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राठौड़ वंश

राजस्थान का पश्चिमोत्तर भाग प्राचीन काल में मरु प्रदेश कहलाता था जो कालान्तर में मारवाड़ कहलाया। यहाँ प्रारंभ में गुर्जर प्रतिहार वंश तत्पश्चात् राठौड़ वंश का शासन हुआ जो राजस्थान के निर्माण तक रहा। ‘राठौड़’ शब्द संस्कृत के राष्ट्रकूट से बना है। राष्ट्रकूट का प्राकृत रूप ‘रट्टऊड’ है जिससे ‘राडउड' या 'राठौड़’ बनता है।

राठौड़ों की उत्पत्ति

राज रत्नाकर के अनुसार राठौड़ हिरण्यकश्यप की सन्तान थे। जोधपुर राज्य की ख्यात में इन्हें राजा विश्वुतमान के पुत्र राजा वृहदबल की सन्तान बताया है। दयालदास री ख्यात में इन्हें सूर्यवंशी बताया है और इन्हें ब्राह्मण वंश में होने वाले भल्लराव की सन्तान माना है। राठौड़ वंश-महाकाव्य में राठौड़ों की उत्पति शिव के शीश पर स्थित चंद्रमा से बतायी गई है। कर्नल टॉड इन्हें सूर्यवंशी कुल से मानते हैं। राजस्थान के राठौड़ों में हस्तिकुण्ड के राठौड़, धनोप के राठौड़, वागड़ के राठौड़ तथा जोधपुर और बीकानेर के राठौड़ विख्यात हैं। हस्तिकुण्ड, धनोप एवं बागड़ के राठौड़, दक्षिण के राठौड़ों के ही वंशज हो सकते हैं। जोधपुर के राठौड़ों की शाखा को लेकर दो मत प्रचलित हैं-

1. नैणसी के अनुसार मुहम्मद गौरी ने 1194 ई. में चन्दावर के युद्ध में कन्नौज के जयचन्द गहड़वाल को समाप्त कर दिया तब कुछ वर्षों बाद जयचन्द के पौत्र सीहा ने पाली के आसपास 13वीं सदी में मारवाड़ के राठौड़ वंश की स्थापना की। इस मत का समर्थन ‘जोधपुर राज्य की ख्यात’, ‘पृथ्वीराज रासो’, ‘कर्नल टॉड’ एवं ‘दयालदास री ख्यात’ करते हैं।

2. दूसरे मत के अनुसार जोधपुर के राठौड़ बदायूं की शाखा से थे, न कि कन्नौज की शाखा से। यह मत सबसे पहले डाक्टर हॉर्नली ने प्रतिपादित किया जिसका समर्थन डॉ. ओझा ने किया है। गौरीशंकर हीराचन्द ओझा के अनुसार कन्नौज के गहड़वाल एक अलग जाति है जो सूर्यवंशीय है और बदायूं के राठौड़ इसके विपरीत चन्द्रवंशीय है।

संभवतः राजपूताना के वर्तमान राठौड़ बदायूं के राठौड़ों के वंशधर हैं।

जब कन्नौज में गहड़वाल शासन करते थे तो राष्ट्रकूटों की एक शाखा बदायूँ में राज्य करती थी। इस राज्य का प्रवर्तक चन्द्र था।

गहड़वाली और बदायूँनी दोनों राठौड़ वंशीय होते तो इनका परस्पर विवाह संबंध नहीं हो सकता था।

कैप्टन लुअर्ड, डॉ. रामशंकर त्रिपाठी और हेमचन्द्र राय ने गहड़वालों और राठौड़ों के वंशों को भिन्न बताया है।

जोधपुर का राठौड़ वंश

मारवाड़ के राठौड़ वंश की स्थापना 1240ई. में राव सीहा के द्वारा की गई। बीठू गांव (पाली) के ‘देवल अभिलेख’ के अनुसार राव सीहा कुंवर सेतराम का पुत्र था और उसकी सोलंकी वंश की पार्वती नामक रानी थी। राव सीहा की मृत्यु 1273 ई. में तब हुई जब वह मुसलमानों के विरुद्ध पाली प्रदेश की रक्षा कर रहा था। इस इस युद्ध को लाख झंवर या लाखा झंवर के नाम से भी जाना जाता है। उसने पाली के आसपास राठौड़ वंश की स्थापना की। राव आसथान ( 1273-91 ई.) ने जलालुद्दीन खिलजी को पाली से भगाने के लिए युद्ध किया जिसमें इनकी मृत्यु हो गई। राव धूहड़ (1291-1309 ई.) के द्वारा नागणेची माता (रााठौड़ों की कुलदेवी) की मूर्ति नागाणा गांव (बालोतरा जिले में पचपदरा) में स्थापित करवाई गइ। इस वंश का प्रथम वास्तविक शासक चूड़ा था। जिसकी राजधानी मण्डोर थी।

राव चूँडा (1395-1423 ई.)

