भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन भारत के लोगों के हित से संबंधित जन आंदोलन था जो पूरे देश में फैल गया था। देश भर में कई बड़े और छोटे विद्रोह हुए थे और कई क्रांतिकारियों ने ब्रिटिशों को बल से या अहिंसक उपायों से देश से बाहर करने के लिए मिल कर लड़ाई लड़ी और देश भर में राष्ट्रवाद को बढ़ावा दिया।
दिसंबर 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की नींव पड़ी। आगे चलकर इसी के नेतृत्व में विदेशी शासन से स्वतंत्रता के लिए भारतीयों ने एक लंबा और साहसपूर्ण संघर्ष चलाया और अंत में 15 अगस्त, 1947 को भारत मुक्त हो गया। वास्तव में देखा जाये तो भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन का इतिहास कांग्रेस का इतिहास है। क्योंकि प्रारम्भ से अन्त तक भारत का राष्ट्रीय आन्दोलन इसी संस्था के नेतृत्व में लड़ा गया।
एलन ऑक्टोवियन ह्युम नामक एक अवकाश प्राप्त ब्रिटिश अधिकारी ने भारतीय नेताओं के सहयोग से 28 दिसंबर, 1885 को मुंबई/बंबई (गोकुलदास तेजपाल संस्कृत कॉलेज) में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना की।
मुंबई में आयोजित कांग्रेस के प्रथम अधिवेशन की अध्यक्षता व्योमेश चंद्र बनर्जी ने की। इस अधिवेशन में मात्र 72 प्रतिनिधियोँ ने भाग लिया।
दादा भाई नौरोजी के कहने पर इसका नाम भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (INC) रखा गया।
कांग्रेस उत्तरी अमेरिका से लिया गया शब्द है, जिसका अर्थ होता है - लोगों का समूह
कांग्रेस की स्थापना के समय गवर्नर जनरल लॉर्ड डफरिन था।
भारत सचिव - लॉर्ड क्रॉस
प्रारंभ में ब्रिटिश सरकार ने कांग्रेस को अपना सुरक्षा कवच समझकर सहयोग दिया, किन्तु बाद जब कांग्रेस ने जब वैधानिक सुधारों की मांग रखी तो अंग्रेजों का कांग्रेस से मोह भंग हो गया।
1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के साथ ही एक अखिल भारतीय राजनीतिक मंच का जन्म का हुआ।
इसी के साथ विदेशी शासन से भारत की स्वतंत्रता का संघर्ष एक संगठित के रुप से प्रारंभ हुआ।
कांग्रेस के जन्म के साथ ही भारतीय इतिहास में एक नया युग आरंभ हुआ। छोटे-छोटे विद्रोही दलों तथा स्थानीय दलों आदि सभी ने अपने को कांग्रेस में विलीन कर लिया।
कांग्रेस ने आरंभ से ही एक पार्टी नहीं वरन् एक आंदोलन का काम किया। यह आंदोलन भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के नाम से जाना जाता है।
वर्ष | संगठन |
---|---|
1836 | बंगभाषा प्रकाशक सभा |
1838 | जमींदारी एसोसिएशन |
1843 | बंगाल ब्रिटिश इंडिया सोसायटी |
1851 | ब्रिटिश इंडिया एसोसिएशन |
1866 | ईस्ट इंडिया एसोसिएशन |
1867 | पूना सार्वजनिक सभा |
1875 | इण्डियन लीग |
1876 | कलकत्ता भारतीय एसोसिएशन |
1884 | मद्रास महाजन सभा |
1885 | बाम्बे प्रेसीडेंसी एसोसिएशन |
भारतीय राष्ट्रवाद का पहला या आरंभिक चरण मध्यम दर्जे (नरमदल) का चरण (1885-1905) भी कहलाता है। नरमदल के नेता थे, डब्ल्यू.सी. बनर्जी, गोपाल कृष्ण गोखले, आर.सी. दत्ता, फीरोजशाह मेहता, जॉर्ज यूल आदि
नरमपंथी नेताओं को ब्रिटिश सरकार में पूर्ण विश्वास था और उन्होंने पीपीपी मार्ग यानि विरोध, प्रार्थना और याचिका, को अपनाया था।
काम के नरमपंथी तरीकों से मोहभंग होने के कारण, 1892 के बाद कांग्रेस में चरमपंथ विकसित होने लगा। चरमपंथी नेता थे– लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक, बिपिनचंद्र पाल और अरबिंदो घोष। पीपीपी मार्ग के बजाए इन्होंने आत्म– निर्भरता, रचनात्मक कार्य और स्वदेशी पर जोर दिया।
प्रशासनिक सुविधा के लिए लॉर्ड कर्जन द्वारा बंगाल विभाजन (1905) की घोषणा के बाद, 1905 में स्वदेशी और बहिष्कार संकल्प पारित किया गया था।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के साथ ही संपूर्ण भारत के लोग ब्रिटिश शासन के विरुद्ध एक राष्ट्रीय मुख्यधारा में शामिल होते जा रहे थे। बंगाल तब भारतीय राष्ट्रवाद का प्रधान केंद्र था।
