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मुगल शासन प्रणाली

मुगल कालीन प्रशासन

मुगल प्रशासन सैन्य शक्ति पर आधारित एक केन्द्रीकृत व्यवस्था थी जो ‘नियंत्रण एवं संतुलन’ पर आधारित थी।

केन्द्रीय प्रशासन

अकबर के शासन काल में 4 मंत्रिपद थे - वजीर (वकील), दीवान, मीर बख्शी एवं सद्र।

1. वजीर (वकील): यह साम्राज्य का प्रधानमंत्री होता था। इसे सैनिक एवं असैनिक दोनों मामलों में असीमित अधिकार प्राप्त थे।

2. दीवान: अकबर ने वजीर के एकाधिकार को समाप्त करने के लिए इस पद की स्थापना की। यह वित्त एवं राजस्व का सर्वोच्च अधिकारी होता था। सम्राट की अनुपस्थिति में वह शासन के साधारण कार्यों को देखता था।

मुगल काल में असद खां ने सर्वाधिक 31 वर्षों तक दीवान के पद पर कार्य किया।

दीवान की सहायता के लिए अधिकारी -

दीवान ए खालिसा - शाही भूमि की देखभाल करने वाला अधिकारी।

दीवान ए तन - वेतन एवं जागीरों की देखभाल करने वाला।

मुस्तौफी - आय व्यय का निरीक्षक

मुसरिफ -

3. मीर बख्शी: यह सैन्य विभाग का सर्वोच्च अधिकारी होता था। इसका कार्य सैनिकों की भर्ती, सैनिकों का हुलिया रखना, रसद प्रबंध, सेना में अनुशासन, सैनिकों के लिए हथियार, हाथी, घोड़े आदि का प्रबंधन एवं शाही महल की सुरक्षा। मनसबदारी व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाना।

मीर-ए-सांमा: अकबर ने इस पद की स्थापना की यह घरेलू मामलों का प्रधान होता था। यह सम्राट के परिवार, महल तथा उसकी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति करता था। इसके पास साम्राज्य के अंतर्गत आनेवाले कारखानों के प्रबंध का स्वतंत्र भार होता था।

4. सद्र-ए-कुल/सद्र-उस-सुदूर: यह धार्मिक मामलों में बादशाह का सलाहकार था। इसे शेख उल इस्लाम भी कहा जाता था।

मुगल काल में सर्वप्रथम सद्र शेखगदाई था।

मुगलकालीन महत्त्वपूर्ण उच्चाधिकारी

क़ाज़ी-उल-कुज्जात - यह प्रान्त, ज़िला एवं नगरों में क़ाज़ियों की नियुक्ति करता था। वैसे तो सम्राट न्याय का सर्वोच्च अधिकारी होता था और प्रत्येक बुधवार को अपनी कचहरी लगाता था, किन्तु समयाभाव और उसके राजधानी में न रहने पर सम्राट की जगह प्रधान क़ाज़ी कार्य करता था। प्रधान क़ाज़ी की सहायता के लिए प्रधान 'मुफ़्ती' होता था। मुफ़्ती अरबी न्यायशास्त्र के विद्वान् होते थे।

मुहतसिब - ‘शरियत’ के प्रतिकूल कार्य करने वालों को रोकना, आम जनता को दुश्चरित्रता से बचाना, सार्वजनिक सदाचार की देखभाल करना, शराब, भांग के उपयोग पर रोक लगाना, जुए के खेल को प्रतिबन्धत करना, मंदिरों को तुड़वाना (औरंगज़ेब के समय में) आदि इसके महत्त्वपूर्ण कार्य थे। इस पद की स्थापना औरंगज़ेब ने की थी।

मीर-ए-आतिश या दरोगा-ए-तोपखाना - यह शाही तोपखाने का प्रधान था यह मंत्रिपद नहीं होता था।इसकी सिफारिश पर महत्त्वपूर्ण नगरों में केन्द्र द्वारा कोतवाल की नियुक्ति होती थी।