यह राव सीहा के वंशज वीरमदेव का पुत्र था। राव चूँडा बड़ा प्रतापी शासक हुआ। इंदा परिहार ने मण्डौर यवन-मुसलमानों से छीनकर राव चूँडा को दहेज में दे दिया और यह शर्त रखी कि उनके 84 गांव में राठौड़ हस्तक्षेप नहीं करेंगे। एक प्रकार से राव चूड़ा को अपना सामंत बनाया। इस प्रकार मारवाड़ में सामंत प्रथा का संस्थापक राव चूड़ा को मना जाता है। राव चूँडा ने मण्डौर को राठौड़ों की राजधानी बनाया। उसने अपने राज्य का विस्तार नाड़ौल, डीड़वाना, नागौर आदि क्षेत्रों तक कर लिया।

चूड़ा की पत्नी चांदकवर ने चाँद बावड़ी का निर्माण करवाया था। राव चूड़ा ने अपनी पुत्री हंसाबाई का विवाह मेवाड़ के शासक राणा लाखा के साथ किया। राव चूड़ा ने अपनी रानी किशोरी देवी (चौहान शासक राव मेघराज की पुत्री) के पुत्र कान्हा को उत्तराधिकारी घोषित कर दिया।

किन्तु किशोरी देवी के पुत्र कान्हा ने मात्र 11 माह का राज्य किया और मृत्यु को प्राप्त हो गया। उसके बाद चूड़ा के 14 पुत्रों में से एक सत्ता जी शासक बना, जो अन्धा था। कुछ समय उपरान्त चूड़ा के अन्य पुत्रों ने अपने ज्येष्ठ भाई रणमल को शासक घोषित कर दिया।

राव रणमल (1427-1438 ई.)

चूँडा का ज्येष्ठ पुत्र होते हुए भी रणमल को कान्हा के पक्ष में अपना राज्याधिकार छोड़ना पड़ा था। परन्तु वह स्वभाव से महत्त्वाकांक्षी था। उसने अपनी बहन हंसाबाई का विवाह राणा लाखा से इस शर्त पर किया कि उससे उत्पन्न पुत्र ही मेवाड़ का उत्तराधिकारी होगा। कुछ समय बाद जब उसने अपनी बहन हंसाबाई का विवाह लाखा के साथ कर दिया तो उसके मेवाड़ की राजनीति में प्रभाव बढ़ने के आसार बन गये। 1421 ई. में लाखा की मृत्यु हो गयी और उसका पुत्र मोकल मेवाड़ की गद्दी पर बैठा। उसके अल्पवयस्क होने से मेवाड़ के राज्य का सारा प्रबन्ध मोकल का ज्येष्ठ भ्राता चूँडा देखता था।

कुछ समय पश्चात् रणमल ने मेवाड़ की सेना लेकर मण्डौर पर आक्रमण किया और सन् 1426 में उसे अपने अधिकार में ले लिया। महाराणा लाखा के बाद उनके पुत्र मोकल तथा उनके बाद महाराणा कुंभा के अल्पवयस्क काल तक मेवाड़ के शासन की देखरेख रणमल के हाथों में ही रही। अधिकार के आवेश में राघवदेव जैसे योग्य व्यक्ति की हत्या करवाकर रणमल ने अपने पराभव को निकट बुला लिया। इसी समय से रणमल के विरुद्ध भी षड़यंत्र रचा गया, जिसके फलस्वरूप 1438 ई. में उसकी हत्या कर दी गयी।

राव जोधा (1438-1489 ई.)

यह राव रणमल का पुत्र था। 1438 ई. में जब चित्तौड़ में रणमल की हत्या हुई तो उसका पुत्र जोधा अपने साथियों के साथ मारवाड़ की ओर भागा। वह मारवाड़ के किनारे वाले गाँव काहुँनी (बीकानेर) में जा पहुँचा। शासन संभालते ही जोधा को मेवाड़ के आक्रमण का सामना करना पड़ा। राघव देव के भाई चूड़ा द्वारा उस पर आक्रमण किया गया। 1453 ई. में उसने मण्डौर पर धावा बोल दिया जिसमें उसकी विजय हुई। राव जोधा ने मेवाड़ से संधि (आवल-बावल की संधि) हेतु अपनी पुत्री श्रृंगार देवी का विवाह महाराणा कुंभा के पुत्र रायमल से कर दिया।

जोधा ने अपने राज्य का विस्तार किया और अपने संबंधियों को वहां पर सामंत नियुक्त किया। इसलिए राव जोधा को मारवाड़ में सामंत प्रथा का वास्तविक संस्थापक कहा जाता हैनैणसी, बांकीदास, दयालदास के अनुसार अपने राज्य की शक्ति संगठित करने के लिए राव जोधा ने अपने वृहत् राज्य की नयी राजधानी जोधपुर (सूर्य नगरी व नीली नगरी) में 1459 ई. में स्थापित की। राजधानी को सुरक्षित रखने के लिए चिड़िया टूक पहाड़ी पर नया दुर्ग भी बनवाया गया जिसे मेहरानगढ़ कहा गया। लगभग 50 वर्ष के लम्बे शासन के अनुभव के बाद जोधा की मृत्यु 1489 इ. में हुई। डॉ. ओझा राव जोधा को ही जोधपुर का पहला प्रतापी राजा कहते हैं।

