यह आन्दोलन बंगाल में हुआ।
कारण: बंगाल के वे काश्तकार जो अपने खेतों में चावल या अन्य खाद्यान्न फसलें उगाना चाहते थे, ब्रिटिश नील बागान मालिकों द्वारा उन्हें नील की खेती करने के लिए बाध्य किया जाता था।
नील की खेती करने से इंकार करने वाले किसानों को नील बागान मालिकों के दमन चक्र का सामना करना पड़ता था।
ददनी प्रथा: नील उत्पादक(बागान मालिक) किसानों को एक मामूली रकम अग्रिम देकर उनसे एक अनुबंध/करारनामा लिखवा लेते थे। यही ददनी प्रथा थी। इससे किसान नील की खेती करने के लिए बाध्य हो जाता था।
नेतृत्व कर्ता: दिगम्बर विश्वास एवं विष्णु विश्वास के नेतृत्व में इस आन्दोलन की शुरूआत बंगाल के नदिया जिले के गोविन्दपुर गांव में हुई।
रैय्यत(किसानों) ने एकजुटता, अनुशासन, संगठन एवं सहयोग से आन्दोलन किया।
आन्दोलन को बंगाल के बुद्धिजीवी वर्ग का सहयोग प्राप्त हुआ। इस आन्दोलन के पक्ष में हरिश्चन्द्र मुखर्जी ने हिन्दु पैट्रियट द्वारा बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। दीन बंधु मित्र के नाटक नील दर्पण में किसानों के शोषण की दशा वर्णित है।
आन्दोलन को ईसाई मिशनरियों का भी समर्थन प्राप्त हुआ।
ब्रिटिश सरकार द्वारा नील आन्दोलन समस्या की जांच के लिए सीटोन कार की अध्यक्षता में चार सदस्यीय आयोग का गठन किया गया। आयोग ने रिपोर्ट में किसानों के शोषण की बात को स्वीकार किया।
1860 ई. में अधिसूचना जारी कर नील की जबरन खेती पर रोक लगा दी गयी।
यह आन्दोलन बंगाल में हुआ। इस आन्दोलन का कारण जमींदारों द्वारा लगान की दर को अत्यधिक बढ़ा देना था।
नेतृत्व कर्ता: ईसान चन्द्र राय, केशव चन्द्र राय एवं शंभू पाल।
समर्थक: बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय, रमेश चन्द्र दत्त एवं अन्य।
विशेष: यह आन्दोलन केवल जमींदारों के खिलाफ था ब्रिटिश शासन के खिलाफ नहीं था। नेताओं ने कहा ‘हम महारानी और सिर्फ महारानी के रैय्यत होना चाहते हैं।’
यह उपद्रव महाराष्ट्र में हुआ।
कारण: रैय्यतवाड़ी व्यवस्था से किसानों से उन्हें बिना मालिकाना हक दिए सीधा लगान वसूल करना।
साहूकारों द्वारा अत्यधिक ब्याज वसूल करना।
न्यायपालिका द्वारा पक्षपातपूर्ण न्याय साहूकारों के पक्ष में।
यह आन्दोलन मूलतः साहूकारों एवं जमींदारों के खिलाफ था। शुरूआत में यह अहिंसक था बाद में हिंसक हो गया था। दक्कन कृषक राहत अधिनियम, 1879 द्वारा किसानों को साहूकारों के विरूद्ध कुछ संरक्षण प्रदान किया।
यह विद्रोह मालाबार तट (केरल) में हुआ।
मोपला: मोपला, मालाबार तट पर रहने वाले वे गरीब किसान थे जो अरब लोगों के वंशज थे। ये अधिकतर गरीब मुस्लिम किसान थे।
नम्बूदरी: ये उच्च वर्ण हिन्दु सम्पन्न जमींदार थे। जिन्हें प्रशासन का संरक्षण प्राप्त था।
कारण: सम्पन्न जमींदारों (नम्बूदरों) का गरीब मोपलाओं पर अत्याचार व अंग्रेजी सरकार की खिलाफत विरोधी नीतियां।