साहिब-तौजीह- यह सैनिक लेखाधिकारी होता था।

दीवान-ए-तन – यह वेतन और जागीरों से संबंधित अधिकारी होता था।

दरोगा-ए-डाक चौकी – गुप्तचर विभाग होता था।

मीर-ए-अर्ज- यह बादशाह के पास भेजे जाने वाले आवेदन पत्रों का प्रभारी होता था।

मीर-ए-बहर – यह जल–सेना का प्रधान होता था। इसका प्रमुख कार्य शाही नौकाओं की देखभाल करना था।

मीर-ए-तोजक(मीर-ए-तुजुक) – यह धर्मानुष्ठान का अधिकारी होता था। इसका कार्य धार्मिक उत्सवों आदि का प्रबंध करना होता था।

मीर-ए-बर्र- यह वन-विभाग का अधीक्षक था।

नाजिर-ए-बयूतात – यह शाही कारखानों का अधीक्षक होता था।

वाकिया-नवीस – यह समाचार लेखक होता था। जो राज्य के सारे समाचारों से केन्द्र को अवगत कराता था।

खुफिया-नवीस – यह गुप्त पत्र-लेखक होते थे। जो गुप्त रूप से केन्द्र को महत्त्वपूर्ण खबरें उपलब्ध कराते थे।

परवानची – ऐसी आज्ञाओं को लिखने वाला, जिस पर सम्राट के मुहर की आवश्यकता नहीं पङती थी।

हरकारा – ये जासूस और संदेशवाहक दोनों होते थे।

स्वानिध-निगार – ये समाचार लेखक होते थे।

वितिक्ची – अकबर ने अपने शासन काल के 19वें वर्ष दरबार की सभी घटनाओं एवं खबरों को लिखने के लिए इनकी नियुक्ति की। इसके अतिरिक्त यह प्रांतों की भूमि एवं लगान संबंधी कागजात तैयार करता था। यह अमलगुजार के अधीन कार्य करता था।

मुशरिफ- यह राज्य द्वारा तैयार आय- व्यय के लेखा-जोखा की जांच करता था।

मुस्तौफी( लेखा परीक्षक) – यह मुशरिफ द्वारा तैयार आय-व्यय के लेखा- जोखा की जांच करता था।

अमिल - अकबर ने अपने शासन के 18वें वर्ष गुजरात,बिहार एवं बंगाल को छोड़कर संपूर्ण उत्तर भारत में एक करोड़ दाम आय वाले परगनों की मालगुजारी वसूलने के लिए नियुक्त किया, जिसे जनसाधारण में करोड़ी कहा जाता था।

मुसद्दी - यह बंदरगाहों के प्रशासन की देखभाल करता था।

प्रांतीय प्रशासन

प्रशासन विभाजन प्रमुख/सर्वोच्च अधिकारी
सूबे/प्रांत मुगल साम्राज्य सूबों में बंटा हुआ था। सिपहसालार या सुबेदार
सरकार/जिले सूबा जिलों में विभाजित था। फौजदार
परगना/महाल सरकार परगनों में विभाजित था शिकदार
गांव/ग्राम परगना, गांवों से मिलकर बनता था मुकद्दम, चौधरी या खुत

1. सूबे/प्रांत का प्रशासन

अकबर ने अपने संपूर्ण साम्राज्य को 12 सूबों में विभाजित किया था। अंतिम समय में दक्षिण भारत के बरार, खानदेश एवं अहमदनगर को जीत कर सूबों में शामिल कर दिया अतः कुल सूबों की संख्या 15 हो गयी।

शाहजहां ने कश्मीर, थट्टा और ओडीसा को स्वतंत्र सूबा बना दिया अतः शाहजहां के काल में सूबों की संख्या 18 हो गयी।

औरंगजेब के बीजापुर एवं गोलकुण्डा को जीतकर साम्राज्य में मिलाने पर सूबों की संख्या 20 हो गयी थी।

