मध्यकालीन शासक अपने यहाँ इतिहासकारों को आश्रय दिया करते थे, जिन्होंने शासकों व उनके विजय अभियानों का वर्णन किया है। सल्तनत काल की अपेक्षा मुगलकालीन साहित्य ज्यादा उपलब्ध हैं। ये स्रोत ज्यादातर अरबी व फारसी भाषा में लिखें गए हैं। मुगलकाल के ज्यादातर स्रोत फारसी भाषा में लिखे गए हैं। ये इतिहासकार ज्यदातर सुल्तानों और बादशाहों की राजनैतिक और सैनिक गतिविधियों की ही जानकारी देते हैं और इनसे हमें जनता की सामाजिक और आर्थिक स्थिति की जानकारी कम मिलती है, जिसके लिए हमें समकालीन साहित्य स्रोतों और भारत आये यात्रियों के विवरण का सहारा लेना पड़ता है। मध्यकालीन भारतीय इतिहास की कुछ प्रमुख साहित्यिक रचनाएँ इस प्रकार हैं-
‘चाचनामा’ मध्यकालीन इतिहास का एक महत्वपूर्ण स्रोत है, जिससे अरबों की 712 ई. में सिंध विजय की जानकारी मिलती है। मूलतः अरबी भाषा में लिखी इस पुस्तक के लेखक का नाम ज्ञात नहीं है। इस पुस्तक का लेखक संभवतः मुहम्मद-बिन कासिम के साथ सिंध आया था, चाच का पुत्र दाहिर उस समय सिंध का शासक था, जिसके नाम पर लेखक ने इस किताब का नाम चाचनामा रखा। नासिर-उद-दीन क़ुबाचा के समय में इस पुस्तक का फारसी में अनुवाद मुहम्मद अली बिन अबू बकर कूफ़ी ने किया था। अब डा. दाऊद पोता ने उसे सम्पादित करके प्रकाशित किया है।
‘तारीख-ए-सिन्ध’ या ‘तारीख-ए-मासूमी’ पुस्तक की रचना मीर मुहम्मद मासूम ने की। यह पुस्तक सन् 1600 ई. में पूरी हुई। इस पुस्तक में अरबों की विजय से लेकर मुगल सम्राट् अकबर महान् तक के शासनकाल में सिन्ध के इतिहास का विवेचन है। यह पुस्तक ‘चाचनामा’ पर आधारित है, किन्तु यह चाचनामा समकालीन रचना नहीं है।
इस पुस्तक में जलालुद्दीन खिलजी से लेकर मुहम्मद तुगलक तक के दिल्ली के शासकों का विवरण मिलता है।
‘अमीर खुसरो’ का पूरा नाम ‘अबुल हसन यामीन उद्दीन खुसरो’ था।
सन् 1253 ई. में इनका जन्म उत्तर प्रदेश के पटियाली(ऐटा) नामक ग्राम में हुआ था। सुलतान बलबन के समय में उसने अपने जीवन का आरंभ किया और सुलतान कैकूबाद, जलालुद्दीन खिलजी, अलाउद्दीन खिलजी, कुतुबुद्दीन मुबारकशाह खिलजी और गियासुद्दीन तुगलक का उन्हें संरक्षण प्राप्त था। वे ऐसे प्रथम भारतीय लेखक थे जिन्होंने अपने लेखन में हिन्दी के शब्दों और मुहावरों का पर्याप्त प्रयोग किया।
ख़ुसरो एक जाने-माने लेखक थे जो 1290 से लेकर 1325 ई. तक दिल्ली के सुल्तान जला-उद-दीन खलजी से लेकर मुहम्मद बिन तुगलक के समकालीन थे। वे अपने समकालीन लगभग सभी सुल्तानों के दरबार में प्रमुख कवि थे। उन्होंने सभी घटनाओं को अपनी आँखों से देखा था इसलिए किये गए कार्य बहुत महत्वपूर्ण हैं।
अमीर खुसरो ने कहा है कि शतरंज का आविष्कार भारत में हुआ।
किरान-उस-सादैन (दो शुभ सितारों की बैठक), आमिर ख़ुसरो द्वारा लिखी गयी इस किताब में बंगाल के सूबेदार बुगरा खां और उसके बेटे कैकुबाद की भेंट और समझौते का वर्णन है। यह ग्रंथ भी पद्य में लिखा गया है।