नेतृत्व: अली मुसलियार
समर्थन: महात्मा गांधी, मौलाना आजाद, शौकत अली
स्वरूप: यह विद्रोह जब 1836 - 54 ई. के बीच हुआ तब यह अमीर एवं गरीब के बीच का संघर्ष था जिसे औपनिवेशिक शासकों ने साम्प्रदायिक रूप प्रदान किया।
1921 का विद्रोह जमींदारों एवं अंग्रेज हुकूमत के खिलाफ था।
एका आन्दोलन अवध में हुआ।
आन्दोलन के केन्द्र: हरदोई, बहराइच, सुल्तानपुर, बारांबाकी एवं सीतापुर।
नेतृत्व: मदारी पासी और सहरेब
कारण: अत्यधिक लगान, गैर कानूनी रूप से खेत छीनना (बेदखली), बेगार प्रथा।
व्यापकता: काश्तकार (किसान) एवं छोटे जमींदार दोनों शामिल
स्थान: संयुक्त प्रांत
कारण: आगरा एवं अवध क्षेत्र में जमीदारों एवं सरकार द्वारा किसानों का शोषण एवं फसल नष्ट हो जाने के बावजूद अत्यधिक लगान वसूल करना।
उ. प्र. किसान सभा (1918 ई.): अवध में किसानों को संगठित करने के लिए गौरी शंकर मिश्र, इन्द्र नारायण द्विवेदी, मदन मोहन मालवीय के प्रयासों से उ. प्र. किसान सभा की स्थापना की गयी।
अवध किसान सभा (1920 ई.): इस सभा का गठन बाबा रामचन्द्र ने किया था। ये मूलतः महाराष्ट्र के रहने वाले थे। सभा ने किसानों से बेदखल जमीन न जोतने और बेगार ने करने की अपील की। नियमों का पालन न करने वाले किसानों का सामाजिक बहिष्कार (नाई-धोबी बन्द) करने तथा अपने विवादों को पंचायत के माध्यम से हल करने का आग्रह किसानों से किया।
स्वरूप: मूलतः आन्दोन अहिंसक था। किसान सभाओं द्वारा शांतिपूर्ण बैठकों, सामाजिक बहिष्कार, बेदखल जमीन को न जोतना एवं आपसी विवादों को पंचायत द्वारा सुलझाना इत्यादि तरीकों को अपनाया गया था परन्तु 1921 में कुछ क्षेत्रों में आन्दोलन ने हिंसक रूप ले लिया था। इस दौरान किसानों ने बाजारों, घरों एवं अनाज की दुकानों पर धावा बोलकर उन्हें लूटा और पुलिस के साथ हिंसक झड़पें हुई।
अंत में सरकारी दमन ने आन्दोलन को कमजोर कर दिया।
अवध माल गुजारी रेंट संशोधन अधिनियम ने आन्दोलन को कमजोर किया।
मार्च, 1921 तक आन्दोलन लगभग समाप्त हो गया।
कारण: 1926 ई. में सरकार ने बारदोली में राजस्व 30 प्रतिशत (1927 में 22 घटाकर 22 प्रतिशत) कर दिया था जो किसानों के लिए अत्यंत हताशा पूर्ण था क्योंकि एक ओर कपास के मूल्यों में गिरावट आयी और दूसरी ओर राजस्व दर में अत्यधिक वृद्धि के कारण किसान किसान राजस्व देने में असमर्थ तो था ही नहीं बाध्य होकर अपनी जमीन बेचने तक के लिए मजबूर हो रहा था।
नेतृत्व: किसानों की ओर से कांग्रेस नेताओं ने सरदार वल्लभ भाई पटेल को नेतृत्व करने का अनुरोध किया। 4 फरवरी, 1928 को पटेल बारदोली पहुंचे।
स्वरूप: यह विद्रोह अहिंसक था। सरदार पटेल ने बारदोली को 13 शिविरों में विभाजित किया एवं प्रत्येक शिविर में एक अनुभवी नेता तैनात किया।
एक प्रकाशन विभाग की स्थापना की एवं रोज सत्याग्रह पत्रिका का प्रकाशन किया।
चोरी से राजस्व चुकाने वाले किसानों एवं सरकार की प्रतिक्रिया पर नजर रखने के लिए आन्दोलन का अपना खुफिया तंत्र बनाया गया।