राव जोधा ने रानी जसमादे हाड़ी के प्रभाव में आकर राव सातलदेव को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। रानी जसमादे हाड़ी ने जोधपुर में रानीसर तालाब का निर्माण करवाया। राव जोधा की माता कोड़मदे द्वारा कोड़मदेसर बावड़ी (बीकानेर) का निर्माण करवाया गया।

राव जोधा के ज्येष्ठ पुत्र कुँवर नींबा का देहांत अपने पिता की जीवित अवस्था में ही हो गया।

राव सातल (1489-1492 ई.)

जोधा के बाद दो उत्तराधिकारी राव सातल (1489-1492 ई.) तथा राव सूजा (1492-1515 ई.) हुए, जिन्होंने अपने राठौड़ राज्य को विस्तारित करने का प्रयत्न किया। राव सातल ने अपने नाम से सातलमेर को बसाकर ख्याति अर्जित की। 1490 ई. में अजमेर के हाकिम मल्लूखाँ ने राव सातल के भाई वरसिंह को अजमेर आमन्त्रित किया और वहाँ छल से उसे बन्दी बना लिया। जब इस बात की सूचना राव सातल को मिली तो उन्होंने अजमेर पर आक्रमण कर दिया। इस अभियान में राव सातलदेव के साथ राव बीका भी थे। जिससे भयभित होकर मल्लूखाँ ने वीरसिंह को छोड़ दिया। मल्लू खां ने इस अपमान का बदला लेने के लिए मारवाड़ के विरूद्ध सैन्य अभियान चलाया। राव सातल ने शीघ्र ही शत्रु का मुकाबला पीपाड़ क पास जाकर किया। जिसमें मल्लूखा को मैदान छोड़कर भागना पड़ा। ख्यातों में वर्णन मिलता है कि लगभग 140 सुहागिन स्त्रियां पीपाड़ में गौरी (गणगौर) पूजा कर रही थीं। मल्लू खां का सेनापती सूबेदार मीर घडूला उन्हें पकड़कर कोसाना की तरफ रवाना हुआ। राव सातल ने वरसिंह, दूदा, सूजा आदि के साथ मिलकर कोसाणे पहुँचकर रात्रि में मुसलमानी सेना पर आक्रमण कर दिया, सातल देव ने घूड़ला को मार दिया व कन्याओं को मुक्त करवाया। इसी विजय के उपलक्ष में जोधपुर में घुड़ला त्यौहार मनाया जाता है। जो चैत्र कृष्ण अष्टमी से प्रारम्भ होता है। चैत्र सुदी तृतीया तक चलता है, इसमें छिद्रित मटके में जलता हुआ दीपक रखकर स्त्रीयां नगर में घूमती है व चैत्र सूदी तृतीया को घड़ा नष्ट कर दिया जाता है।

इस युद्ध में राव सातल बहुत अधिक घायल हुआ13 मार्च, 1492 ई. में उसकी मृत्यु हो गयी। उस दिन चैत्र शुक्ल तृतीया की तिथि थी। पहले मारवाड़ में इस दिन गौरी व ईश्वर (ईसर) दोनों की पूजा की जाती थी, परन्तु राव सातल का देहांत होने के बाद इस दिन केवल गौरी की पूजा ही की जाने लगी।

राव सूजा (1492-1515 ई.)

अपने ज्येष्ठ भाई की मृत्यु के उपरान्त राव सूजा मारवाड़ का स्वामी बना। राव जोधा ने अपने पुत्र व बीकानेर के संस्थापक राव बीका से कहा कि तुम कभी जोधपुर पर अधिकार मत करना, तब राव बीका ने राव जोधा से उनकी तलवार आदि कुछ वस्तुएं लेने की प्रार्थना की थी। जोधा ने बीका को वचन दिया था कि मेरा तख्त, छत्र, राजचिह्न, ढाल, तलवार आदि तुझे मिलेगी। परन्तु ये चीजें बीका के पास नहीं पहुंची थी, सूजा के राजगद्दी पर बैठने के बाद बीका ने पडिहार बेला को ये पूजनीय चीजें लाने भेजा लेकिन सूजा ने मना कर दिया। इस पर बीका ने जोधपुर पर आक्रमण कर दिया और बीका ने जोधपुर को घेर लिया। सूजा की माता जसमा दे की मध्यस्ता से संधि हुई और बीका पूजनीय चीजें लेकर वापस चला गया। इन पूजनीय चीजों में जोधा की ढाल तलवार, तख्त, चंवर, छत्र, कटार, हरिण्यगर्भ लक्ष्मीनारायण की मूर्ति, 18 हाथ वाली नागणेची माता की मूर्ती, करंड, भंवर ढोल, बैरिशाल नगाड़ा, दलसिंगार घोडा, भुजाई की देग आदि थे।

राव गांगा (1515-1532 ई.)

