ई. | महाराष्ट्र(कोल्हापुर) | ... | बाबाजी अहीरेकर |
किट्टूर विद्रोह | 1824-29 ई. | किट्टूर(कर्नाटक) | शासक(शिवलिंग रूद्र) की मृत्यु के बाद दत्तक पुत्र को मान्यता न देना | रानी चेन्नमा(शासक की विधवा) |
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