तत्कालिक बंगाल में आधुनिक बिहार, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल तथा बांग्लादेश आते थे। लार्ड कर्जन ने प्रशासनिक सुविधा का बहाना बनाकर बंगाल को दो भागों में बांट दिया।
बंगाल विभाजन की सर्वप्रथम घोषणा 3 दिसंबर 1903 को की गई। यह 16 अक्टूबर 1905 को लागू हुआ। राष्ट्रीय नेताओं ने विभाजन को भारतीय राष्ट्रवाद के लिए एक चुनौती समझा।
बंगाल के नेताओं ने इसे क्षेत्रीय और धार्मिक आधार पर बांटने का प्रयास माना। अतः इस विभाजन का व्यापक विरोध हुआ तथा 16 अक्टूबर को पूरे देश में शोक दिवस के रुप में मनाया गया।
हिंदू-मुसलमान ने अपनी एकता प्रदर्शित करते हुए एक बहुत ही तीव्र आंदोलन 7 अगस्त 1905 से चलाया।
स्वदेशी तथा बहिष्कार आंदोलन की उत्पत्ति बंगाल विभाग विभाजन विरोधी आंदोलन के रुप में हुई।
इसके अंतर्गत अनेक स्थानों पर विदेशी कपड़ों की होली जलाई गई और विदेशी कपड़े बेचने वाली दुकानों पर धरने दिए गए।
इस प्रकार बंगाल के नेताओं ने बंगाल विभाजन विरोधी आंदोलन को स्वदेशी और बहिष्कार आंदोलन के रुप में परिवर्तित कर इसे राष्ट्रीय स्तर पर व्यापकता प्रदान की।
बंग बंग विरोधी आंदोलन का नेतृत्व तिलक, बिपिन चंद्र पाल और अरविंद घोष जैसे नेताओं के हाथों मे आना ही राष्ट्रवादियों के उत्कर्ष का प्रतीक था। सरकारी दमन और जनता को कुशल नेतृत्व देने मे नेताओं की असफलता के कारण उपजी कुंठा ने क्रांतिकारी आंदोलन को जन्म दिया।
क्रांतिकारी युवकों ने अनेक गुप्त संगठन, जैसे-अनुशीलन समिति, अभिनव भारत, मित्र मेला, आर्य बांधव समाज आदि बनाये।
बंगाल, मद्रास, महाराष्ट्र में ही नहीं वरन कनाडा, अमेरिका, जर्मनी, सिंगापुर आदि देशो में भी अनेक क्रांतिकारी दल स्थापित हो गए।
1907 में ताप्ती नदी के किनारे सूरत में कांग्रेस का सत्र फिरोजशाह मेहता की अध्यक्षता में हुआ, जिसमें नरमपंथी और चरमपंथियों के बीच मतभेदों की वजह से कांग्रेस में विभाजन हो गया।
आगा खान III और मोहसिन मुल्क द्वारा 1906 में मुस्लिम लीग का गठन किया गया।
1909 के मॉर्ले– मिंटो सुधार अधिनियम द्वारा अलग निर्वाचन मंडल प्रस्तुत किया गया था।
लाला हरदयाल ने 1913 में गदर आंदोलन शुरु किया था और कोटलैंड में 1 नवंबर 1913 को गदर पार्टी की स्थापना की थी। इसका मुख्यालय सैन फ्रांसिस्को के युगांतर आश्रम में था और गदर पत्रिका का प्रकाशन शुरु किया गया था।
कोमागाटा मारू घटना सितंबर 1914 में हुई थी और इसके लिए भारतीयों ने शोर कमिटि नाम से एक समिति बनाई थी जो यात्रियों की कानूनी लड़ाई लड़ती थी।
वर्ष 1914 में कामागाटू मारू नामक जाहज 376 भारतीयों को लेकर समुद्री रास्ते से कनाडा के ब्रिटिश कोलंबिया तट पर पहुंचा। इनमें 340 सिख, 24 मुसलमान, 12 हिंदू और बाकी ब्रिटिश थे। इस जहाज को स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल गदर पार्टी के नेता गुरदीत सिंह ने किराए पर लिया था। 23 मई, 1914 को वैंकुवर के तट पर जहाज पहुंचा तो उसे दो महीने तक वहीं खड़ा रहना पड़ा क्योंकि कनाडा की सरकार ने अलग-अलग कानूनों का हवाला देकर भारतीयों को वहां प्रवेश की अनुमति नहीं दी। सिर्फ 24 भारतीयों को कनाडा सरकार ने वैंकूवर में उतरने दिया। शेष भारतीयों को दो महीने बाद जहाज के साथ भारत वापस भेज दिया गया।
1914 में पहला विश्व युद्ध आरंभ हुआ था।
प्रथम विश्व युद्ध के आरंभ होने पर भारतीय राष्ट्रवादी नेताओं ने सरकार के युद्ध प्रयास में सहयोग का निश्चय किया।
