अंग्रेजों से पूर्व भारतीय अर्थव्यवस्था की प्रकृति ग्रामीण थी तथा देश की 90 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या गांवों में रहती थी। यहां कृषि एवं दस्तकारी के कार्यों की प्रमुखता थी तथा गांव आत्मनिर्भर थे। व्यवसाय वंशानुगत था। यहां का प्रमुख व्यवसाय कृषि था, लेकिन उद्योग के क्षेत्र में भी यह उन्नत था। भारत के रेशमी व सूती वस्त्र विश्व में उत्तम क्वालिटी के माने जाते थे। यहां संगमरमर का कार्य, लकड़ी पर नक्काशी का कार्य, सोने चांदी के आभूषण व पत्थर पर तराशी का कार्य बहुत ही उत्तम किस्म का होता था। अतः इनका निर्यात किया जाता थ। निर्यात की वस्तुओं में नील, मसाले व अफीम भी शामिल थी।
रजनीपाम दत्त (आर. पी. दत्त) ने भारत में साम्राज्यवादी काल को तीन भागों में बांटा है -
1. वाणिज्यिक चरण: 1757 से 1813 ई. तक
2. स्वतंत्र व्यापारिक पूंजीवाद चरण: 1813 से 1857 ई. तक
3. वित्तीय पूंजीवाद का चरण: 1858 से 1947 ई. तक
इस काल में ब्रिटिश कंपनी का मूल उद्देश्य अधिकारिक धन प्राप्त करना था।
कुछ अन्य उद्देश्य राजनैतिक शक्ति में वृद्धि एवं व्यापार पर एकाधिकार था।
उद्देश्य प्राप्ति के लिए कंपनी द्वारा अपनाऐ जाने वाले तरीके -
1. व्यापार पर एकाधिकार एवं प्रतिद्वन्द्वी समाप्त करना।
2. वस्तुएं कम मुल्य पर खरीदी एवं अधिकाधिक मूल्य पर बेची जाएं।
3. देश पर राजनैतिक नियंत्रण स्थापित करना।
के. एम. पन्निकर ने 1765 से 1772 ई. के काल को डाकू राज्य कहा है।
गृह व्यय वह व्यय था जो भारत राज्य सचिव तथा उससे सम्बद्ध व्यय था। गृह व्यय में शामिल तत्व -
1813 ई. में भारत के व्यापार पर से कंपनी का एकाधिकार समाप्त हो गया लेकिन चीन के साथ व्यापार एवं चाय के व्यापार पर एकाधिकार बना रहा यह 1833 में समाप्त हुआ।
इस काल में कंपनी का मुख्य लक्ष्य भारत को ब्रिटेन के एक अधीनस्थ बाजार के रूप में विकसित करना था।
भारत को ऐसे उपनिवेश के रूप में परिवर्तित करना जहां से ब्रिटेन को कच्चा माल प्राप्त होता रहे।
उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए कंपनी ने भारत में कृषि के वाणिज्यीकरण को बढ़ावा, शिल्प उद्योगों का विनाश, भू-राजस्वप्रणालियां लागू करना इत्यादि तरीके अपनाएं।
इस काल में ब्रिटिश सरकार का मुख्य लक्ष्य ब्रिटिश व्यापारियों द्वारा जमा पूंजी के लिए भारत को निवेश स्थल के रूप में तैयार करना।
1772 ई. में केन्द्रीय खजाना मुर्शिदाबाद से कलकत्ता लाया गया।
1772 ई. में पंचसाला बन्दोबस्त शुरू हुआ।
1777 ई. में सालाना बन्दोबस्त शुरू हुआ।
1786 ई. रिवेन्यु बोर्ड की स्थापना की गयी।
अन्य नाम: इस्तमरारी, मालगुजारी, बिसवेदारी, जागीरदारी
प्रणेता: जाॅन शोर
लागू: 1793 ई. में लार्ड कार्नवालिस ने। सर्वप्रथम - बंगाल में लागू
शामिल क्षेत्र: ब्रिटिश भारत के कुल क्षेत्रफल का 19 प्रतिशत भू-भाग।
विस्तार: बंगाल, बिहार, उड़ीसा, बनारस, उत्तरी कर्नाटक
प्रावधान:
भू राजस्व सदैव के लिए निर्धारित किया।
जमींदारों को भूमि का स्वामी मान लिया गया।
भू-स्वामित्व परंपरागत हो गया।
लगान का 10/11 भाग सरकार का एवं 1/11 भाग जमींदारों का निश्चित हुआ।
सूर्यास्त कानून (1794 ई.) इस कानून के अनुसार, जमींदारों को लगान की राशि जमा करने के लिए एक दिन निश्चित किया जाता था एवं उस दिन सूर्यास्त से पहले लगान जमा करवाना होता था अन्यथा उनकी जागीर नीलाम कर दी जाती थी।
जन्मदाता: थाॅमस मुनरो तथा कैप्टन रीड
