ईस्ट इंडिया कम्पनी आई तो थी भारत में व्यापार करने के लिए लकिन जब उसने देशी शासकों की कमजोरियों और आपसी वैमनस्यता को देखा तो भारत में साम्राज्य स्थापित करने की लालसा जाग उठी। जब प्लासी के युद्ध के बाद बंगाल पर कंपनी ने अधिकार कर लिया तो वह और भी महत्त्वाकांक्षी हो गई। अब इसका उद्देश्य पूरी तरह से देशी राज्यों को ब्रिटिश आधिपत्य में लाना हो गया और उसने अपने राजनीतिक और आर्थिक हितों की पूर्ति के लिए 19 वीं शताब्दी के अंत तक सभी भारतीय रियासतों को अपने प्रभुत्व में ले लिया। भारतीय राज्यों के प्रति ब्रिटिश नीति के सम्पूर्ण ब्रिटिश काल को तीन भागों बांटा जा सकता है-
दूसरी ओर, कुछ विद्वानों ने 1935 ई0 से 1947 ई0 तक की ब्रिटिश नीति को ’समान संघ की नीति’ (Policy of Equal Federation) की संज्ञा दी है। आइए, इन चारों नीतियों का कुछ विस्तार से वर्णन करें-
कम्पनी की इस नीति का आधार अहस्तक्षेप और सीमित उत्तरदायित्व था। इस नीति का निर्माता वारेन हस्टिंग्स था।
इस दौरान कम्पनी की नीति अन्य देशी रियासतों से संबंध बढाकर इन्हें शक्तिशाली रियासतों के विरुद्ध बफर स्टेट के रूप मे रखने की थी।
इलाहाबाद की संधि से नीति की शुरुआत है। इस नीति में अंग्रेजो ने सुरक्षात्मक नीति अपनाई।
इलाहाबाद की संधि : इसमें अवध को सीमावर्ती राज्य (बफर स्टेट) के रूप में मान्यता देते हैं। इसी नीति के तहत अंग्रेजों ने अपनी सुरक्षा को अधिक महत्त्व देते हुए अवध को बफर स्टेट के रूप में प्रयोग किया ताकि मराठों व अफगानों से स्वयं की रक्षा कर सके।
रिंग फेन्स के काल में कम्पनी द्वारा भारतीय रियासतों से संबंध बराबरी पर आधारित होते थे। कम्पनी देशी रियासतों से होने वाली संधियों में सर्वोच्च शक्ति होने का दावा नहीं करती थी। संधियों में दोनों पक्षों की आवश्यकताओं का पूरा ध्यान रखा जाने का प्रावधान किया जाता था और एक दूसरे के मामलों में हस्तक्षेप नहीं करने का विश्वास दिलाया जाता था। हालांकि इस अहस्तक्षेप की नीति का पूर्णतः पालन नहीं किया गया। जहाँ कम्पनी को आवश्यकता होती तत्कालीन गवर्नर के माध्यम से कम्पनी देशी राज्यों में हस्तक्षेप कर देती थी।
लाॅर्ड वलेजली की सहायक संधि भी इसी का विस्तार थी। इसमें साम्राज्य विस्तार के स्थान पर सुरक्षात्मक कदमों को महत्त्व दिया। इसी कारण से भारतीय रियासतों को राजनीतिक और सैनिक दृष्टि से कंपनी पर निर्भर कर दिया।
लॉर्ड वेलेजली इस संधि का आविष्कारक नहीं था। इसका प्रथम प्रयोग फ्रांसीसी “डूप्ले” द्वारा किया गया था। यद्यपि इसका व्यापक प्रयोग लॉर्ड वेलेजली द्वारा किया गया।
1798 में लाॅर्ड वेलेजली गर्वनर जनरल बनकर भारत आया। उसने अनुभव किया कि कम्पनी सरकार की भारतीय रियासतों में हस्तक्षेप न करने की नीति सही नहीं है। देश में उस समय कोई एक शक्तिशाली रियासत नहीं थी। वेलेजली ने निर्णय किया कि ऐसे समय में कम्पनी को देश में एक प्रभुत्वशाली शक्ति बनना चाहिए। इसी उद्देश्य को पूरा करने हेतु वेलेजली ने देशी रियासतों के साथ संबंध कायम करने हेतु सहायक संधि प्रणाली प्रारंभ की।
सहायक संधि की मुख्य बातें: -
इसके तहत् सहायक संधि करने वाली रियासत को रियासत में सुरक्षा एवं सहायता के लिए अंगे्रजी फौजें रखनी होती थी। परंतु उनके खर्चे हेतु या तो शासक को एक निश्चित धनराशि कम्पनी को देनी पड़ती थी या रियासत का कुछ भाग कम्पनी के सुपुर्द करना होता था। ताकि कम्पनी कम्पनी की फौज का खर्च चलाया जा सके।