इसके लिए एक वास्तविक राजनीतिक जन आंदोलन की आवश्यकता थी। लेकिन ऐसा कोई जन-आंदोलन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेतृत्व में संभव नहीं था, क्योंकि यह नरमपंथियो के नेतृत्व में एक निष्क्रिय और जड़ संगठन बन चुकी थी। इसलिए 1915-1916 में दो होमरूल लीगों की स्थापना हुई।
अप्रैल 1916 में तिलक ने होम रूल आंदोलन की शुरुआत की थी। इसका मुख्यालय पूना में था और इसमें स्वराज की मांग की गई थी।
होमरुल आंदोलन के दौरान तिलक ने अपना प्रसिद्ध नारा होमरुल या स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और में इसे लेकर रहूँगा दिया था।
सितंबर 1916 में एनीबेसेंट ने होम रूल आंदोलन शुरु किया और इसका मुख्यालय मद्रास के करीब अडियार में था।
वर्ष 1916 में हुए कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन की अध्यक्षता अम्बिका चरण मौजूमदार (नरमपंथी नेता) ने की थी जहां चरमपंथी और नरमपंथी दोनों प्रकार के नेता एक जुट हुए थे।
1917 का वर्ष होमरुल के इतिहास में एक मोड़ बिंदु था। जून में एनी बेसेंट तथा उसके सहयोगियों को गिरफ्तार कर लेने के पश्चात आंदोलन अपने चरम पर था।
सितंबर 1917 में भारत सचिव मांटेग्यू की घोषणा, जिसमें होमरुल का समर्थन किया गया था, ने इस आंदोलन में एक और निर्णायक मोड़ ला दिया।
लीग ने अपने उद्देश्यो की सफलता के लिए एक कोष बनाया तथा धन एकत्रित किया, सामाजिक कार्यो का आयोजन किया तथा स्थानीय प्रशासन के कार्यो में भागीदारी भी निभाई।
गांधीजी 1893 में अब्दुल्ला भाई का केस लड़ने के लिए दक्षिण अफ्रीका गए, गांधी जी ने वहां पर रंगभेद नीति के खिलाफ सत्याग्रह किया था।
गांधीजी ने वहां पर टॉलस्टॉय तथा फिनिक्स आश्रम की स्थापना की।
इंडियन ओपिनियन नामक समाचार पत्र निकाला।
9 जनवरी 1915 को गांधी जी 46 वर्ष की उम्र में दक्षिण अफ्रीका से भारत वापस आए थे।
1916 में गांधी जी ने सत्य और अहिंसा के विचार के प्रचार के लिए अहमदाबाद (गुजरात) में साबरमती आश्रम की स्थापना की।
चंपारण सत्याग्रह– 1917
खेड़ा सत्याग्रह– 1917
अहमदाबाद मिल हड़ताल– 1918
महात्मा गाँधी द्वारा चलाये गये आंदोलन
गांधीजी ने प्रथम विश्व युद्ध में भारतीय युवाओं को ब्रिटिश फौज में साथ शामिल होने के लिए कहा। इसलिए गांधीजी को भर्ती करने वाला सार्जेंट (Recruitment Sargent) कहा जाने लगा। इसलिए गांधीजी को अंग्रेजों ने केसर-ए-हिंद पदक दिया था।
प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति पर, जब भारतीय जनता संवैधानिक सुधारो की उम्मीद कर रही थी तो ब्रिटिश सरकार ने दमनकारी रौलेट एक्ट को जनता के सम्मुख प्रस्तुत किया।
रौलेट एक्ट के द्वारा सरकार को यह अधिकार प्राप्त हुआ कि, वह किसी भी भारतीय पर अदालत में बिना मुकदमा चलाए और दंड दिए बिना ही जेल में बंद कर सके।
1919 में रौलेट एक्ट के विरोध में गांधी जी ने पहली बार एक अखिल भारतीय सत्याग्रह आंदोलन का आरंभ किया।
सरकार इस जन आंदोलन को कुचल देने पर उतारु थी उसने निहत्थे प्रदर्शनकारियों को ऐसे कुचलने का प्रयास किया, जिसने दमन के इतिहास में नये अध्याय जोड़े हैं। दमनात्मक नीतियों तथा डॉ. सैफुद्दीन किचलू और डॉ. सत्यपाल जैसे लोकप्रिय नेताओं की गिरफ़्तारी के विरोध में अमृतसर के जलियाँवाला बाग़ में एक सभा का आयोजन किया गया।
जनरल डायर ने सभा के आयोजन को सरकारी आदेशो की अवहेलना माना तथा सभा स्थल को सशक्त सैनिको के साथ घेर लिया और बिना किसी पूर्व चेतावनी के शांतिपूर्ण ढंग से चल रही सभा पर गोलियाँ चलाने का आदेश दे दिया।
इस घटना में एक हजार से अधिक लोग मारे गए जिसमें युवा, महिलाएँ, बूढ़े, बच्चे सभी शामिल थे। यह घटना आधुनिक भारतीय इतिहास में जलियावाला हत्या कांड के नाम से प्रसिद्द है।
इस घटना के विरोध में रवींद्रनाथ टैगोर ने ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रदान की गई नाइटहुड की उपाधि वापस कर दी तथा सर शंकरन नायर ने गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी परिषद से त्याग पत्र दे दिया।