मिफ्ताह-उल-फुतूह (जीत के लिए कुंजी) भी आमिर ख़ुसरो द्वारा लिखी गयी है, इसमें जलालुद्दीन खिलजी की जीत की प्रशंसा की गयी है। इसमें मालिक छज्जू द्वारा किये गए विद्रिः का भी वर्णन है। इस ग्रंथ में जलालुद्दीन के विजय अभियानों का वर्णन है। यह ग्रंथ भी पद्य में लिखा गया है।
आमिर ख़ुसरो द्वारा लिखी इस मसनवी (कविता) में अलाउद्दीन के पुत्र खिज्र खां और गुजरात के राजा करन सिंह की पुत्री दुवल रानी के प्रेम का वर्णन है। इसमें अलाउद्दीन की गुजरात विजय का भी वर्णन है।
इस मसनवी में भारत और उसकी संस्कृति की खुसरो ने अपनी धारणाओं के बारे में लिखा है।
इस ग्रंथ में उसने हिन्दुस्तान की दो कारणों से प्रशंसा की है-
यह ग्रंथ मुबारकशाह खिलजी के समय की घटनाओं की जानकारी प्रदान करता है।
ख़ुसरो ने इसमें तुगलक वंश के शासन का इतिहास लिखा है। इस किताब में गयासुद्दीन तुग़लक़ की ख़ुसरो खां पर जीत का उल्लेख है, जिसके परिणामस्वरूप तुगलक वंश की स्थापना हुई। इसे आमिर ख़ुसरो की अंतिम ऐतिहासिक कृति माना जाता है।
अमीर खसरो ने उपर्युक्त ग्रंथों के अलावा कई और ग्रंथों की भी रचना की है जो इस प्रकार हैं-
‘तारीख-ए-यामिनी/ किताब – उल – यामिनी’ किताब की रचना अबू नासिर-बिन-मुहम्मद अल जब्बार अल उतबी ने की थी।यह पुस्तक अरबी भाषा में लिखी गई है। उतबी का सम्बन्ध फारस के उत्ब परिवार से था, जो महमूद गजनवी की सेवा में था। इस कारण उतबी को महमूद गजनवी और उसके कार्यकलापों की व्यक्तिगत जानकारी थी। इस पुस्तक से सुबुक्तगीन और महमूद गजनवी के 1020 ई. तक का इतिहास पता चलता है। इस पुस्तक से हमें तिथियों का सही विवरण नहीं मिलता परन्तु महमूद गजनवी पर यह एक महान पुस्तक है।
इस किताब को अरबी भाषा में अबुल फजल मुहम्मद-बिन-हुसैन-अल-बैहाकी ने लिखा था। बैहाकी, महमूद गजनवी के उत्तराधिकारी मसूद का एक कर्मचारी था। इससे 1059 ई. तक गजनी वंश के इतिहास, उसके शासन काल और उसके चरित्र की जानकारी मिलती है।
भाषा - फारसी
कुल अध्याय - 80
अंग्रेजी अनुवाद - एडवर्ड सी सचाऊ ने ‘अलबरूनी इंडिया: एन अकाउन्ट आॅफ रिलीजन’ नाम से।
हिन्दी अनुवाद - रजनीकान्त शर्मा ने किया।
विषय - भारतीय समाज एवं संस्कृति।
अबु रेहान मुहम्मद बिन अहमद अल-बयरुनी या अल बेरुनी (973-1048) फ़ारसी और अरबी भाषा का एक विद्वान लेखक, वैज्ञानिक, धर्मज्ञ तथा विचारक था, जिसे चिकित्सा, तर्कशास्त्र, गणित, दर्शन, धर्मशास्त्र की भी अच्छी जानकारी थी। ग़ज़नी के महमूद, जिसने भारत पर कई बार आक्रमण किये, के कई अभियानों में वो सुल्तान के साथ था। अपने भारत प्रवास के दौरान उसने संस्कृत सीखी और हिन्दू धर्म और दर्शन का अध्ययन भी किया। उसने अपनी इस अरबी भाषा की किताब में तिथियों का सटीक वर्णन किया है। इस किताब से हमें 11वीं शताब्दी के भारत के हिन्दू धर्म, साहित्य और विज्ञान की जानकारी मिलती है। उसने महमूद गजनवी के आक्रमण के समय भारत की स्थिति का विस्तार से वर्णन किया है। किताब उल हिन्द में भारतीय जलवायु, प्राकृतिक स्थिति, मुद्रा प्रणाली, माप तौल, भारतीय समाज, रीति-रिवाज, त्यौहार, उत्सव, खान-पान, वेश भूषा, वर्ण व्यवस्था, वेद, वेदान्त, दर्शन, पुराण, शास्त्र, धर्म आदि के बारे में विस्तृत रूप से बताया गया है। वहीं भारतीय राजनीतिक स्थिति के बारे में नगण्य लिखा है।