सूबे के अधिकारी

1. सिपहसालार/सूबेदार/गवर्नर: यह सूबे का प्रमुख अधिकारी होता था। इसे सूबे के सम्पूर्ण सैनिक एवं असैनिक अधिकार प्राप्त थे। मुगल काल में सुबेदारों को किसी भी राज्य से संधियां तथा सरदारों को मनसब प्रदान करने का अधिकार नहीं था।

अपवाद

गुजरात के सूबेदार टोडरमल को राजपूतों से संधियां एवं मनसब प्रदान करने का अधिकार दिया गया था।

2. प्रांतीय दीवान: इस पद का सृजन अकबर ने सूबेदारों की शक्ति को नियंत्रित करने के लिए किया था। यह सूबे का वित्त अधिकारी एवं राजस्व प्रमुख था जबकि सूबेदार कार्यकारिणी प्रमुख था। दीवान का कार्य भू-राजस्व व अन्य करों की वसूली करना, आय-व्यय का हिसाब रखना, सूबे की आर्थिक स्थिति की सूचना केन्द्रीय सरकार को देना था। सूबेदार व दीवान एक दूसरे पर नियंत्रण रखते थे।

3. बख्शी: बख्शी की नियुक्ति केन्द्रीय मीर बख्शी के अनुरोध पर शाही दरबार द्वारा की जाती थी। बख्शी का मुख्य कार्य सूबे की सेना की देखभाल करना था।

मीरबख्शी एवं बख्शी में अंतर - प्रांतीय बख्शी सेना को वेतन वितरण का कार्य भी करता था जबकि मीर बख्शी सेना का वेतनाधिकारी नहीं होता था। केन्द्र में वेतन वितरण का कार्य दीवान-ए-तन करता था।

4. प्रांतीय सद्र/मीर-ए-अदल: सद्र की दृष्टि से यह प्रजा के नैतिक चरित्र एवं इस्लाम धर्म के कानूनों के पालन की व्यवस्था करता था। एवं काजी की दृष्टि से न्याय करता था।

5. कोतवाल: सूबे की राजधानी तथा बड़े-बड़े नगरों में कानून एवं व्यवस्था की देखभाल करता था।

सरकार (जिले) का प्रशासन

मुगल काल में सरकार (जिले) में फौजदार, आमिल, कोतवाल एवं काजी इत्यादि महत्वपूर्ण अधिकारी होते थे।

1. फौजदार: यह जिले का मुख्य प्रशासक होता था। इसका कार्य जिले में कानून व्यवस्था बनाए रखना तथ चोर-लुटेरों से जनता की रक्षा करना था। शेरशाह के समय यह मुंशिफ-ए-मुंशिफान कहलाता था। कालान्तर में फौजदार को न्यायिक अधिकार भी दिए गए तथा बाद में यह पद वंशानुगत हो गया।

2. आमिल/अमलगुजार: यह जिले का वित्त अधिकारी होता था इसका कार्य लगान वसूल करना तथा कृषि व किसानों की देखभाल करना था।

3. वितिक्ची: यह लिपिक (क्लर्क) होता था जो भूमि व राजस्व संबंधी कागज तैयार करता था।

4. कोतवाल: नगर में शांति एवं सुरक्षा स्थापित करना। स्वच्छता व सफाई कार्य एवं न्यायिक कार्य भी करता था।

5. खजानदार: यह जिले का खजांची होता था।

6. काजी-ए-सरकार: यह न्यायिक कार्य करता था। औरंगजेब काल में जजिया एवं जकात करों की वसूली भी करता था।

परगना एवं ग्राम प्रशासन

1. शिकदार: परगने का प्रमुख अधिकारी। मुख्य कार्य परगने में शांति स्थापित करना।

2. आमिल: परगने का वित्त अधिकारी। कार्य किसानों से लगान वसूल करना।

3. कानूनगो: परगने के पटवारियों का प्रधान।

ग्राम प्रशासन

मुगल शासक गांव को एक स्वायत्त संस्था मानते थे जिसके प्रशासन का उत्तरदायित्व मुगलों के अधिकारियों को नहीं दिया जाता था। खुद ग्राम पंचायतें ही अपने गांव की सुरक्षा-सफाई एवं शिक्षा की देखभाल करती थी।