जागरूकता फैलाने के लिए बैठक, भाषण, परचों का सहारा लिया गया।
चोरी छिपे राजस्व देने वाले किसानों को सामाजिक बहिष्कार की धमकी दी गयी।
आन्दोलन के तरीकों का पालन सुनिश्चित करने के लिए बौद्धिक संगठन स्थापित किए गए।
के. एम. मुंशी एवं लालजी नारंजी ने आन्दोलन के समर्थन में बम्बई विधान परिषद की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया।
आन्दोलन के समर्थन में रेलवे हड़ताल का आयोजन किया गया।
जनसमर्थन: आन्दोलन में पुरूष एवं महिला दोनों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। आन्दोलन में छात्रों ने भी भाग लिया। आन्दोलन को कांग्रेस का समर्थन प्राप्त था।
जांच कमेटी: ब्लूफील्ड एवं मैक्सवेल समिति का गठन किया। इसने अपनी रिपोर्ट में 30 प्रतिशत राजस्व वृद्धि को अनुचित ठहराया। सरकार ने 30 प्रतिशत दर को घटाकर 6 प्रतिशत कर दिया।
आन्दोलन से जुड़ी महिलाएं: कस्तूरबा गांधी, मनी बेन पटेल, शारदा बेन, मीठू बेन, शारदा मेहता, भक्तिवा प्रमुख थीं।
महिलाओं ने इसी आन्दोलन पटेल को सरदार की उपाधि प्रदान की।
बिजौलिया आन्दोलन राजस्थान में हुआ।
कारण: जागीरदारों ने किसानों पर 84 प्रकार की लगान लगा रखी थी।
नेतृत्व: प्रारंभिक नेता चारण और ब्रह्मदेव थे। बाद में नारायण बटले जुड़े इन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। यह सत्याग्रह भूप सिंह ने चलाया। बाद में भूपसिंह को गिरफ्तार कर लिया गया लेकिन जले से भाग कर विजय सिंह पथिक के नाम से बिजौलिया आन्दोलन में शामिल हुए। बाद में माणिक्यलाल वर्मा ने जमना लाल बजाज से मुलाकात कर उन्हें आन्दोलन का नेता बना दिया।
1922 ई. में भारत सरकार का एक प्रतिनिधि हाॅलैण्ड बिजौलिया पहुंचा। इसकी मध्यस्थता से किसानों के साथ समझौता हुआ। अब 35 करों को हटा दिया गया।
तेभागा आन्दोलन बंगाल में हुआ।
इस आन्दोलन की शुरूआत त्रिपुरा के हसनाबाद से हुई यह मुख्यतः बंगाल में केन्द्रित था।
इस आन्दोलन के प्रमुख नेता कम्पा राम सिंह एवं भवन सिंह थे।
इस आन्दोलन में बंटाईदार किसानों ने एलान किया कि वे फसल का 2/3 हिस्सा लेंगे और जमींदारों को सिर्फ 1/3 हिस्सा देंगे।
बंटवारे के इसी अनुपात के कारण इसे तेभाग आन्दोलन कहते हैं।
यह आन्दोलन तेलंगाना में हुआ।
कारण: द्वितीय विश्व युद्ध के बाद किसानों से कम दाम पर जबर्दस्ती अनाज का वसूला जाना। इसका तात्कालिक कारण कम्यूनिष्ट नेता एवं किसान संगठनकर्ता कमरैया की पुलिस द्वारा हत्या कर देना था।
इस आन्दोलन में किसानों ने मांग की कि हैदराबाद रियासत को समाप्त किया जाए तथा उसे भारत का अंग बना दिया जाए।
बम्बई के निकट रहने वाली आदिम जाति वर्ली ने किसान सभा की सहायता से मई, 1945 में जंगल के ठेकेदारों, साहूकारों, धनी कृषकों एवं जमींदारों के विरूद्ध आन्दोलन किया।
बकाश्त आन्दोलन (1946-47 ई.)