प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात् आत्मनिर्णय की भावना को बल मिला इसके साथ ही रौलेट एक्ट, जलियांवाला बाग हत्याकांड, पंजाब में मार्शल ला तथा खिलाफत के विवाद आदि घटनाओं से अंग्रेजों के प्रति भारतीय दृष्टिकोण में व्यापक परिवर्तन आया।
जनता इन घटनाओं के लिए सरकार से खेद प्रकट करने की अपेक्षा कर रही थी। इसके विपरीत परिस्थितियो में आंदोलन के एक और चक्र के प्रारंभ के लिए वह तैयार थी।
1920 में नागपुर में आयोजित कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन, जिसकी अध्यक्षता विजय राघवाचारी कर रहे थे, में असहयोग आंदोलन का अनुमोदन कर दिया गया।
सरकार ने इस आंदोलन को कुचलने के लिए दमनात्मक नीति का सहारा लिया आंदोलन के स्वरुप में स्थान परिवर्तन के साथ-साथ भिन्नता आई।
5 फरवरी 1922 को चौरी-चौरा नामक गाँव में तीन हजार किसानो के एक कांग्रेसी जुलूस पर पुलिस ने गोली चलाई। किसानो की भीड़ ने थाने पर हमला करके थाने में आग लगा दी। जिसमें 22 पुलिसकर्मी मारे गए।
गांधीजी चूँकि हिंसा में विश्वास नहीं करते थे, इसलिए उनहोने 12 फरवरी 1922 को बारदोली में हुई कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में असहयोग आंदोलन को वापस लेने का निर्णय किया।
भारत सरकार अधिनियम 1919 या मोंटागू– चेम्सफोर्ड रिफॉर्म एक्ट को भारत में जिम्मेदार सरकार की स्थापना के लिए पारित किया गया था।
1919 के अधिनियम में इस बात की व्यवस्था की गई थी कि दस वर्षों के पश्चात मांटेग्यू चेम्सफोर्ड सुधारों की समीक्षा तथा उसमे परिवर्तन की संभावनाओं की जांच के लिए एक आयोग का गठन किया जाएगा। इस प्रावधान के तहत 1929 में एक आयोग की नियुक्ति की जानी थी।
तत्कालीन वायसराय लॉर्ड इरविन ने निर्धारित समय से दो वर्ष पूर्व 8 नवंबर 1927 को इंडियन इंस्टीट्यूट आयोग की नियुक्ति कर दी। सात सदस्यीय आयोग के अध्यक्ष सर जॉन साइमन थे, जिनके नाम पर यह साइमन आयोग के नाम से विख्यात हुआ।
कांग्रेस के मद्रास अधिवेशन में इस आयोग का बहिष्कार का निर्णय सर्वसम्मति से लिया गया।
3 फरवरी 1928 को समय साइमन आयोग भारत आया। साइमन आयोग के भारत आने पर देश के सभी नगरों में हड़तालों एवं जुलूसों का आयोजन किया गया।
जनता के विरोध को कुचलने के लिए सरकार ने निर्मम दमन तथा पुलिस कार्यवाहियों का सहारा लिया।
साइमन आयोग की नियुक्ति और उसके विरोध के पश्चात भारत सचिव ने भारतीयों की क्षमता पर प्रश्नचिंह लगाते हुए उन्हें अपने लिए एक सर्वमांय संविधान बनाने की चुनौती दी।
डॉ. मुख्तार अहमद अंसारी की अध्यक्षता में एक सर्वदलीय सम्मेलन का आयोजन 19 मई, 1926 को किया गया। इस सम्मेलन के अंत में मोतीलाल नेहरु की अध्यक्षता में एक समिति गठित की गई।
इस समिति ने 10 अगस्त, 1928 को लखनऊ में हुए एक सर्वदलीय सम्मेलन में अपने, संविधान का प्रारुप पेश किया, जिसे नेहरु रिपोर्ट के नाम से जाना जाता है।
रिपोर्ट में भारत को डोमेनियन राज्य का दर्जा दिए जाने की मांग पर बहुमत था लेकिन राष्ट्रवादियों के एक वर्ग को इस पर आपत्ति थी। वह डोमेनियन राज्य के स्थान पर पूर्ण स्वतंत्रता का समर्थन कर रहे थे।
लखनऊ में डाक्टर अंसारी की अध्यक्षता में पुनः सर्वदलीय सम्मेलन हुआ, जिसमें ‘नेहरु रिपोर्ट’ को स्वीकार कर लिया गया।
फ़रवरी 1930 में साबरमती आश्रम में कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक में सविनय अवज्ञा आंदोलन चलाने की संपूर्ण शक्ति महात्मा गांधी के हाथ में सौंप दी गई।
गांधीजी ने 31 जनवरी, 1930 को लार्ड इरविन के समक्ष अंतिम चेतावनी के रुप में अपनी 11 सूत्री मांग रखी, जिसे अस्वीकार किए जाने पर सविनय अवज्ञा आंदोलन प्रारंभ करने की चेतावनी दी।