इस पुस्तक को हसन निजामी द्वारा लिखा गया था, जो मुहम्मद गोरी के साथ भारत आया था। यह पुस्तक दिल्ली में सल्तनत काल के प्रारंभिक वर्षों की जानकारी का मुख्य स्रोत है। इस पुस्तक में 1192 ई. के ताराइन के युद्ध से 1228 ई. तक क़ुतुब-उद-दीन ऐबक और इल्तुतमिश के इतिहास की जानकारी मिलती है। यह समकालीन रचना अरबी और फारसी दोनों में लिखी गयी है। यह ग्रंथ दिल्ली सल्तनत का प्रथम राजकीय संकलन है।
तबकात-ए-नसीरी 1260 ई. में मिनहाज अल-सिराज जुज़ानी द्वारा फारसी भाषा में लिखी गयी पुस्तक है। इसको इल्तुतमिश का संरक्षण प्राप्त था। तबकात-ए-नासिरी में पैगंबर मुहम्मद से लेकर इल्तुतमिश के उत्तरीधिकारी नासीरूद्दीन महमूद के समय तक अर्थात् 1260 तक का वर्णन है। इसने ग़ोरी राजवंश या ग़ोरी सिलसिला भी लिखी है। तबकात-ए-नसीरी में 23 अध्याय हैं। यह पुस्तक दिल्ली में सल्तनत काल के इतिहास का महत्वपूर्ण स्रोत है। तबकात-ए-नसीरी 1229-1230 में दिल्ली के सुल्तान के खिलाफ बंगाल में खलजी विद्रोह की जानकारी का एकमात्र स्रोत है।
इस पुस्तक के कुछ अध्यायों में इस प्रकार जानकारी दी गयी है –
खंड 11 – सुबुक्तिगीन से खुसरो मलिक तक के ग़ज़नवी साम्राज्य का इतिहास खंड 17 - ग़ोरी राजवंश का 1215 ई. में उदय और सुल्तान अलाउद्दीन के साथ उनका अंत खंड 19 – गोरी सुल्तान सैफुद्दीन सूरी से क़ुतबुद्दीन ऐबक तक का इतिहास खंड 20 – ऐबक का इतिहास और 1226 में इल्तुतमिश का इतिहास खंड 22 - 1227 से सल्तनत के भीतर दरबारियों, जनरलों और प्रांतीय गवर्नरों की जीवनी आदि, वजीर बलबन के प्रारंभिक इतिहास तक खंड 23 - चंगेज खान के विषय में विस्तृत जानकारी और 1259 तक और उसके उत्तराधिकारी मंगोलों द्वारा मुस्लिमों पर किये गए अत्याचार।जिया-उद-दीन बरनी ने तारीख तारीख-ए-फिरोजशाही को लिखा था। इस ग्रंथ में फिरोजशाह तुगलक की उपलब्धियों का वर्णन है। यह फिरोजशाह तुगलक को समर्पित ग्रंथ है। माना जाता है कि बरनी ने ग्यासुद्दीन तुगलक, मुहम्मद बिन तुगलक व फिरोजशाह तुगलक इन तीनों के संबंध में तीन अलग-2 ग्रंथ लिखे थे, जिनमें से एकमात्र तारीख-ए-फिरोजशाही ही प्राप्त हुआ है। बरनी, गयासुद्दीन तुग़लक़, मुहम्मद-बिन-तुगलक और फिरोज शाह तुगलक का समकालीन था।