बकाश्त आन्दोलन बिहार में हुआ।
बकाश्त: ये वे किसान थे जो जमींदारों द्वारा दी जाने वाली भूमि पर प्रतिवर्ष किराया चुका कर कृषि करते थे।
बकाश्त किसानों के पास कोई वैधानिक अधिकार नहीं थे। जमींदार बकाश्तों का शोषण करते थे इसी कारण बकाश्त एवं जमींदारों के बीच जमकर संघर्ष हुआ।
यह आन्दोलन केरल में हुआ।
यह आन्दोलन किसानों एवं मजदूरों का मिला जुला संघर्ष था जो सामन्ती उत्पीडन एवं शोषण के विरूद्ध था। सामन्त, किसानों एवं मजदूरों के साथ गुलामों जैसा व्यवहार करते थे।
बिहार किसान सभा: इसका गठन 1927 ई. में स्वामी सहजानन्द सरस्वती ने किया।
आंध्र प्रांतीय किसान सभा: गठन 1928 ई. में एन. जी. रंगा ने किया।
अखिल भारतीय किसान सभा: इसका गठन 1936 ई. में हुआ। इसका गठन सभी प्रांतीय किसान सभाओं को मिला कर किया गया थ।
पहला अखिल भारतीय किसान सम्मेलन 11 अप्रैल, 1936 ई. में लखनऊ में आयोजित हुआ। इसके अध्यक्ष स्वामी सहजानन्द सरस्वती एवं महासचिव एन. जी. रंगा को चुना गया। इसमें जवाहर लाल नेहरू भी शामिल हुए थे।
1 सितंबर, 1936 ई. को किसान दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया।
1938 ई. में आंध्र प्रदेश के गुण्टूर जिले के निदुब्रोल में पहला भारतीय किसान स्कूल खोला गया था।
स्थापना: 1873 ई. में बम्बई में, ज्योतिबा फुले
उद्देश्य: ब्राह्मणों के आडम्बर और उनके अवसरवादी धार्मिक ग्रंथों की बुराइयों से निम्न जातियों को बचाना।
सामाजिक सेवा, स्त्री एवं निम्न जाति के लोगों की शिक्षा संस्कृत हिन्दुत्व का विरोध।
सम्बद्ध व्यक्ति: केशव राय जेठे और दिनकर राव ने पूना में समाज का नेतृत्व किया इन्हीं के कारण ही समाज अंग्रेजी राज्य और कांग्रेस दोनों के विरूद्ध हो गया।
ज्योतिबा फुले की पुस्तकें: गुलामगीरी (1872 ई.), सार्वजनिक सत्य धर्म पुस्तक।
ज्योतिबा फुले ने ब्राह्मणों के प्रतीक चिन्ह ‘राम’ के विरोध में ‘राजा बालि’ को अपने आन्दोलन का प्रतीक चिन्ह बनाया।
1920 ई. में आॅल इण्डिया डिप्रेस्ड क्लास फेडरेशन की स्थापना
1924 ई. बहिस्कृत हितकारिणी सभा
1927 ई. समाज समता संघ
1942 ई. अनुसूचित जाति परिसंघ
अम्बेडकर ने निम्न जातियों के लिए पृथक निर्वाचन की मांग की।
मंदिरों में सभी को जाने के लिए आन्दोलन चलाया।
कांग्रेस का विरोध किया एवं ब्रिटिश साम्राज्यवाद के पक्ष में था।
अछूतों एवं हिन्दुओं में सामाजिक समानता का प्रचार
मजदूर वर्ग के हितों की रक्षा, अछूतों के हितों की रक्षा के लिए कदम उठाए
डा. अम्बेडकर ने हिन्दु धर्म का त्याग कर बौद्ध धर्म ग्रहण किया।
यह आन्दोलन केरल में हुआ और इसकी शुरूआत नारायण गुरू ने की।
यह 1888 ई. में निम्न जाति में धार्मिक छूट के लिए शुरू किया गया था।
नारायण गुरू: ‘मानव के लिए एक धर्म, एक जाति और एक ईश्वर है।’