लॉर्ड इरविन द्वारा 11 सूत्री मांगो को अस्वीकार कर दिए जाने के बाद गांधी जी के समक्ष आंदोलन शुरु करने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं था।
गांधी जी ने 12 मार्च, 1930 को अपने चुने हुए 78 स्वयं सेवको के साथ दांडी के लिए यात्रा शुरु की। 24 दिनो में दांडी पहुंचकर महात्मा गांधी ने 6 अप्रैल को नमक कानून का उल्लंघन किया।
बंगाल में मानसून के आगमन की वजह से नमक बनाना कठिन था, अतः वहां यह आंदोलन चौकीदारी विरोधी तथा यूनियन बोर्ड विरोधी आंदोलन के रुप में चलाया गया।
महाराष्ट्र, कर्नाटक तथा मध्य प्रांत में जंगल कानूनो तथा असम में कनिंघम सर्कुलर, जिसके अंतर्गत छात्रों तथा उनके परिजनो को चारित्रिक प्रमाणपत्र प्रस्तुत करने होते थे, का विरोध प्रारंभ हुआ।
निर्ममता पूर्वक दमन के बाद भी यहाँ आंदोलन की तीव्र गति को देख कर लार्ड इरविन ने महात्मा गांधी से समझौते का प्रयास किया। सरकार द्वारा यह आश्वासन दिए जाने पर कि हानि उठाने वालो को हर्जाना मिलेगा। 5 मार्च, 1931 को गांधी इरविन समझौते के बाद आंदोलन वापस ले लिया गया।
5 मार्च 1931 को गाँधी और इरविन के मध्य एक समझौता हुआ, जिसे गांधी-इरविन समझौता के नाम से जाना जाता है।
इस समझौता के तहत लार्ड इरविन ने निम्न आश्वासन दिया –
सभी राजनीतिक बंदियो को रिहा किया जाएगा।
आपातकालीन अध्यादेशों को वापस ले लिया जाएगा।
आंदोलन के दोरान जब्त की गई संपत्ति उनके स्वामियों को वापस कर दी जाएगी तथा जिनकी संपत्ति नष्ट हो गई हो, उन्हें हर्जाना दिया जाएगा।
समुद्र तट के निकट रहने वाले लोगो को अपने इस्तेमाल के लिए बिना कोई कर दिए नमक एकत्र करने तथा बनाने दिया जाएगा।
सरकार मादक द्रव्यो तथा विदेशी वस्तुओं की दुकानो पर शांतिपूर्ण धरना देने वालो को गिरफ्तार नहीं करेगी।
जिन सरकारी कर्मचारियो ने आंदोलन के दौरान नौकरी से त्यागपत्र दिया था, उन्हें नौकरी में वापस लेने में सरकार उदार नीति अपनायेगी।
16 अगस्त 1932 को ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैमसे मैकडोनाल्ड ने साम्र्पदायिक पंचाट की घोषणा की जिसमें दलितो सहित 11 समुदायों को पृथक निर्वाचक मंडल प्रदान किया गया।
इसके तहत मुसलमान केवल मुसलमानो द्वारा, सिख केवल सिक्खों द्वारा तथा अन्य अल्पसंख्यक समुदाय केवल अपने समुदाय द्वारा चुने जा सकते थे।
दलितों के लिए की गई पृथक निर्वाचक मंडल की व्यवस्था का गांधीजी ने विरोध किया। गांधीजी, जो उस समय यरवदा जेल मे बंदी थे, ने इसे भारतीय एकता तथा राष्ट्रवाद पर चोट की संज्ञा दी। उन्होंने इस निर्णय को वापस ना लिए जाने की स्थिति मे 20 सितंबर, 1932 को आमरण अनशन प्रारंभ कर दिया। 26 सितंबर 1932 को राजेंद्र प्रसाद व मदन मोहन मालवीय के प्रयासों से गांधी जी और अंबेडकर के मध्य पूना समझौता हुआ। इस समझौते के तहत् दलित वर्ग के लिए एक पृथक निर्वाचक मंडल की व्यवस्था वापस ले ली गयी, लेकिन दलित वर्ग के लिए आरक्षित सीटों की संख्या प्रांतीय विधानमंडलों में 71 से बढ़ाकर 147 और केन्द्रीय विधायिका में कुल सीटों की 18% तक कर दिया गया।
पूना समझौते के सांप्रदायिक निर्णय द्वारा हिंदुओं से हरीजनो को पृथक करने के सरकारी प्रयास को विफल कर दिया गया।
1935 में, भारत सरकार अधिनियम को अखिल भारतीय संघ, प्रांतीय स्वायत्तता और केंद्र में द्वैध शासन पद्धित होनी चाहिए, को बनाने के लिए पारित किया गया था।
भारत सरकार अधिनियम, 1935 के प्रावधानो के अनुकूल सरकार ने प्रांतो में फ़रवरी 1937 में चुनाव कराने की घोषणा की।
फ़रवरी 1937 में संपन्न हुए चुनावों में यह बात निश्चित रुप से सिद्ध हो गई की जनता का एक बड़ा भाग कांग्रेस के साथ है।
1937 के चुनावों में कांग्रेस ने अधिकांश प्रांतो में भारी जीत हासिल की। 11 में से 7 प्रांतो में कांग्रेस का प्रदर्शन बहुत अच्छा रहा।