राव सूजा के बाद उसका पौत्र राव गांगा मारवाड़ का शासक बना। उसने राणा सांगा से मित्रता कर अपनी समस्याओं का अंत किया। जब खानवा का युद्ध (1527 ई.) हुआ तो राव गांगा ने अपने पुत्र राव मालदेव के नेतृत्व में 4000 सैनिक भेजकर राणा सांगा की मदद की।

राव गांगा की मृत्यु : रेऊजी का कहना है कि सन् 1532 के एक दिन राव गांगा अफीम की पिनक में झपकी लेने के कारण अपने महलों की एक खिड़की से गिरकर मर गया। डॉ. ओझा इसके विपरीत लिखते हैं कि कुँवर मालदेव बड़ा महत्त्वाकांक्षी था। उसने अफीम की पिनक में बैठे हुए राव गांगा को ऊपर खिड़की से नीचे गिरा दिया, जिससे उसकी मृत्यु हो गयी। ‘मुण्डियार’ ख्यात में दिये गये एक दोहे से स्पष्ट है कि उस समय मालदेव ने भाँण और पुरोहित मूला पर वार किया जो राव गांगा के अंगरक्षक थे। जोधपुर राज्य की ख्यात से भी गांगा को झरोखे से मालदेव के द्वारा गिराना स्पष्ट है।

राव गांगा ने जोधपुर शहर के गांगालाव तालाब और गांगा की बावड़ी बनायी। उसके समय में सिरोही से लायी हुई श्यामजी की मूर्ति उसके नाम पर गंगश्याम के नाम से प्रसिद्ध हुई।

राव मालदेव (1532-1562 ई.)

अपने पिता राव गांगा की मृत्यु के बाद राव मालदेव 5 जून, 1532 को जोधपुर की गद्दी पर बैठा। उसका राज्याभिषेक सोजत में सम्पन्न हुआ। राव मालदेव गांगा का ज्येष्ठ पुत्र था। जिस समय उसने मारवाड़ के राज्य की बागड़ोर अपने हाथ में ली उस समय उसका अधिकार सोजत और जोधपुर के परगनों पर ही था। उस समय दिल्ली पर मुगल बादशाह हुमायूँ का शासन था। राव मालदेव राठौड़ वंश का प्रसिद्ध शासक हुआ।

1536 ई. में राव मालदेव का विवाह जैसलमेर के लूणकरण की कन्या उम्मादे से हुआ। किसी कारणवश लूणकरण ने मालदेव को मारने का इरादा किया तो लूणकरण की रानी ने पुरोहित राघवदेव द्वारा यह सूचना मालदेव को भिजवा दी। संभवतः इसी कारण से मालदेव उम्मादे से अप्रसन्न हो गया और वह भी मालदेव से रूठ गई। तभी से वह ‘रूठी रानी’ कहलाई तथा उसे अजमेर के तारागढ़ में रखा गया। जब शेरशाह के अजमेर पर आक्रमण की शंका हुई तो ईश्वरदास के माध्यम से उसे जोधपुर जाने को राजी किया गया परन्तु जोधपुर रानियों के रूखे व्यवहार की जानकारी मिलने के कारण वह गूँरोज चली गई। जब मालदेव का देहान्त हुआ तो वह सती हुई।

सबसे पहले जब 1532 ई. में गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह ने मेवाड़ पर चढ़ाई की, उस समय मालदेव ने अपनी सेना भेजकर विक्रमादित्य की सहायता की थी। ख्यातों के अनुसार मालदेव ने कुम्भलगढ़ में आकर टिके हुए उदयसिंह को राणा घोषित करने तथा बनवीर के विरुद्ध लड़ने में अपना योगदान दिया था। जोधपुर राज्य की ख्यात में लिखा है कि 1532 ई. में राव मालदेव ने जैता, कूँपा आदि सरदारों को मेवाड़ के उदयसिंह की सहायतार्थ भेजा, जिसके फलस्वरूप बनवीर को निकाला गया और उदयसिंह को चित्तौड़ के सिंहासन पर बिठाया। इसके बदले में महाराणा ने बसन्तराय नाम का हाथी और चार लाख फीरोजे पेशकशी के मालदेव के पास भेजे।

भाद्राजूण पर अधिकार : सर्वप्रथम उसने भाद्राजूण (जालोर) के सींधल स्वामी वीरा पर चढ़ाई कर दी। कई दिनों के युद्ध के बाद वीरा मारा गया और वहाँ मालदेव का अधिकार हो गया।

नागौर पर अधिकार :नागौर के शासक दौलतखाँ ने जब मेड़ता लेने का प्रयत्न किया तब मालदेव ने खाँ पर चढ़ाई कर नागौर पर अधिकार कर लिया। राव ने वीरम माँगलियोत को यहाँ का हाकिम नियुक्त कर दिया।

