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18वीं शताब्दी में भारतीय समाज

समाज में सबसे महत्वपूर्ण स्थान सम्राट का था।

हिन्दु समाज में जाति प्रथा का बहुत महत्व था। हिन्दु समाज चार जातियों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) में बंटा हुआ था। पुरानी साहित्यिक पुस्तकों का भण्डार केवल ब्राह्मणों के अधिकार में होता था।

स्त्रियों का समाज एवं घर में सम्मान था परन्तु समानता की भावना नहीं थी।

मालाबार एवं कुछ क्षेत्रों को छोड़कर हिन्दु समाज पितृ प्रधान था।

हिन्दु एवं मुसलमान स्त्रियां परदा करती थी।

बाल विवाह प्रथा प्रचलित थी यद्यपि गौना वयस्क होने पर होता था।

ऊंचे वर्गो में दहेज प्रथा प्रचलित थी।

राजवंशों, बड़े जमींदारों तथा धनाड्य घरों में बहु पत्नी प्रथा चललित थी, परन्तु साधारण लोग एक विवाह ही करते थे।

द्विजों में विधवा विवाह प्रायः नहीं होता था। पेशवाओं ने विधवाओं के पुनर्विवाह पर पतदाम नाम का एक कर भी लगाया था।

बंगाल, मध्य भारत, राजस्थान इत्यादि के उच्च हिन्दु कुलों में सती प्रथा भी प्रचलित थी।

समाज में दास प्रथा प्रचलित थी।

हिन्दु एवं मुसलमानों में शिक्षा के प्रति विशेष रूचि रही परन्तु भारतीय शिक्षा का उद्देश्य संस्कृति था साक्षरता नहीं

संस्कृत के उच्च अध्ययन के केन्द्रों को बंगाल, बिहार, नदिया तथा काशी में तोल अथवा चतुष्पाठी कहा जाता था।

फ्रांसीसी पर्यटक बरनियर ने काशी को भारत का एथंज कहा है।

विद्या का प्रचलन प्रायः उच्च वर्णों में ही था परन्तु निम्न वर्णों के बालक भी विद्या प्राप्त कर लेते थे।

स्त्री शिक्षा अभीष्ट नहीं थी।

सवाई जयसिंह ने जयपुर, बनारस, दिल्ली आदि नगरों में 5 वेद्यशालाएं बनवायी थीं।

भारतीय अर्थव्यवस्था की आधार इकाई ग्राम थी।

नगरों में हस्तशिल्प का स्तर बहुत विकसित हो चुका था। भारतीय माल की संसार की सभी मंडियों में मांग थी।

भारत के प्रमुख हस्तशिल्प केन्द्र

ढ़ाका, अहमदाबाद तथा मसूलीपत्तनम - सूती कपड़ा

मुर्शिदाबाद, आगरा, लाहौर, गुजरात - रेशमी माल

कश्मीर, लाहौर, आगरा -ऊनी शाॅल, गलीचे

भारत में व्यापारी पूंजीपतियों का विकास एवं बैंक पद्धति का विकास हो चुका था।

उत्तरी भारत में जगत सेठों तथा दक्षिणी भारत में चेट्टियों का उदय हुआ।

18वीं सदी का भारत विषमताओं का देश हो गया था। अत्यंत गरीबी एवं अत्यंत समृद्धि दोनों साथ-साथ पायी जाती थी।

18वीं सदी में भारतीय जनता का जीवन उतना खराब नहीं था जितना 19वीं सदी के अंत में ब्रिटिश शासन में खराब हुआ।

भारतीय कृषि तकनीकी रूप से जडवत थी।

आयात की वस्तुएं

मोती, कच्च रेशम, ऊन, खजूर, मेवे, कहवा, सोना, शहद, चाय, चीनी, कस्तूरी, टिन (सिंगापुर से), मसाले, इत्र, शराब, चीनी (इंडोनेशिया से), कागज आदि के साथ। हाथी दांत (अफ्रीका), तांबा, लोहा और सीसा (यूरोप) से।

निर्यात की वस्तुएं

निर्यात की सबसे महत्वपूर्ण वस्तु सूती वस्त्र थी।

कच्चा रेशम, रेशमी कपड़े, लोहे का सामान, नील, शोरा, अफीम, चावल, गेहूं, चीनी, काली मिर्च, मसाले, रत्न, औषधियां।

18वीं सदी में भारत का निर्यात, भारत के आयात से अधिक था। विदेश व्यापार को चांदी एवं सोने के आयात द्वारा संतुलित किया जाता था।

18वीं सदी में देश का आंतरिक व्यापार प्रतिकूल रूप से प्रभावित था।

महाराष्ट्र, आंध्र एवं बंगाल में जहाज निर्माण उद्योग विकसित हुआ।

18वीं सदी की औसत साक्षरता ब्रिटिश शासन काल की अपेक्षा कम नहीं थी।

जाति नियम अत्यंत कठोर थे अंतर्जातीय विवाह निषेध था।

18वीं सदी में परिवार व्यवस्था पितृसत्तात्मक थी परन्तु केरल में परिवार मातृ प्रधान था।

पर्दा प्रथा केवल उत्तर भारत में प्रचलित थी दक्षिण भारत में नहीं।

बाल विवाह प्रथा पूरे देश में प्रचलित थी।

सती प्रथा दक्षिण भारत में प्रचलित नहीं थी।

आमेर के राजा सवाई जयसिंह और मराठा सेनापति परशुराम भाऊ ने विधवा पुनर्विवाह को बढ़ावा देने की कोशिश की परन्तु सफल नहीं हो सके।

पंजाबी महाकाव्य हीर-रांझा की रचना वारिस शाह ने इसी काल में की।

18वीं सदी में हिन्द एवं मुसलमान में मित्रतापूर्ण रहे।

सामंत एवं सरदारों की लड़ाइयां एवं राजनीति धर्म निरपेक्ष थी।

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