अयप्पन राजराजन: ‘मानव का न कोई धर्म है, न कोई जाति है और न ही कोई ईश्वर है।’
यह आन्दोलन मद्रास में हुआ इसके प्रारंभकर्ता सी. एन. मुदलियार, टी. एम. नायर, पी. तियागरापा चेट्टी थे।
इस आन्दोलन में धनवान जमींदार, व्यापारी लोग शामिल था।
यह ब्राह्मण विरोधी आन्दोलन था क्योंकि गैर ब्राह्मणों की तुलना में ब्राह्मणों को सरकारी नौकरी, शिक्षा एवं राजनीति में उच्च स्थिति थी।
यह आन्दोलन तमिलनाडु में हुआ इसका नेतृत्व ई. वी. रामास्वामी नायकर उर्फ पेरियार ने किया।
यह आन्दोलन निम्न जाति के अधिकारों को लेकर था। इसमें बिना ब्राह्मणों की सहायता से विवाह, मंदिरों में निम्न जातियों का जबरदस्ती प्रवेश, मनु स्मृति के खिलाफ आचरण करने की बातें शामिल थी।
इसका उद्देश्य निम्न जाति को समाज में उचित सम्मान दिलाना था।
यह आन्दोलन त्रावणकोर के वायकूम गांव से एक हरिजन के मंदिर में प्रवेश न करने देने की वजह से शुरू हुआ।
मदुरै में इसका नेतृत्व रामा स्वामी नायकर ने किया।
यह आन्दोलन गुरूवायुर (त्रावणकोर) में शुरू हुआ।
यह आन्दोलन हरिजनों एवं निम्न जातियों को मन्दिरों में प्रवेश न देने के विरोध में हुआ।
1932 ई. में के. कलप्पन आमरण अनशन पर बैठ गए गांधी जी के आश्वासन पर इन्होंने अपन अनशन तोड़ा।
अन्य नेता: वी सुब्रहमण्यम, के पिल्लई एवं ए. के. गोपालन प्रमुख थे।
नियोजकों के विरूद्ध मजदूरों की पहली हड़ताल 1877 ई. में नागपुर एम्प्रेस मिल में की गयी।
भारत में गठित प्रथम मजदूर संगठन बाॅम्बे मिल हैण्ड्स एसोसिएशन था जिसकी स्थापना एन. एम. लोखण्डी ने की थी।
मजदूर वर्ग की पहली संगठित हड़ताल ब्रिटिश स्वामित्व की ग्रेट इंडियन पेनिनसुला रेलवे में हुई।
मद्रास श्रमिक संघ: इसकी स्थापना 1918 ई. में मद्रास में वी. पी. वाडिया ने की। यह पहला व्यवस्थित श्रमिक संघ था। यह संघ कपड़ा उद्योग से संबंधित था।
इसे ट्रस्टीशिप के सिद्धांत पर गांधीजी ने 1918 में स्थापित किया।
इसकी स्थापना 1920 ई. में एन. एम. जोशी द्वारा बम्बई में की गई।
इसका अध्यक्ष लाला लाजपत राय, उपाध्यक्ष जोसेफ बैप्टिस्टा और महामंत्री दीवान चमन लाल को बनाया गया।
इसकी स्थापना 107 ट्रेड यूनियनों को मिलाकर की गई।
एन. एम. जोशी, AITUC के प्रतिनिधि के रूप में अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन में भेजे गए थे।
AITUC के प्रथम विभाजन के बाद अस्तित्व में आयी।
इसका गठन एन. एम. जोशी और वी. वी. गिरी के नेतृत्व में हुआ।
रणदिबे एवं देश पाण्डे के नेतृत्व में 1931 में गठन।
1938 ई. में AITUC + ITUF + RTUC का संयुक्त अधिवेशन नागपुर में हुआ था।
मई, 1947 ई. में स्थापित किया गया। इसके संस्थापक वल्लभभाई पटेल, वी. वी. गिरी थे। इसके प्रथम अध्यक्ष वल्लभभाई पटेल बने।
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