मालदेव का मेड़ता तथा अजमेर पर अधिकार : दरियाजोश हाथी के कारण मालदेव व मेड़ता के वीरमदेव के बीच राव गांगा के समय ही विरोध हो गया था। मालदेव ने वीरमदेव से अजमेर मांगा तो वीरमदेव ने ध्यान नहीं दिया, इस पर मालदेव ने सेना भेजकर वीरमदेव को मेड़ता से निकाल दिया। वीरमदेव अजमेर आया वीरमदेव को यहां से भी भगा दिया। वह मलारणे के मुसलमान थानेदार से मिला और उसकी सहायता से रणथम्भौर के हाकिम के पास गया, जो उसे शेरशाह सूरी के पास ले गया।

सिवाणा पर अधिकार : 1538 में सिवाणा स्वामी राठौड़ डूंगरजी (जैत मालोत) को भगाकर अधिकार कर लिया। यहां का किला मांगलिया देवा को सौंपा।

जालोर पर अधिकार : जालोर के स्वामी सिकंदर खां को मालदेव ने कैद कर लिया कैद में रहते हुए सिकंदर खां की मृत्यु हो गई।

मेवाड़-मारवाड़ के बीच टकराव : मेवाड़ के जैतसिंह मेवाड़ को छोड़कर मारवाड़ चले गये जहां मालदेव राठौड़ ने उन्हें अपने राज्य में एक जागीर बलात खैरवा का जागीरदार बना दिया। इससे प्रसन्न होकर जैतसिंह ने अपनी बड़ी पुत्री स्वरूपदे का विवाह मालदेव राठौड़ से कर दिया। राव मालदेव झाली रानी स्वरूपदे सहित अपने ससुराल खैरवा गए, जहां उन्होंने जैतसिंह की दूसरी पुत्री वीरबाई झाली को देखकर जैतसिंह से कहा कि “इसका भी ब्याह हमारे साथ करवा दो” जिसे जैतसिंह ने अपना अपमान समझा और अपनी छोटी पुत्री का विवाह मेवाड़ के शासक उदयसिंह से कर दिया। इसी बात को लेकर मालदेव ने कुंभलगढ़ पर आक्रमण कर दिया, पर दुर्ग की मज़बूती के कारण एक महीने के पड़ाव के बावजूद अधिकार नहीं कर पाए।

पहोबा/साहेबा का युद्ध (1542 ई.) : मालदेव ने 1542 ई. के आसपास राज्य विस्तार की इच्छा से कूपा की अध्यक्षता में एक बड़ी सेना बीकानर की तरफ भेजी। राव जैतसी मुकाबला करने के लिए साहेबा के मैदान में पहुँचा। मालदेव ने साहेबा के मैदान में बीकानेर के राव जैतसी को मारकर अपने साम्राज्य विस्तार की इच्छा को पूरी किया परन्तु मालदेव ने अपनी विजयों से जैसलमेर, मेवाड़ और बीकानेर से शत्रुता बढ़ाकर अपने सहयोगियों की संख्या कम कर दी।

मालदेव व हुमायूँ : बाबर के बाद 1530 में हुमायूँ बादशाह बना। शेरखां के साथ 1539 के चौसा युद्ध में पराजित हुआ। चौसा इतिहास का ऐसा प्रथम युद्ध है जिसमें अफगानों ने प्रथम बार मुगलों को पराजित किया। 1540 में शेरशाह सूरी ने हुमायूँ को कन्नौज के युद्ध में अन्तिम रूप से पराजित कर दर-दर की ठोकरे खाने के लिए मजबूर कर दिया।

ऐसे समय में मालदेव ने हुमायूँ को सहायता देने की पेशकश की किन्तु हुमायूँ ने इस पर ध्यान नहीं दिया।। क्योंकि इस समय इसके भाई अश्करी व हिदाल सहयोग दे रहे थे। 13 महीने बाद जब हुमायूँ को कहीं से सहायता नहीं मिली। इस निराशा के वातावरण से क्षुब्ध होकर हुमायूँ ने लगभग एक वर्ष के बाद मारवाड़ की ओर जाने का विचार किया। 7 मई, 1542 को हुमायूँ जोगीतीर्थ (कूल-ए-जोगी) पहुँचा। किन्तु इस समय परिस्थितियां बदल चुकी थी। शेरशाह सूरी अधिक शक्तिशाली बन गया था। ऐसे में शेरशाह के विरुद्ध मालदेव ने हुमायूं को सहयोग देने में असमर्थता जताई। इस संबंध में विशेष जानकारी प्राप्त करने के लिए मीर समन्दर, रायमल सोनी, अतका खाँ आदि व्यक्तियों को मालदेव के पास बारी-बारी से भेजा गया। सभी का लगभग यही मत था कि मालदेव ऊपर से मीठी-मीठी बातें करता है, परन्तु उसका हृदय साफ नहीं हैं। इस पर हुमायूँ ने तुरन्त अमरकोट की ओर प्रस्थान किया। लौटते हुए बादशाही दल का मालदेव की थोड़ी सी सेना ने पीछा किया जिससे भयभीत हो हुमायूँ मारवाड़ से भाग निकला।