मुकद्दम/चौधरी: यह गांव का ग्राम प्रधान होता था।

खिअलत(खिल्लत)

यह एक सम्मान पोशाक थी जिसे बादशाह विशेष अवसरों पर पहनता था। अकबर ने अपने दूत भगवंतदास के साथ महाराणा प्रताप के लिए खिलअ्त पोशाक भेजी थी जिसे महाराणा प्रताप ने अकबर के सम्मान में पहना भी था।

मुगलकालीन सिक्के

बाबर ने काबुल में चांदी का शाहरूख तथा कन्धार में बाबरी नाम का सिक्का चलाया।

शेरशाह ने शुद्ध चांदी का सिक्का रूपया एवं तांबे का सिक्का पैसा चलाया।

अकबर ने सोने का सबसे बड़ा सिक्का शंसब चलाया एक अन्य सोने का सिक्का इलाही चलाया यह गोलाकार था। अकबर ने चांदी का एक वर्गाकार सिक्का जलाली चलाया एवं तांबे का सिक्का दाम चलाया।

अकबर ने अपने कुछ सिक्कों पर राम और सीता की मूर्ति का अंकन करवाया।

तांबे का सबसे छोटा सिक्का जीतल था।

जहांगीर ने निसार नामक सिक्का चलाया।

शाहजहां ने आना नामक सिक्का चलाया।

मुगलकाल में सर्वाधिक रूपये की ढलाई औरंगजेब के काल में हुई।

मुगलकाल में टकसाल के अधिकारी को दरोगा-ए-दारूल जर्ब कहा जाता था।

सिक्कों पर अपनी आकृति खुदवाने की शुरूआत जहांगीर ने की।

मनसबदारी व्यवस्था

मनसबदारी व्यवस्था सरकारी सोपान व्यवस्था से सम्बद्ध थी। सभी मुगल अधिकारी, चाहे वो सैन्य सेवा से सम्बद्ध हो या असैन्य सेवा से, एक ही सोपानक्रम में संयोजित कर दिए गए थे। मनसब से ओहदा एवं वेतन निर्धारित होता था। मनसबदारी व्यवस्था अकबर ने लागू की थी। मनसबदारी व्यवस्था मंगोलों की दशमलव पद्धति पर आधारित थी।

अकबर ने अपने अंतिम वर्षों में मनसबदारी व्यवस्था में जात एवं सवार नामक द्वैध मनसब प्रथा को प्रारंभ किया।

जात एवं सवार

जात का अर्थ है व्यक्तिगत पद या ओहदा और सवार का अर्थ घुड़सवारों की उस निश्चित संख्या से है जिसे किसी मनसबदार को अपने अधिकार में रखने का अधिकार होता था। इस तरह मनसब शब्द केवल सैनिक व्यवस्था का ही शब्द नहीं अपितु इसका अर्थ है वह पद जिसपर सैनिक और गैर-सैनिक अधिकारी को नियुक्त किया जाता या रखा जाता था। दूसरे शब्दों में, मनसब पद प्रतिष्ठा अथवा अधिकार प्राप्त करने की स्थिति थी। इससे व्यक्ति का पद, स्थान और वेतन निर्धारित होता था।

मनसबदारों को वेतन जागीर के रूप में या नकद दिया जाता था। परन्तु केवल राजस्व प्राप्ति का अधिकार था। प्रशासनिक अधिकार नहीं था। मृत्यु या पदच्युति के बाद जागीर वापस करनी होती थी।