जिया-उद-दीन बरनी ने तारीख तारीख-ए-फिरोजशाही को लिखा था। बरनी, गयासुद्दीन तुग़लक़, मुहम्मद-बिन-तुगलक और फिरोज शाह तुगलक का समकालीन था। इस किताब में बरनी ने बलबन के शासन काल से लेकर फिरोज शाह तुगलक के शासन के छठें वर्ष तक के इतिहास का वर्णन किया है। बरनी ने सुल्तानों और उनके सैन्य अभियानों के अलावा, उस समय की सामाजिक, आर्थिक, प्रशासनिक दशा एवं न्याय व्यवस्था का भी विस्तृत वर्णन किया है। उसने साम्राज्य के उच्च पदाधिकारियों, अमीरों और सूफी संतो का भी वर्णन किया है। बरनी ने अल्लाउद्दीन की बाजार नियंत्रण व्यवस्था और आर्थिक सुधारों का भी विस्तार से वर्णन किया है। राजस्व प्रशासन का पूरी तरह से वर्णन इस पुस्तक की प्रमुख विशेषता है।
इस पुस्तक की रचना, शम्स-ए-सिराज अफीफ ने की थी। अफीफ की यह पुस्तक फिरोजशाह तुगलक़ के शासन काल का विस्तृत वर्णन देती है। अफीफ ने इसे तैमुर के आक्रमण के कुछ समय बाद लिखा था। फारसी भाषा में लिखी इस पुस्तक में फिरोजशाह के शासन काल की सैन्य, राजनैतिक और प्रशासनिक व्यवस्था का वर्णन है। फिरोजशाह द्वारा प्रचलित जागीर प्रथा का भी इसमें वर्णन है। फिरोजशाह के शासन काल की जानकारी के लिए यह एक महत्वपूर्ण पुस्तक है।
यह फिरोजशाह तुगलक की आत्मकथा है। इस पुस्तक को लिखने का फिरोजशाह का मुख्य उद्देश्य स्वयं को एक आदर्श मुसलिम शासक सिद्ध करना था। इस किताब से उसके प्रशासन सम्बंधित कुछ जानकारियां मिलती हैं।
इस किताब को याहिया बिन अहमद सरहिन्दी ने लिखा है, जिसे सैयद वंश (सय्यद वंश) के शासक मुबारक शाह का आश्रय प्राप्त था। यह ग्रंथ मुबारकशाह को समर्पित है। याहिया बिन अहमद ने इस किताब का प्रारम्भ मुहम्मद गोरी के आक्रमण से शुरू करके, सैयद वंश के तीसरे शासक मुहम्मद शाह तक का इतिहास लिखा है। यह ग्रंथ सैयद वंश के इतिहास का यह एकमात्र समकालीन स्रोत है।
यह किताब ख्वाजा अब्दुल्ला मालिक इसामी ने लिखी थी, जो मुहम्मद तुगलक का समकालीन था। जब तुगलक ने अपनी राजधानी दिल्ली से दक्कन स्थित दौलताबाद स्थानांतरित की थी, तो इसामी का परिवार भी यहाँ आ गया था। बहमनी साम्राज्य के संस्थापक अलाउद्दीन हसन बहमन शाह ने उसे अपने यहाँ आश्रय दिया था। फुतूह-उस-सलातीन एक कवित के रूप में लिखी गयी है। यह किताब दक्कन के इतिहास का महत्वौर्ण स्रोत है। इसामी मुहम्मद तुगलक की किसी बात पर नाराज हो गया था, और उसने तुगलक के कई कामो को इस्लाम के सिद्धांतों के खिलाफ बताया है। बाद के कई इतिहासकारों, जैसे बदायूनी और फिरिस्ता आदि ने अपने लेखन के लिए फुतूह-उस-सलातीन की मदद ली है।
रिहला का अर्थ होता है यात्रा। इब्न बतूता ने अपनी यात्राओं का ‘रिहला’ शीर्षक के अंतर्गत वर्णन लिखा। इब्न बतूता ने सुल्तान गयासुद्दीन तुगलक और सुल्तान मुहम्मद तुगलक के शासन के दौरान की घटनाओं, प्रशासन, मेलों और त्यौहारों, बाजारों, भोजन और भारतीय कपड़े, शहर के जीवन, अदालत, अर्थव्यवस्था, समाज, जलवायु आदि का वर्णन किया है। उसने अपना यह काम अफ्रीका में रहते हुए पूरा किया था और उसे भारत के किसी भी शासक का कोई प्रलोभन और भय नहीं था, इसलिए उसके लेखन को भारतीय इतिहास के एक प्रामाणिक स्रोत-सामग्री के रूप में माना गया है।