जुलाई 1937 में 11 में से 7 प्रांतो में कांग्रेसी मंत्रिमंडल गठित हुए। बाद में कांग्रेस ने दो प्रांतोँ मेंसाझी सरकारें भी बनाई। केवल बंगाल और पंजाब में गैर कांग्रेसी मंत्रिमंडल बन सके।
3 सितंबर, 1939 को वायसराय लिनलिथगो ने प्रांतीय मंत्रिमंडलों या राष्ट्रीय भारतीय कांग्रेस के नेताओं की सलाह लिए बिना एकतरफा तौर पर भारत को जर्मनी के साथ ब्रिटेन के युद्ध में झोंक दिया।
इस एकतरफा निर्णय के विरोध में 29-30 अक्टूबर, 1939 को प्रांतो के कांग्रेस मंत्रिमंडल ने अपने 28 महीने के शासन के पश्चात त्याग पत्र दे दिया।
युद्ध में भारतीयों का सहयोग प्राप्त करने के उद्देश्य से 8 अगस्त, 1940 को वायसरॉय लिनलिथगो ने एक घोषणा की, जिसे अगस्त प्रस्ताव के नाम से जाना जाता है
वायसराय के प्रस्ताव में निन्नलिखित बातें कही गई थी –
वायसरॉय की कार्यकारिणी परिषद का विस्तार किया जाएगा;
वायसरॉय द्वारा भारतीय राज्यों, भारत के राष्ट्रीय जीवन से संबंधित अन्य हितों के प्रतिनिधियों की एकजुट परामर्श समिति की स्थापना की जाएगी;
भारत के लिए नए संविधान का निर्माण मुख्यत: भारतीयों का उत्तरदायित्व होगा। युद्धोपरांत भारत के लिए नवीन संविधान निर्माण हेतु राष्ट्रीय जीवन से सम्बद्ध व्यक्तियों के एक निकाय का गठन किया जाएगा;
युद्ध समाप्ति के एक वर्ष के भीतर औपनिवेशिक स्वराज्य की स्थापना करना ब्रिटिश सरकार की घोषित नीति है;
अल्पसंख्यको को पूर्ण महत्व प्रदान करने का आश्वासन दिया गया।
यद्यपि यह घोषणा एक महत्वपूर्ण प्रगति थी, क्योंकि इसमें कहा गया था कि, भारत का संविधान बनाना भारतीयों का अपना अधिकार है, और इसमे स्पष्ट प्रादेशिक स्वशासन की प्रतिज्ञा की गई थी।
1941 में सुदूर पूर्व में जापान द्वारा ब्रिटेन की पराजय तथा मार्च 1942 में जापान की भारतीय सीमा पर दस्तक, इन दो घटनाओं से ब्रिटिश युद्धकालीन मंत्रिमंडल के रुख में नरमी आ गई।
भारत में संवैधानिक प्रतिरोध को समाप्त करने के उद्देश्य से ब्रिटिश हाऊस ऑफ कॉमंस के नेता तथा युद्धकालीन मंत्रिमंडल के एक सदस्य स्टेफर्ड क्रिप्स को एक घोषणा के मशविरा के साथ भारत भेजा गया।
मार्च 1948 में यह मशविरा कार्यकारी परिषद् तथा भारतीय राजनेताओं के सम्मुख रखा गया।
लगभग सभी पार्टियों तथा वर्गो के असंतोष को देख यह घोषणा केवल सभी भारतीयों की युद्ध मे सहायता प्राप्त करने का एक उपाय मात्र था। इसमे भारतीय समस्या के समाधान के लिए कोई विशेष प्रयास नहीं किया गया था।
क्रिप्स मिशन की असफलता के साथ 1942 में भारतीय नेताओं द्वारा भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत हुई और भारत छोड़ों का संकल्प गांधी जी ने तैयार किया। गांधी जी ने करो या मरो का नारा दिया था।
14 जुलाई, 1942 को कांग्रेस कार्यकारिणी ने वर्धा में एक प्रस्ताव पारित किया, जिसमें अंग्रेजो को भारत से चले जाने के लिए कहा गया था, तथा यह कहा गया कि यदि यह अपील स्वीकृत नहीं होती है तो कांग्रेस एक सविनय अवज्ञा आंदोलन चलाने के लिए बाध्य हो जाएगी।
पूरे देश मे कारखानो, स्कूल और कॉलेजों मे हड़तालें और कामबंदी हुई, जिन पर लाठीचार्ज और गोलियां चलाई गयीं।
बार बार की गोलीबारी और दमन से क्रुद्ध होकर जनता ने अनेक जगहो पर हिंसक कार्यवाही भी की। जनता ने पुलिस थानों, डाकखानों, रेलवे स्टेशनों आदि ब्रिटिश शासन के तमाम प्रतीको पर हमले किए।
उत्तरी और पश्चिमी बिहार और पूर्वी संयुक्त प्रांत, बंगाल में मिदनापुर, महाराष्ट्र, कर्नाटक तथा उड़ीसा के कुछ हिस्से आन्दोलन के प्रमुख केंद्र रहे, जिसमे बलिया, तामलुक, सतारा आदि स्थानों पर समानांतर सरकारों की स्थापना की गई, जो प्रायः दीर्घजीवी सिद्ध नहीं हुई।