लागू: 1792 ई. में यह व्यवस्था सर्वप्रथम बारामहल जिले(तमिलनाडु) में कैप्टन रीड ने लागू की। 1802 में मद्रास, 1825 ई. में बम्बई में लागू की गयी।
विस्तार: बारामहल, मद्रास, बम्बई, पूर्वी बंगाल, असम एवं कुर्ग। ब्रिटिश भारत के 51 प्रतिशत भू भाग पर लागू।
ब्रिटिश भारत के सर्वाधिक भू-भाग पर लागू की गयी व्यवस्था।
प्रत्येक पंजीकृत भूमिदार को भूमि का स्वामी माना गया।
रैय्यत/किसान/भूमिदार को अपनी भूमि को बेचने तथा गिरवी रखने का अधिकार दिया गया।
भूमि कर का निर्धारण भूमि के सर्वेक्षण करने के बाद किया जाता था।
सरकार द्वारा रैय्यतों को पट्टे प्रदान किया जाता था।
लगान की अदायगी न होने पर भूमि जब्त कर ली जाती थी।
भूमि कर की समीक्षा 30 वर्ष की जाती थी।
इस पद्धति में भू-राजस्व लगभग 50 प्रतिशत था।
महाल: महाल/महल, गांव या जागीरों को कहा जाता था।
जन्मदाता: हाल्ट मैकेन्जी ने 1819 ई. में विकसित की।
इस व्यवस्था में भूमि कर का बन्दोबस्त पूरे महाल/गांव/जागीर के प्रधान या जागीरदारों के साथ किया गया।
यह व्यवस्था ब्रिटिश भारत के लगभग 30 प्रतिशत भू-भाग पर की गयी।
इस व्यवस्था में भूमि पूरे गांव की मानी जाती थी परन्तु भूमि का स्वामित्व किसान के पास होता था।(जब तक लगान समय पर चुकाता था)
कृषक अपनी भूमि बेच सकता था। लगान निश्चित समय पर न चुकाने की स्थिति में महल प्रमुख द्वारा उसे भूमि से बेदखल भी किया जा सकता था।
इस राजस्व व्यवस्था में लगान निर्धारित करने के लिए मानचित्रों का प्रयोग किया गया।
इस व्यवस्था के अंतर्गत उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और पंजाब प्रांत शामिल थे।
इस व्यवस्था द्वारा कृषक एवं अंग्रेजों के मध्य सीधा सम्पर्क समाप्त हो गया।
पंजाब की ग्राम प्रथा: पंजाब में संशोधित महालवाडी प्रथा लागू की गयी जो ग्राम प्रथा के नाम से जानी गयी।
भारत के धन का अविरल प्रवाह इंग्लैण्ड की ओर था परन्तु भारत को कोई लाभ नहीं था। यह अप्रतिफलित निर्गमन था।
निष्कासन के तत्व
1. गृह व्यय
2. विदेशी पूंजी पर दिया जाने वाला ब्याज
3. विदेशी बैंक, इंश्योरेंस, नौवहन कंपनियां
धन के निष्कासन की प्रक्रिया प्लासी के युद्ध के पश्चात् शुरू हुई।
धन निष्कासन सिद्धांत का वर्णन सर्वप्रथम दादा भाई नौरोजी ने अपनी पुस्तक ‘पावर्टी एण्ड अनब्रिटिश रूल इन इण्डिया’ में किया।
दादा भाई नौराजी ने 1867 ई. में लंदन में हुई ईस्ट इण्डिया एशोसिएशन की बैठक में अपने लेख ‘इंग्लैण्ड डेट टू इण्डिया’ में यह विचार प्रस्तुत किया कि ‘ब्रिटेन भारत में अपने शासन की कीमत के रूप में भारत की सम्पदा का दोहन’ कर रहा है।
दादा भाई नौरोजी ने धन की बहिर्गमन को ‘अनिष्टों का अनिष्ट’ कहा।
रमेश चन्द्र दत्त ने भी अपनी पुस्तक ‘इकाॅनिमिक हिस्ट्री आॅफ इण्डिया’ में धन के बहिर्गमन का उल्लेख किया।
‘कार्ल माक्र्स’ ने भारत में ब्रिटिश आर्थिक नीति की चर्चा करते हुए ब्रिटिश आर्थिक नीति को घिनौनी कहा था।
कार्ल माक्र्स ने इसे Bleeding Process कहा।
दादा भाई नौरोजी ने धन के निष्कासन को देश के सभी रोगों, दुखों और दरिद्रता का वास्तविक एवं मूल कारण घोषित किया।
1896 ई. में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में नौरोजी के सिद्धांत को स्वीकार कर लिया गया।
धन निकासी का विरोध करने वाले समाचार पत्रों में ‘अमृत बाजार पत्रिका’ प्रमुख थी।
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