इब्न बतूता मोरक्को, अफ्रीका का एक यात्री था। इब्न बतूता भारत में 14 वर्षों तक रहा। उसने मुहम्मद शाह तुगलक के शासन में 10 वर्षों तक काज़ी का काम किया। सुल्तान ने उससे किसी बात पर नाराज़ होकर उसे निकाल दिया, परन्तु जल्दी ही सम्राट को अपनी गलती का एहसास हुआ और उसने बतूता को चीन की यात्रा पर भेजने का निश्चय किया। इब्न बतूता चीन पहुँच नहीं सका, क्योंकि उसका जहाज रस्ते में ही टूट गया और वह भारत वापस आ गया। यहाँ से वह वापस अपने घर चला गया।
तुजुक-ए-बाबरी या बाबरनामा बाबर की आत्मकथा है जिसे बाबर ने तुर्की भाषा में लिखा है। मुग़ल काल के दौरान कई लेखकों ने इस किताब का फारसी में अनुवाद किया। इसके बाद इसका कई यूरोपीय भाषाओँ में भी अनुवाद हुआ। तुजुक-ए-बाबरी की प्रशंसा कई इतिहासकारों ने की है, और कुछ ने इसे भारत के वास्तविक इतिहास का एक मात्र स्रोत माना है। इस किताब में न सिर्फ बाबर के जीवन की घटनाओं के विषय में जानकारी मिलती है, बल्कि इससे उसके चरित्र, व्यक्तित्व, ज्ञान, क्षमता, कमजोरी के बारे में भी जानकारी मिलती है। उसने दौलत खान लोदी, इब्राहिम लोदी, आलम खान लोदी, राणा संग्राम सिंह आदि के चरित्र, व्यक्तित्व और उनके कार्यों के बारे में भी लिखा है। तुजुक-ए-बाबरी ने बाबर ने भारत के बारे भी वर्णन किया है। उसने यहाँ की भौगोलिक स्थिति, जलवायु, नदियों, राजनीतिक स्थिति, विभिन्न राज्यों और उनके शासकों के साथ-साथ लोगों के पहनावे, भोजन और रहने की हालत का वर्णन किया है। जब बाबर यहाँ के लोगों के साथ पहली बार संपर्क में आया तो वह भारतीयों और उनके रहने की स्थिति से प्रभावित नहीं था।
इस किताब को बाबर के चचेरे भर मिर्जा मुहम्मद हैदर दुघलात ने फारसी भाषा में लिखा था। मिर्जा हैदर ने बाबर और हुमायूँ के जीवन की घटनाओं को अपनी आँखों से देखा था। उसने, हुमायूँ के साथ शेरशाह सूरी के खिलाफ कन्नौज का युद्ध भी लड़ा था। मिर्जा हैदर ने अपनी किताब को दो भागों में बनता है, पहले भाग में उसने 1347-1553 ई. तक मुग़ल सम्राटों का इतिहास किखा है, और दूसरे भाग में उसने 1541 तक की अपने जीवन की घटनाओं के बारे में लिखा है।
फारसी भाषा में इस किताब को गुलबदन बेगम जो बाबर की पुत्री और हुमायूँ की सौतेली बहन थी, ने लिखा है। इस किताब को उसने अकबर के शासनकाल में उसके निर्देशों पर लिखा।
फारसी भाषा में इस किताब को अब्बास खान सरवानी ने अकबर के निर्देशों पर लिखा है। इस किताब का केवल कुछ भाग ही उपलब्ध है। इस किताब को उसने शेरशाह की मौत के 40 वर्ष बाद लिखा, और उसने खुद को शेरशाह के परिवार से सम्बंधित बताया है। उसने हर घटना की जानकारी के स्रोत सामग्री का वर्णन किया है, सुर इस किताब की प्रामाणिकता पर संदेह नहीं किया जा सकता है। इसलिए, ‘तारीख-ए-शेर शाही’ या ‘तौहफा-ए-अकबर-शाही’ को एक प्रामाणिक स्रोत-सामग्री के रूप में माना गया है। उसने शेरशाह के द्वारा किसानो की देखभाल और जनता के कल्याण के कामों के बारे में भी लिखा है। इस पुस्तक में शेरशाह, इस्लाम शाह और अंत में सूर शासकों के बारे में जानकारी दी गयी है।