रास बिहारी बोस ने जापान में इंडियन इंडिपेंडेंस लीग की स्थापना की। इसके बाद 11 सितंबर 1941 को उन्होंने इंडियन नेशनल आर्मी की स्थापना की।
18 फरवरी, 1942 को मोहन सिंह इस सेना के जनरल बनाये गए। जब सुभाष चंद्र बोस अप्रैल, 1943 मेँ पहुंचे तो जुलाई, 1943 को राज बिहारी बोस ने इंडियन इंडिपेंडेंस लीग और आजाद हिंद फौज की अध्यक्षता से इस्तीफा दे दिया और सुभाष चंद्र बोस को इनका दायित्व सौंप दिया गया।
सुभाष चंद्र बोस सिंगापुर लौट गए वहां उन्होंने 21 अक्टूबर 1943 को स्वतंत्र भारत की अस्थाई सरकार(आजाद हिंद सरकार) की स्थापना की तथा रंगून और सिंगापुर को मुख्यालय बनाया गया। बोस इस सरकार के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री तथा सेनाध्यक्ष तीनों थे। इसमें एक महिला रेजिमेंट भी थी जिसका नाम रानी झांसी रखा गया था।
1945 में, द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त हुआ।
1945 में जापान की युद्ध में पराजय ने भारत को आजाद कराने की आशाओं पर पानी फेर दिया। फ़ौज के अधिकांश सेनिक बंदी बना लिया गए। जब इन सैनिकों पर मुकदमे चलने लगे तो इन्हें जनता का भारी समर्थन मिला।
जवाहरलाल नेहरु, तेज बहादुर सप्रू तथा भूलाभाई देसाई ने इन सैनिकों की पैरवी की। जनदबाव में सरकार को झुकना पड़ा।
सुभाष चंद्र बोस ने दिल्ली चलो का विख्यात नारा तथा अपने अनुयायियो को जय हिंद का मूल मंत्र दिया।
द्वितीय विश्व युद्धोत्तर भारत में लोगो की चेतना और राष्ट्रीय भावना का उद्वेलन करने मे आजाद हिंद फौज की महत्वपूर्ण भूमिका रही।
संगठन | संस्थापक | वर्ष | देश |
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इण्डिया हाउस | श्यामजी कृष्ण वर्मा | 1904 | लंदन (इंग्लैण्ड) |
अभिनव भारत | वी.डी.सावरकर | 1906 | लंदन (इंग्लैण्ड) |
ग़दर पार्टी | लाला हरदयाल | 1907 | सेन फ्रांसिस्को (अमेरिका) |
इंडियन इंडिपेंडेंस लीग | लाला हरदयाल | 1914 | बर्लिन (जर्मनी) |
इंडियन इंडिपेंडेंस लीग एंड गवर्नमेंट | राजा महेंद्र प्रताप | 1915 | काबुल (अफगानिस्तान) |
इंडियन इंडिपेंडेंस लीग | रास बिहारी बोस | 1942 | टोकियो (जापान) |
अक्टूबर 1940 में लॉर्ड लिनलिथगो के स्थान पर लार्ड वेवेल भारत के वायसराय तथा गवर्नर बने। उन्होंने भारतीय संवैधानिक गतिरोध को समाप्त करने के उद्देश्य से एक विस्तृत योजना बनाई, जो उनके नाम पर वेवेल योजना के नाम से जानी जाती है। वेवेल योजना की घोषणा 14 जून, 1945 को की गई। योजना के मुख्य प्रावधान निंलिखित थे।
ब्रिटिश शासन राजनीतिक गतिरोध को समाप्त करके भारत को स्वशासन के लक्ष्य की ओर अग्रसर करना चाहता है।
वायसराय कार्यकारिणी परिषद का गठन इस तरह किया जाए कि, वायसराय तथा प्रधान सेनापति को छोडकर शेष सदस्य भारतीय हों।
कार्यकारी परिषद में हिंदू तथा मुसलमान सदस्यो की संख्या बराबर होगी।
विदेश विभाग भारतीय सदस्यो के हाथ में होगा।
एक ब्रिटिश उच्चायुक्त की नियुक्ति की जाएगी, जो भारतीय वाणिज्य तथा दूसरे हितो की देखभाल करेगा।
नई कार्यकारिणी परिषद 1935 के अधिनियम के तहत कार्य करेगी।
भारत सचिव शक्ति को सीमित किया जाएगा, जबकी वायसराय के वीटो के अधिकार को बरकरार रखा जाएगा।
वेवेल योजना और शिमला शिमला समझौता दोनो के विफल हो जाने के पश्चात भारत में राजनीतिक गतिरोध को दूर करने के लिए कैबिनेट मिशन को भारत भेजा गया।
इस शिष्टमंडल में तीन सदस्य थे – पैथिक लॉरेंस, सर स्टेफोर्ड क्रिप्स और ए. वी. अलेक्जेंडर। यह शिष्टमंडल 24 मार्च, 1946 को दिल्ली पहुंचा।
भारत के विभिन्न राजनीतिक दलो से लंबी बातचीत के बाद एक त्रिपक्षीय सम्मेलन, सरकार, कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग के बीच शिमला में आयोजित किया गया।