संबंधित शासक को किसी विदेशी या अन्य शासक से सीधे संबंध स्थापित करने की अनुमति नहीं थी। इसके लिए कम्पनी की मध्यस्थता आवश्यक थी। किसी अन्य शासक या रियासत से मतभेद होने पर भी कम्पनी की मध्यस्थता आवश्यक थी।
रियासत को एक अंग्रेजी रेजीडेंट रखना पड़ता था। जिसका रियासत पर बड़ा प्रभाव होता था।
अपनी रियासत से अंग्रेजों के अलावा शेष सभी विदेशियों यथा फ्रांसिसी, डच, पुर्तगाली आदि को बाहर निकालने की शर्त भी जोड़ी गई।
इन सबके बदले अंग्रेजी सरकार उस रियासत की बाहरी आक्रमण और आंतरिक संकटों से सुरक्षा करने की जिम्मेदारी लेती थी।
इस प्रकार से देशी रियासतों को अग्रंेजी सरकार द्वारा प्रदत्त सुरक्षा गारंटी के बदले अपनी राजनीतिक स्वतंत्रता सौंपनी पड़ती थी।
सहायक संधि स्वीकार करने वाले राज्य, सबसे पहले निम्न राज्यों ने सहायक संधि अपनायी –
धीरे-धीरे देश की अधिकांश रियासते इस संधि के तहत आ र्गइ । राजस्थान की लगभग रियासतों ने 1803 तक तक कम्पनी से सहायक संधि कर ली।
इसका परिणाम यह हुआ कि सुरक्षित एवं स्वतंत्र देशी रियासतों की आंतरिक व्यवस्था और आर्थिक व्यवस्था नष्ट हो गई। इस प्रकार से लाॅर्ड वेलेजली ने कम्पनी सरकार की अहस्तक्षेप की नीति को आंशिक रूप से त्याग कर कम्पनी की राजनीतिक और आर्थिक स्थिति को सुदृढ किया।
1813 में लाॅर्ड हेस्टिंग्ज भारत आया। उसने रिंगफेंस की नीति/ घेरे की नीति को त्याग कर भारतीय रियासतों को अंग्रेजी प्रभुत्व स्वीकार करने के लिए बाध्य कर दिया।
1813 तक कम्पनी की सत्ता स्थापित हो चुकी थी और इन्हें अब सुरक्षात्मक दृष्टि से कोई खतरा नहीं था। इसलिए लाॅर्ड हेस्टिंग्स ने आक्रामक नीति अपनाते हुए भारत में अंग्रेजी शासन की सर्वश्रेष्ठता स्थापित करने का प्रयास किया।
यह देशी रियासतों को अधीन करने की ऐसी नीति थी जिसमें आंतरिक शासन स्वयं रियासतों को करना था उन्हें अंगेजी साम्राज्य में नहीं मिलाया जाता था। सरकार रियासत के प्रशासन से खुद को अलग रखती थी। हालांकि हेस्टिंग्स के पश्चात् के गवर्नरों द्वारा इस अलगाव की नीति का पूर्णतः पालन नहीं किया गया। बैंटिंग ने आरंभ में अलगाव की नीति का पालन किया लेकिन जहाँ हैदराबाद, जयपुर, भोपाल आदि रियासतों के आंतरिक विरोधों में काई रुचि नहीं ली वहीं बाद में मैसूर, कुर्ग, आसाम के जेटिया, कचार, कर्नूल आदि में हस्तक्षेप भी किया और अपने अधीन भी किया।
इस काल में की गई संधियों का स्वरूप इस प्रकार का था कि भारतीय रियासतों के प्रति अधीनस्थ की तरह व्यवहार किया जाता था। इसी प्रकार रियासतों में स्थापित ब्रिटिश रेजीडेंटों का व्यवहार भी निरंकुश और हस्तक्षेपयुक्त हो चुका था। यह भारतीय रियासतों के अधीनस्थ स्वरूप को स्पष्ट करता था।
इसी नीति का विकास आगे चलकर विलय की नीति (1834 ई.) में होता है। जिसमें उत्तराधिकार के प्रश्न पर अनुमति आवश्यक कर दी जाती है। इसका चरम विकास डलहौजी की राज्य हड़प नीति में होता है जब ब्रिटिश शासन की निरंकुशता और भारतीय रियासतों के विलय पर जोर दिया जाता है।
डलहौजी 1848 में भारत आया और 1856 तक रहा। उसने अपने शासनकाल में देशी राज्यों को साम्राज्याधीन करने की नीति को अपनाया। इसके लिए उसने प्रत्येक उपयोगी अवसर और तरीके का लाभ उठाया। उसने व्यपगत के सिद्धांत (Doctrine Of Lapse)को लागू किया।
इसके अनुसार यदि किसी राज्य का शासक बिना जीवित उत्तराधिकारी के मृत्यु को प्राप्त हो जाता था तो उसका राज्य भारतीय ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया जाता था। शासक को बच्चा गोद लेने की अनुमति नहीं हुआ करती थी। इसके तहत कुप्रबंध के आधार पर भी राज्य ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया जाता था।