मनसबदारी में परिवर्तन

जहांगीर ने मनसबदारी व्यवस्था में दुअस्पा एवं सीहअस्पा दर्जे को लागू किया।

शाहजहां ने मनसबदारी में मासिक व्यवस्था प्रारंभ की इसके अंतर्गत मनसबदारों के वेतन, जागीर से होने वाली निर्धारित आय के स्थान पर जागीर पर होने वाली वास्तविक आय के अनुसार बारह के माप-दण्ड पर निर्धारित किए गए।

औरंगजेब काल में मशरूत व्यवस्था (सवार संख्या में अतिरिक्त वृद्धि करना) शुरू की। ऐसा मनसबदार को किसी महत्वपूर्ण पद या अभियान हेतु नियुक्त करते समय होता था।

मनसबदारी व्यवस्था में मराठों की नियुक्त शाहजहां ने अहमदनगर अभियान से प्रारंभ हुई।

सबसे अधिक मराठा मनसबदार औरंगजेब के समय थे।

निम्न-अस्पा: दौ सैनिकों के पास एक घोड़ा होता था।

यक्-अस्पा: वे सैनिक जिनके पास केवल एक घोड़ा होता था।

दु-अस्पा: वह घुड़सवार जिनके पास दो घोड़े होते थे।

सिंह-अस्पा: वह घुड़सवार जिनके पास तीन घोड़े होते थे।

मुगलकालीन राजस्व प्रणाली

मुगलकाल में भू-राजस्व फसल उत्पादन पर लिया जाता था।

इसकाल में भू-राजस्व के लिए माल-ए-वाजिव शब्द का प्रयोग किया जाता था।

आइन-ए-दहशाला

इस प्रणाली का वास्तविक प्रणेता टोडरमल था। मंसूर ने सहायता की। इसके अंतर्गत अलग-अलग फसलों के विगत 10 वर्ष के उत्पादन और उसी समय के प्रचलित मूल्यों का औसत निकाल कर उस औसत का 1/3 हिस्सा राजस्व के रूप में वसूला जाता था ये नकद रूप में होता था। इस प्रणाली में 1/10 भाग प्रत्येक वर्ष वसूला जाना था। जिसे माल-ए-हरसाला कहा जाता था।

प्रारंभ में दहशाला प्रणाली सम्पूर्ण राज्य में लागू नहीं की गयी थी बल्कि केवल उन्ही क्षेत्रों में प्रचलित थी जिन क्षेत्रों में जाब्ती प्रणाली प्रचलित थी।

आइन-ए-दहसाला प्रणाली को दक्षिण भारत में शाहजहां के शासन काल में मुर्शिद कुली खां ने लागू की।

दहसाला की विशेषताएं

भूमि की माप अनिवार्य एवं उत्पादन का आकलन अनिवार्य

दस्तूर के आधार पर राजस्व निर्धारण

राजस्व की वसूली नकदी में होती थी।

दहसाला के लाभ

भूमि माप की जांच संभव

अधिकारियों की मनमानी समाप्त

राजस्व की मांग में उतार-चढ़ाव की कमी

दहसाला पद्धति की सीमाएं

उत्पादकता की अनिश्चितता का दण्ड केवल किसान को भुगतना पड़ता था।

यह एक महंगी प्रणाली थी। इसमें माप करने वाले के लिए प्रतिबीघा एक दाम की दर से जडीवाना दिया जाता था।

कनकूत/नस्क/दानाबंदी

औरंगजेब ने नस्क पद्धति अपनायी। इस पद्धति में अनाज की उत्पादकता का आकलन किया जाता था। इसमें पूरे गांव के आधार पर कर निर्धारण होता था यह पिछले कर निर्धारण पर लगाया गया एक अनुमान था। कनकूत प्रथा के अनुसार लगान का निर्धारण भूमि की उपज के अनुमान के आधार पर किया जाता था।

नोट - मुगलकाल में राजस्व की इजारा प्रथा को नहीं अपनाया गया परन्तु अपवाद स्वरूप किसी-किसी स्थान पर प्रचलित थी।

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