मालदेव व शेरशाह : मेड़ता के बीरमदेवबीकानेर के कल्याणमल के उकसाने तथा हुमायूँ को शरण देने के प्रयास के कारण शेरशाह ने मालदेव के विरूद सैन्य अभियान किया। शेरशाह को यह भय था कि राजपूत एकत्र होकर कहीं समस्या पैदा न कर दे, राजपूताने में उस समय मालदेव सबसे शक्तिशाली शासक था। फरिस्ता के अनुसार शेरशाह 80000 सेना लेकर आगरा से रवाना हुआ। इधर से मालदेव सेना लेकर शेरशाह से युद्ध के लिए पहुँचा, जोधपुर राज्य की ख्यात के अनुसार मालदेव के पास 80000 सैनिक, अल्बदायूँनी के अनुसार 50000 सैनिक थे। वीरमदेव ने कुंपा के शिविर में 20000 रू. भिजवाये व कहा हमें कम्बल मंगवा कर देना और 20000 रू. जैता के पास भेजा और कहा कि हमें सिरोही की तलवारे मंगवाकर देना फिर मालदेव से वीरमदेव ने कहलवाया कि जैता और कुंपा शेरशाह से मिल गये और तुम्हें पकड़ कर वो शेरशाह को सौंपेगें इसका सबूत यह है कि आप जैता और कुंपा के शिविर में पैसों के थैले देख लो, जब मालदेव ने जांच पड़ताल की तो यह बात सत्य निकली। यह जानकर मालदेव ने अपनी सेना को पीछे हटने का आदेश दिया। कुंपा को शेरशाह की चाल का पता लगने पर मालदेव को समझाने का प्रयास किया जब मालदेव का संदेह नहीं मिटा, तब कुंपा ने कहा “सच्चे राजपूत पर ऐसा कलक नहीं सुना। मैं राजपूतों पर लगाये इस कंलक को अपने रक्त से धोऊँगा और शेरशाह को अपने थोड़े से सैनिकों के साथ हराऊंगा”। इस मतभेद में मालदेव ने लगभग आधे सैनिकों को अपने साथ ले लिया और लगभग आधी सेना जैता और कूँपा के साथ रहकर शेरशाह का युद्ध में मुकाबला करने को डटी रही। जैतारण (ब्यावर) के निकट गिरि-सुमेल नामक स्थान पर जनवरी, 1544 में दोनों की सेनाओं के मध्य युद्ध हुआ जिसमें शेरशाह सूरी की बड़ी कठिनाई से विजय हुई। तब उसने कहा था कि “एक भुठ्ठी भर बाजरी के लिए मैं हिन्दुस्तान की बादशाहत खो देता।” इस युद्ध में मालदेव के सबसे विश्वस्त वीर सेनानायक जैता एवं कूँपा मारे गए थे।

युद्ध के बाद सेना के दो भाग किये एक भाग खवासखां व ईसाखां के नेतृत्व में जोधपुर भेजा व दूसरा भाग स्वयं शेरशाह के नेतृत्व में अजमेर पहुँचा व अजमेर पर अधिकार कर लिया। फिर शेरशाह भी जोधपुर की और रवाना हुआ मालदेव ने जब शेरशाह के आने की सूचना सुनी तो वह सिवाना चला गया। शेरशाह ने जोधपुर के दुर्ग पर आक्रमण कर अपना अधिकार कर लिया तथा वहाँ का प्रबन्ध खवास खाँ को संभला दिया। शेरशाह ने वीरमदेव को मेड़ता व कल्याणमल को बीकानेर सौंप दिया।

इसके बाद शेरशाह की कालिंजरा अभियान में उक्का नामक अस्त्र चलाते समय मृत्यु हो गई, मालदेव ने वापस 1545 में जोधपुर पर अधिकार कर लिया शेरशाह का जोधपुर पर लगभग एक वर्ष तक अधिकार रहा।

राव मालदेव जब जोधपुर की गद्दी पर बैठा था तब से लेकर अंत तक अपना पूरा जीवन युद्ध में रखा था। अपने जीवनकाल में इनके पास सबसे अधिक 58 परगनों का शासन रहा और 52 युद्ध लड़े। 7 नवंबर 1562 ईस्वी में राव मालदेव की मृत्यु हो गई।

राव चन्द्रसेन (1562-1581 ई.)