इसी नीति के तहत डलहौजी ने
अवध रियासत को कुप्रबंध के आधार पर 13 फरवरी 1856 को ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया।
युद्ध के द्वारा 1849 में पंजाब को ब्रिटिश साम्राज्य में मिलाया गया।
गोद निषेध नीति द्वारा : सतारा, जैतपुर, संभलपुर, बघाट, झांसी आदि
युद्धों द्वारा : पंजाब, सिक्किम, बर्मा
बकाया वसूली द्वारा : बरार
कुशासन के आरोप पर : अवध
इस नीति को लागू करने के लिए डलहौजी ने सभी भारतीय राज्यों/रियासतों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया।
पहली श्रेणी (अधीनस्थ राज्य)- इस श्रेणी में वे राज्य थे जोकि प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से ब्रिटिश सरकार के सहयोग से असतित्तव में आए, और ये राज्य पूर्णतः कंपनी पर ही आश्रित थे। इन राज्यों के शासकों को निःसंतान होने पर अपने उत्तराधिकारी को गोद लेने का अधिकार नहीं था। शासक की मृत्यु के बाद राज्य सीधे अंग्रेजों के अधीन हो जाएगा।
जैसे- झाँसी, जैतपुर, संभलपुर।
द्वितीय श्रेणी (आश्रित राज्य)- इस श्रेणी में वे राज्य थे जोकि प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से ब्रिटिश सरकार के सहयोग से असतित्तव में आए थे परन्तु ये कंपनी के आधीन नहीं थे कैवल बाह्य सुरक्षा हेतु कंपनी पर आश्रित थे। पहली श्रेणी से इतर इन्हे उत्तराधिकारी को गोद लेने की छूट थी परन्तु पहले ब्रिटिश सरकार से इजाजत लेनी थी।
जैसे- अवध, ग्वालियार, नागपुर।
तृतीय श्रेणी (स्वतंत्र राज्य)- इस श्रेणी के राज्य को अपने उत्तराधिकारी को गोद लेने की पूर्ण स्वतंत्रता थी।
जैसे- जयपुर, उदयपुर, सतारा।
इन सभी में से सतारा (महाराष्ट्र), झाँसी, अवध और नागपुर महत्वपूर्ण है –
सतारा – सतारा इस नीति से प्रभावित होने वाला सबसे पहला राज्य बना। यहां के शासक का कोई भी पुत्र नहीं था अतः उसने ब्रिटिश सरकार से पत्र के द्वारा अपने गोद लिए पुत्र मान्यता के लिए आग्रह किया परन्तु डलहौजी ने इसे अस्वीकार कर दिया। 1848 में सतारा के अंतिम शासक की मृत्यु के बाद इसे अंग्रेजी राज्य के अन्तर्गत मिला दिया गया।
झाँसी - झाँसी की रानी का असली नाम “मनू बाई” था और उनके पति का नाम “गंगाधर राव” था। इनकी संतान की मृत्यु हो गई थी, इसलिए इन्होंने एक पुत्र को गोद लिया था। जिसका नाम दामोधर राव था। 1853 में गंगाधर राव की मृत्यु हो जाने के उपरान्त अंग्रेजों ने आक्रमण कर झाँसी को अपने अधिकार में लेने की कोशिश शुरू कर दी। इसका सामना रानी लक्ष्मी बाई ने बहुत ही बहदुरी के साथ किया परन्तु अंततः अंग्रेजों की विजय हुई और वर्ष 1853 में झाँसी को अधीग्रहित किया गया।
अवध - 1856 में अवध का नावब वाजिद अली शाह था। अंग्रेजों ने इसके बेटे को देश निकाला दे दिया गया था, और फिर बाद में कुप्रशासन का आरोप लगा कर अवध को हड़प लिया।
नागपुर - यहां के शासक राघो जी ने भी पत्र के द्वारा अपने गोद लिए पुत्र की मान्यता के लिए ब्रिटिश सरकार से अग्रह किया परन्तु उनकी मृत्यु तक कंपनी ने इस विषय में कोई भी निर्णय नहीं लिया। उनकी मृत्यु के बाद डलहौजी ने उनके दत्तक पुत्र को मान्यता देने से मना कर दिया और राज्य को अपनी अधीनता में ले लिया।
1857 के बाद की ब्रिटिश सरकार की नीति को अधीनस्थ संघ की नीति कहा जाता है। इसमें सरकार ने देशी रियासतों को अलग-अलग करने की बजाय ब्रिटिश शासन के नजदीक लाने की योजना अपनाई।
