भारत के राजनीतिक इतिहास में गुप्त वंश के पतन् के पश्चात् विकेन्द्रीकरण एवं क्षेत्रीयता का आविर्भाव हुआ। गुप्त वंश के पश्चात् अनेक छोटे-छोटे राज्य बने जैसे - थानेश्वर का पुष्य भूति वंश, कन्नौज का मौखिरी वंश आदि प्रमुख राज्य थे।
इस वंश की स्थापना पुष्यभूति ने थानेश्वर में की।(थानेश्वर, हरियाणा)
ये संभवतः गुप्तों के सामन्त थे जिन्होंने मौका पाकर स्वतंत्र राज्य स्थापित किया।
इस वंश की प्रारंभिक राजधानी थानेश्वर थी।
पुष्यभूति वंश के प्रभावशाली शासक
वर्धन वंश की शक्ति व प्रतिष्ठा का संस्थापक प्रभाकरवर्धन था।
प्रभाकर वर्धन ने परमभट्टारक एवं महाराजाधिराज की उपाधि धारण की।
यह इस बात का द्योतक है कि यह एक स्वतंत्र एवं शक्तिशाली शासक था।
बाणभट्ट ने हर्षचरित्र में प्रभाकर वर्धन के लिए अनेक अलंकरणों का प्रयोग किया है। हूणहरिकेसरी, सिंधुराजज्वर, गुर्जरप्रजागर, सुगंधिराज आदि अलंकरण बाणभट्ट द्वारा दिए गए है।
अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के लिए प्रभाकरवर्धन ने अपनी पुत्री राज्यश्री का विवाह कन्नौज के मौखिरी शासक ग्रहवर्मन के साथ किया।
प्रभाकरवर्धन के जीवन के अंतिम दिनों में हूणों का आक्रमण हुआ परन्तु प्रभाकरवर्धन युद्ध में जाने के लिए असमर्थ था अतः उसका पुत्र राज्यवर्धन युद्ध के लिए गया किन्तु युद्ध के मध्य में ही प्रभाकरवर्धन का स्वास्थ्य ज्यादा बिगड़ गया। राज्यवर्धन युद्ध से वापस लौटा तो उनके पिता प्रभाकरवर्धन की मृत्यु हो चुकी थी।
इसी समय मालवा शासक देवगुप्त एवं बंगाल शासक-शशांक ने मिलकर कन्नौज के मौखिरी शासक गृहवर्मन(राज्यवर्धन के बहनोई) की हत्या कर दी राज्यश्री बना लिया।
राज्यश्री(बहिन) को बंदी बनाए जाने तथा गृहवर्मन की हत्या की सूचना पाकर राज्यवर्धन देवगुप्त एवं शशांक से बदला लेने के लिए निकला इसी क्रम में राज्यवर्धन ने देवगुप्त को पराजित किया। शशांक ने राज्यवर्धन से मित्रता का हाथ बढ़ाते हुए अपने शिविर में बुलाया और धोखे से राज्यवर्धन की हत्या कर दी।
राज्यवर्धन की हत्या की सूचना पाकर हर्षवर्धन ने थानेश्वर राज्य की बागडोर संभाली।
अन्य नाम - शिला दित्य
उपाधि - माहेश्वर, सार्वभौम व महाराजाधिराज।
हर्षवर्धन के गद्दी संभालते ही उसक सामने अपनी बहिन राज्यश्री को बचाने की सबसे बड़ी चुनौती थी इसी क्रम में अपनी बहिन को देवगुप्त की कैद से छुड़ाने एवं अपने भाई तथा बहनोई की हत्या का बदला लेने हर्षवर्धन कन्नौज की तरफ बढ़ा परन्तु सूचना मिली की राज्यश्री देवगुप्त की कैद से भागकर विंध्य की पहाड़ीयों में चली गयी है। तो अब वह विंध्य की तरफ बढ़ने लगा।
बौद्ध भिक्षु दिवाकर मित्र की सहायता से हर्ष ने राज्यश्री को खोज निकाला एवं सती होने से बचाया।
गृहवर्मन का कोई उत्तराधिकारी नहीं था अतः राज्यश्री की सहमति से हर्ष को कन्नौज का शासक बना दिया गया।
हर्षवर्धन ने अपनी राजधानी कन्नौज में स्थापित कर ली।
मगध के शासक पूर्णवर्मन ने हर्ष की अधीनता स्वीकार कर ली तथा हर्ष ने पूर्णवर्मन को मगध का शासक बना रहने दिया।
ह्नेनसांग के अनुसार हर्ष ने भारत के 5 देशों को अपने अधीन कर लिया।
ये 5 प्रदेश संभवतः पंजाब, कन्नौज, गौड(बंगाल), मिथिला ओर उडीसा के राज्य थे। हर्ष के अधीन मालवा का राज्य भी था।
हर्ष ने वल्लभी के शासक ध्रुवसेन द्वितीय के साथ अपनी पुत्री का विवाह किया।
हर्ष ने दक्षिण में भी अभियान किया परन्तु चालुक्य शासक पुलकेशिन द्वितीय को पराजित न कर सका।
वह बौद्ध धर्म की महायान शाखा का संरक्षक था।
इस प्रकार हर्ष केवल उत्तरी भारत के कुछ भागों का ही सम्राट बन सका।
इस वंश का संस्थापक संभवतः गुप्तों का सामन्त था। क्योंकी इस वंश के प्रारंभिक 3 शासकों हरि वर्मा, आदित्य वर्मा इवं ईश्वर वर्मा को महाराज की उपाधि प्राप्त थी।
बाद के तीन शासकों ईशान वर्मन, सर्ववर्मन एवं अवंतिवर्मन को महाराजाधिराज की उपाधि प्राप्त हुई। अतः ईशान वर्मन इस वंश का प्रथम स्वतंत्र एवं शक्तिशाली राजा प्रतीत होता है।
गुप्तवंश के पतन के बाद कन्नौज उत्तर भारत का शक्ति स्थल बना इसी कारण भारत का एकछत्र सम्राट बनने की होड में गुर्जर-प्रतिहार, पाल एवं राष्ट्रकूटों के मध्य एक लंबा त्रिदलीय संघर्ष चला।
मौखरी वंश के शासक - ईशानवर्मन, सर्ववर्मन, अवंतिवर्मन, ग्रहवर्मन, हर्ष(राज्यश्री के साथ), सुचंद्रवर्मन(अंतिम)।
कारण - एकछत्र सम्राट बनने की इच्छा
गंगाघाटी एवं इसमें उपलब्ध व्यापारिक एवं कृषि संबंधित संमृद्ध संसाधनों पर नियंत्रण।
अन्य सामरिक महत्व के उद्देश्य।
संघर्ष में शामिल प्रमुख शासक
प्रतिहार वंश - वत्सराज, नागभट्ट-2, राम भद्र, मिहिर भोज, महेन्द्रपाल।
पाल वंश - धर्मपाल, देवपाल, विग्रहपाल, नारायण पाल।
राष्ट्रकूट - ध्रुव, गोविन्द-3, अमोघवर्ष-1, कृष्ण-2।
कन्नौज पर स्वामित्व के लिए संघर्ष का आरंभ पाल शासक धर्मपाल ने किया। इसके बाद प्रतिहार शासक इस संघर्ष में शामिल हुए। बाद में राष्ट्रकूट इस संघर्ष में कूदे।
यह संघर्ष लगभग 200 वर्ष तक चला एवं अंतिम रूप से प्रतिहार शासक सफल हुए।
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