इस किताब को अब्दुल कादिर बदायूनी ने लिखा है, जो अकबर के शासन के दौरान अरबी, फारसी और संस्कृत का एक विद्वान था। बदायूँनी, अबुल फज़ल का छात्र था, और अकबर द्वारा अबुल फज़ल को अधिक सम्मान दिए जाने के कारण वह उससे ईर्ष्या भी करता था। बदायूँनी धीरे-धीरे कट्टरपंथी सुन्नियों के समूह के समर्थक बन गया। इस कारन अकबर उससे नाराज हो गया और उसे दरबार में रहकर विभिन्न ऐतिहसिक लेखों का फारसी में अनुवाद करने को कहा। उसने अपने कई मूल लेखों के अलावा अरबी और संस्कृत के कई ग्रंथों का फारसी में अनुवाद किया है। उसके मूल ग्रंथों में तारीख-ए-बदायूँनी को सबसे अच्छा ऐतिहासिक ग्रन्थ माना गया है।
तारीख-ए-बदायूँनी भी तीन भागों में विभाजित है, जिसके पहले भाग में बदायूँनी ने सुबुक्तगीन से लेकर हुमायूँ के शासन तक का इतिहास लिखा है। दुसरे भाग में उसने सं 1594 तक के अकबर के शासन का इतिहास लिखा है।
बदायूँनी गंभीरता से अकबर की धार्मिक नीति की आलोचना करता है। इसलिए उसने जहाँगीर के शासन में इस भाग को सामने लाया। तीसरे भाग में उसने समकालीन संतों और विद्वानों की गतिविधियों और उनके जीवन के बारे में वर्णन किया है। बदायूँनी का अकबर के खिलाफ विवरणउसके पक्षपात को दर्शाता है। परन्तु यह आज भी अकबर के शासन के दूसरे पक्षों को समझने में आधुनिक इतिहासकारों की मदद करता है।
तुजुक-ए-जहाँगीरी सम्राट जहाँगीर की आत्मकथा है। इस संस्मरण में जहाँगीर ने अपने गद्दी पर बैठने से लेकर अपने शासन के 17वें वर्ष तक का वर्णन किया है। उसके बाद उसने यह काम अपने बक्शी, मुतामिद खान को दे दिया। मुतामिद खां इसे जहाँगीर के शासन के 19वें वर्ष तक ही लिख पाया। अधिकांश मामलों में जहाँगीर ने सच्चाई और विस्तार से लिखा है। उसने अपनी कमजोरियों को भी नहीं छिपाया है। जहाँगीर ने अपने बड़े बेटे खुसरौ के विद्रोह, के बारे में लिखा है।
इकबाई-नामा को मुतामिद खां द्वारा लिखा गया था। इसे तीन भागों में बांटा जा सकता है। पहले भाग में मुतामिद खां ने आमिर तैमुर के इतिहास से लेकर बाबर और हुमायूँ तक का इतिहास लिखा है, दुसरे भाग में उसने अकबर के शासन और तीसरे भाग में जहाँगीर के शासन का वर्णन किया है।
इस किताब को मुहम्मद ताहिर ने लिखा है, जिसे इनायत खां के नाम से भी जाना जाता है। इनायत खां शाही इतिहासकार था। उसने 1657-58 तक शाहजहाँ के शासन काल का इतिहास लिखा है।
इसे मिर्ज़ा मुहम्मद काजिम ने लिखा है। इस किताब में उसने आलमगीर औरंगजेब के शासन के 10 वर्षो के इतिहास का वर्णन किया है, इसके बाद औरंगजेब ने इतिहास लेखन पर प्रतिबन्ध लगवा दिया।
फुतुहात-ए-आलमगीरी को एक हिन्दू गुजराती ब्राह्मण ईश्वरदास नागर द्वारा लिखा गया था। इसे गुजरात के सूबेदार शुजात खां ने जोधपुर परगने में अमीन नियुक्त किया था। इस किताब में 1657 से 1700 तक का इतिहास है।
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