1858 के बाद भारत का शासन कम्पनी के हाथों से सीधा ब्रिटिश ताज के पास चला गया। अब अंग्रेजी सरकार ने नीति अपनाई कि भारतीय राजाओं के साथ अच्छे संबंध बनाए जाए ताकि वे आवश्यकता होने पर काम आ सके।
महारानी विक्टोरिया की घोषणा के माध्यम से विलय की नीति का त्याग किया गया एवं कहा गया कि ब्रिटिश सरकार भारतीय रियासतों का विलय नहीं करेगी। इसके अतिरिक्त देशी नरेशों को गोद लेने के अधिकार लौटा दिए गए।
अब अंग्रेजों की नीति यह थी कि कुशासन के लिए शासकोें को दंडित किया जाये या आवश्यकता पड़ने पर हटा भी दिया जाये, लेकिन राज्यों का विलय न किया जाये।
सन् 1876 में देशी रियासतों पर ब्रिटिश सर्वोच्चता को वैधानिक रूप दे दिया गया तथा लाॅर्ड लिटन ने महारानी विक्टोरिया को भारत की साम्राज्ञी घोषित कर दिया। ब्रिटिश सर्वोच्चता ने मुगल सर्वोच्चता का स्थान ग्रहण कर लिया तथा इस तरह से भारतीय रियासतें अंग्रेजों के अधीन हो गई।
इस काल में अधीनस्थता के साथ राजनैतिक एकीकरण की प्रवृत्ति उभर कर सामने आई। आधुनिक साधन, जैसे-रेलवे, डाक-तार, सड़कें, प्रेस तथा शिक्षा-व्यवस्था ने राजनीतिक एकीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
इस प्रकार, इस काल में ब्रिटिश सर्वोच्चता पूरी तरह स्थापित हो गई एवं भारतीय रियासतें ब्रिटिश शासकों के अधीन हो गई।
लेकिन देशी राजाओं ने सुव्यवस्थित शासन चलाने और जनकल्याण के स्थान पर विलासितापूर्ण पूर्ण जीवन अपनाया और जनता के साथ कठोर व्यवहार करने लगे।
19 वीं सदी के अंत में ब्रिटिश सरकार ने कुप्रशासन, कलह, विद्रोह, सती प्रथा, बाल हत्या जैसे मामलों के जरिए प्रत्यक्ष हस्तक्षेप शुरु कर दिया। जो कि धीरे-धीरे प्रत्यक्ष हस्तक्षेप की प्रथा के रूप में बदल गई।
ब्रिटिश रेजीडंेट पूरी तरह से हस्तक्षेप करने लगे। और राज्यों को बहुत से अधिकारों से वंचित कर दिया गया। जैसे कि-अब वह कुप्रशासन के आरोप में शासक को हटा सकती थी, शासक विदेशी उपाधि स्वीकार नहीं कर सकते थे, उत्तराधिकार कर, कान ूनों में सरकार का हस्तक्षेप, सिक्के चलाने का अधिकार छीन लेना आदि।
कर्जन के काल यह हस्तक्षेप चरम पर था।
जहाँ नरेशों को संरक्षण की गारंटी देकर अपना आज्ञाकारी बनाया वहीं दमनकारी शासकों के विरुद्ध जनता के कल्याण के पोषक के रूप में छवि बर्नाइ ।
लाॅर्ड मिण्टों के समय संबंधों में एक नया मोड़ देखने को मिला। उसने महसूस किया कि बंगाल विभाजन के बाद राष्ट्रवादी ताकतों का मुकाबला देशी नरेश ही कर सकते हैं अतः देशी नरेशों को पुनः अंगे्रजी सरकार के पक्ष में लाने की नीति अपनाई। और इस प्रकार से अहस्तक्षेप की एक नई नीति का आरंभ हुआ।
इस समय तक भारतीय राष्ट्रवाद परिपक्व हो चुका था तथा राष्ट्रीय भावनाओं को नियंत्रित करने के लिए अस्त्र के रूप में संवैधानिक सुधारों को लक्ष्य बनाया गया। इसी संदर्भ में 1935 ई0 का भारत शासन अधिनियम पारित हुआ। इस अधिनियम में भारतीय राज्यों का एक संघ बनाने की बात की गई, यद्यपि ऐसा नहीं हुआ और संघ अस्तित्व में नहीं आया।
क्रिप्स मिशन, वैवेल योजना, कैबिनेट मिशन आदि के माध्यम से संवैधानिक सुधारों की बात की गई। माउंटबेटन योजना में ब्रिटिश सर्वोच्चता के समाप्ति की बात की गई। अन्ततः 1947 ई0 में भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम पारित हुआ और भारत से ब्रिटिश सत्ता की समाप्ति हुई।
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