राव चंद्रसेन का जन्म 16 जुलाई, 1541 ई. में हुआ। यह मालदेव व झाला रानी स्वरूप दे का पुत्र था। स्वरूप दे ने मालदेव से कहकर चंद्रसेन को मारवाड़ का युवराज बनवाया था। राव मालदेव अपने ज्येष्ठ पुत्र राम से अप्रसन्न था, जबकि उससे छोटे पुत्र उदयसिंह को पटरानी स्वरूपदे (चन्द्रसेन की माँ) ने राज्याधिकार से वंचित करवा दिया। मालदेव की मृत्यु के बाद उसकी इच्छानुसार 31 दिसम्बर 1562 ई. उसका सबसे छोटा बेटा चन्द्रसेन जोधपुर की गद्दी पर बैठा। शासक बनने के कुछ ही समय बाद चन्द्रसेन ने आावेश में आकर अपने एक चाकर की हत्या कर दी। इससे जैतमाल और उससे मेल रखने वाले कुछ अन्य सरदार अप्रसन्न हो गए। नाराज सरदारों ने चन्द्रसेन को दण्डित करने के लिए उसके विरोधी भाइयों राम, उदयसिंह और रायमल के साथ गठबंधन कर उन्हें आक्रमण के लिए आमन्त्रित किया। राम ने सोजत और रायमल ने दूनाड़ा प्रान्त में उपद्रव शुरू कर दिया तथा उदयसिंह ने गांगाणी और बावड़ी पर अधिकार कर लिया। सूचना मिलते ही चन्द्रसेन ने इन उपद्रवों को शांत करने के लिए अपनी सेना भेजी जिससे राम और रायमल तो अपनी-अपनी जागीरों में लौट गए।

लोहावट का युद्ध : उदयसिंह ने चन्द्रसेन से लोहावट में मुकाबला किया। वहाँ चन्द्रसेन की बरछी का वार उदयसिंह पर हुआ। जिसक फलस्वरूप वह घोड़े से गिर गया उसके साथी उसे किसी तरह घटनास्थल से बचाकर ले गये। इस लड़ाई में उदयसिंह के कई प्रमुख सहयोगी सरदार मारे गये और विजय चन्द्रसेन की रही।

अकबर के अधिकार में जोधपुर का जाना : लगभग 1564 ई. में चन्द्रसेन का सौतेला भाई राम अकबर के दरबार में पहुँचा और शाही सहायता की प्रार्थना की। अकबर अवसर की ताक में था ही। उसने शीघ्र ही हुसैन कुलीखाँ की अध्यक्षता में एक फौज भेज दी जिसने जोधपुर पर अपना कब्जा कर लिया। विवश होकर चन्द्रसेन भाद्राजूण के किले की तरफ चल दिया।

नागौर दरबार (1570 ई.) : अकबर 1570 ई. में अजमेर यात्रार्थ आया हुआ था कि उसने मारवाड़ के इलाकों में दुष्काल की खबर सुनी। वह 3 नवम्बर, 1570 ई. में नागौर पहुँचा और वहाँ उसने कुछ समय रहने का निश्चय किया। दुष्काल से राहत दिलाने के लिए उसने अपने सैनिकों से एक तालाब खुदवाना आरम्भ किया जिसका नाम शुक्र तालाब था। अकबर ने उधर मेवाड़ के विरुद्ध कार्यवाही करने की योजना बना ली थी। यहाँ कई नरेश जिनमें बीकानेर और जैसलमेर के नरेश मुख्य थे, अकबर से मिलने को पहुँचे।

आमेर द्वारा जो वैवाहिक संबंध का सिलसिला आरम्भ हो गया था उसके पद चिह्नों पर चलकर बीकानेर तथा जैसलमेर के शासकों ने अकबर से वैवाहिक संबंध जोड़े। राव चन्द्रसेन, उदयसिंह, राम आदि भी अपनी स्थिति सुधारने के लिए वहाँ उपस्थित हुए। चन्द्रसेन भी अकबर के दरवार में उपस्थित हुआ। चन्द्रसेन ने देखा कि अकबर एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति के विरुद्ध खड़ा कर अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहता है, वह अकबर के दरबार से चल दिया। वह अपने ज्येष्ठ पुत्र रायसिंह को अकबर की सेवा में छोड़ कर पुनः भाद्राजूण लौट आया। मारवाड़ की परतन्त्रता की कड़ी में नागौर दरबार एक बहुत बड़ी कड़ी है। जो नरेश नागौर आये थे वे एक प्रकार से आश्रित और समर्थकों की संज्ञा में गिने जाने लगे। जो नरेश यहाँ के दरबार में उपस्थित नहीं हुए थे उनकी मनोवृत्ति का समुचित रूप से परीक्षण हो गया। अकबर से जो वैवाहिक संबंध हुआ था उससे भी अधिक महत्त्व ‘नागौर दरबार’ का था। यहाँ से राजपूत नरेशों का स्पष्ट वर्गीकरण- मुगल विरोधी और मित्र राज्य के रूप में हो गया।

मारवाड़ की राजनीतिक स्थिति ‘नागौर दरबार’ के बाद स्पष्ट थी। अकबर ने बीकानेर के रायसिंह को जोधपुर का अधिकारी नियुक्त कर महाराणा कीका को मारवाड़ से सहायता मिलने या इस मार्ग से गुजरात में हानि पहुँचाने की सम्भावना समाप्त कर दी। उदयसिंह को सामावली पर अधिकार करने की आज्ञा देकर अकबर ने उसे अपनी और मिला लिया तथा उधर से होने वाले गूर्जरों के उपद्रवों को कम करने का उपाय ढूँढ़ निकाला। राम को जो वास्तव में मारवाड़ का हकदार था, अपने पैतृक राज्य से अलग रखने के लिए शाही सेना के साथ कर दिया गया, जो सेना मिर्जा बन्धुओं को दबाने के लिए नियुक्त थी। इस प्रकार अकबर ने अलग-अलग अधिकारियों के स्वार्थ निश्चित कर जोधपुर पर शाही अधिकार स्थापित कर दिया।