कैबिनेट मिशन ने इस बात को स्पष्ट कर दिया था कि उसका उद्देश्य संविधान का निर्धारण करना नहीं है, बल्कि उस तंत्र को सक्रिय बनाना है, जिसके द्वारा भारतीयों के लिए संविधान तय किया जा सके।
कैबिनेट मिशन योजना का महत्व इस बात में नहीं था कि इसमें भारतीय एकता को सुरक्षित रखा गया था तथा पाकिस्तान की मांग को स्पष्ट रुप से अमान्य कर दिया गया था।
जवाहरलाल नेहरु के नेतृत्व में उनके 11 सहयोगियो के साथ 2 सितंबर 1946 को अंतरिम सरकार का गठन किया गया। इसमें मुस्लिम लीग के सदस्य शामिल नहीं हुए।
मुस्लिम लीग ने कांग्रेस लीग की समानता पर बल दिया। ऐसा न करने पर उसने कैबिनेट मिशन योजना को ठुकरा दिया।
आरंभ में मुस्लिम लीग सरकार में शामिल नहीं हुई थी, परन्तु वायसराय के प्रयासों से वह 26 अक्टूबर 1946 को सरकार में शामिल हुई। सरकार में उसके 5 सदस्य थे – लियाकत अली, गजनफ़र अली, चंद्रीगर, अब्दुल, खनश्तर, तथा योगेंद्र नाथ मांडल।
कांग्रेस-लीग टकराव संविधान सभा की बैठक में लीग के भाग न लेने तथा उसके द्वारा चलाए जा रहे प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस के परिणाम स्वरुप भारत में दंगे विकराल रुप धारण करते जा रहे थे।
राजनीतिक गतिरोध को दूर करने के लिए ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री एटली ने 20 फरवरी, 1947 को घोषणा की, कि ब्रिटिश सरकार जून 1947 के पूर्व सत्ता भारतीयों को सौंप देगी।
ब्रिटिश संसद में यद्यपि इस घोषणा की काफी आलोचना हुई परंतु अंततः स्वीकृत हो गई।
इसी घोषणा के साथ सत्ता का सफलतापूर्वक हस्तांतरण करने के लिए लॉर्ड माउंटबेटन को भारत भेजा गया।
मार्च 1947 में लार्ड माउंटबेटन को भारत का वायसराय बनाकर भेजा गया।
लार्ड माउंटबेटन ने भारत और पाकिस्तान के बीच बंटवारे के प्रश्न पर कांग्रेस और मुस्लिम लीग के नेताओं के साथ बातचीत करके एक योजना तैयार की जिसे माउंटबेटन योजना के नाम से जाना जाता है।
माउंटबेटन द्वारा इस योजना की घोषणा 3 जून, 1947 को की गई, जिसमे हस्तांतरण की प्रक्रिया को सुगम बनाने तथा दोनों मुख्य संप्रदायों का समायोजन करने के लिए देश को दो भागो – भारत और पाकिस्तान में विभाजित करने का परामर्श दिया गया।
इस योजना के द्वारा यह निर्णय लिया गया कि 15 अगस्त, 1947 को भारत और पाकिस्तान को सत्ता का हस्तांतरण डोमिनियन स्टेटस के आधार पर कर दिया जाएगा।
कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग सहित सभी दलो ने इस योजना को अपनी स्वीकृति दे दी। इसके उपरांत ब्रिटिश संसद में किस योजना को कार्य रुप देने के लिए एक विधेयक पारित किया गया।
सत्ता का हस्तांतरण भारत स्वतंत्रता अधिनियम, 1947
माउंटबेटन की योजना के आधार पर ब्रिटिश संसद में एक विधेयक 4 जुलाई, 1947 को प्रस्तुत किया गया। यह विधेयक 18 जुलाई 1947 को भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम के रुप में पारित हुआ। इसकी प्रमुख बाते निम्नलिखित थी-
ग्रैंड ओल्ड मेन ऑफ इंडिया के नाम से प्रसिद्ध दादा भाई नौरोजी तीन बार 1886 ई., 1893 ई., 1906 ई. में कांग्रेस के अध्यक्ष बने थे।
भारतीय क्रांति की माँ (मदर ऑफ इंडियन रेवोलुशन) के नाम से मैडम कामाजी प्रसिद्ध हैं। बाल गंगाधर तिलक को फादर ऑफ इंडियन अनरेस्ट (भारतीय अशांति के पिता) वैलेंटाइन शिरोल ने कहा।
1932 के सांप्रदायिक पंचाट (कम्युनल अवार्ड) की घोषणा प्रधानमंत्री रैमसे मैकडोनाल्ड ने की थी।
व्यक्तिगत सत्याग्रह आन्दोलन के दौरान सबसे पहले गिरफ्तार होने वाले सत्याग्रही विनोबा भावे थे।
जयप्रकाश नारायण, डॉ राम मनोहर लोहिया एवं श्रीमती अरुणा आसफ़ अली ने भूमिगत होकर भारत छोड़ो आंदोलन का संचालन किया था।
4 मार्च 1931 के गांधी इरविन समझौते में महत्वपूर्ण भूमिका तेज बहादुर सप्रू, डॉ जयंकर व भोपाल के नवाब ने अदा की।
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