चन्द्रसेन का विरोध और मुगल : 1565 ई. में जोधपुर के परित्याग के बाद चन्द्रसेन ने कुछ समय तो भाद्राजूण में रहकर मुगलों की फौजों का मुकाबला किया, परन्तु जब मुगल अधिकारियों के जत्थों ने उसे चारों तरफ से घेर लिया तो 1571 ई. में चन्द्रसेन भाद्राजूण का परित्याग कर सिवाणा की तरफ चला गया। 1573 ई. में अकबर ने चन्द्रसेन को अपने अधीन बनाने के लिए शाहकुली खाँ के साथ जगतसिंह, केशवदास मेड़तिया, बीकानेर के रायसिंह आदि को भेजा। यह सेना सोजत में चन्द्रसेन के भतीजे कल्ला को पराजित करते हुए सिवाना पहुँची। चन्द्रसेन किले की रक्षा का भार पत्ता राठौड़ को सौंपकर पहाड़ों में चला गया और वहीं से मुगल सेना पर छापामार पद्धति से आक्रमण कर उसे क्षति पहुँचाने लगा। 1575 ई. में सिवाना के दुर्ग पर अकबर का अधिकार हो गया। ‘संकटकालीन राजधानी’ सिवाणा हाथ से निकलने के बाद अक्टूबर 1575 ई. में जैसलमेर के रावल हरराय ने पोकरण पर आक्रमण कर दिया। इस समय पोकरण में राव चन्द्रसेन की तरफ से किलेदार आनन्दराम पंचोली था। चार माह के घेरे के बाद रावल हरराय ने चन्द्रसेन के सामने प्रस्ताव रखा कि “एक लाख फदिये के बदले मुझे पोकरण दे दो, जोधपुर पर अधिकार होने के बाद एक लाख फदिये लौटाकर पोकरण मुझसे वापिस ले लेना।” चन्द्रसेन ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर जनवरी 1576 ई. में पोकरण भाटियों को दे दिया। 1579 ई. में चन्द्रसेन ने सरवाड़ के मुगल थाने को लूटकर अपने अधिकार में ले लिया। इसके बाद उसने अजमेर प्रांत पर भी धावे मारने शुरू कर दिये। चन्द्रसेन ने 7 जुलाई 1580 ई. को सोजत पर हमला कर दिया। सोजत पर अधिकार कर उसने सारण के पर्वतों (पाली) में सचियाप नामक स्थान अपना निवास कायम किया। यहीं 11 जनवरी 1581 ई. को उसकी मृत्यु हो गई। यही चंद्रसेन की समाधि बनी हुई है। जोधपुर राज्य की ख्यात के अनुसार चन्द्रसेन के एक सामंत वैरसल ने विश्वासघात कर भोजन में जहर दे दिया, जिससे उसकी मृत्यु हो गई। राव चन्द्रसेन अकबरकालीन राजस्थान का प्रथम स्वतन्त्र प्रकृति का शासक था। इतिहास में समुचित महत्व न मिलने के कारण चन्द्रसेन को ‘मारवाड़ का भूला बिसरा नायक’ कहा जाता है। चन्द्रसेन की मृत्यु के बाद मारवाड़ की गद्दी पर उसके भाई उदयसिंह का अधिकार हो गया।

राव चंद्रसेन ऐसा प्रथम राजपूत शासक था जिसने अपनी रणनीति में दुर्ग के स्थान पर जंगल और पहाड़ी क्षेत्र को अधिक महत्त्व दिया था। खुले युद्ध के स्थान पर छापामार युद्ध प्रणाली का महत्त्व स्थापित करने में मेवाड़ के महाराणा उदयसिंह के बाद चंद्रसेन राजपूताने का दूसरा शासक था। इस प्रणाली का अनुसरण महाराणा प्रताप ने भी किया था। राव चंद्रसेन को महाराणा प्रताप का पथ प्रदर्शक माना जाता है। इसलिए राव चन्द्रसेन को ‘मारवाड़ का प्रताप’ कहा जाता है। जाधपुर राज्य की ख्यात के अनुसार चंद्रसेन व महाराणा प्रताप कोरड़ा गांव में मिले। राव चंद्रसेन ऐसा अंतिम राठौड़ शासक था जिसने अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की, बल्कि कष्टों का मार्ग अपनाया। तत्समय राजपूतान में महाराणा प्रताप और राव चंद्रसेन यही दो स्वाभिमानी वीर अकबर की आँखों के कोट बने थे।

मोटाराजा उदयसिंह (1583-1595 ई.)

राव चंद्रसेन की मृत्यु के बाद जोधपुर राज्य (1581-1583 ई.) तीन वर्ष तक खालसा रहा। तीन वर्ष बाद अकबर द्वारा उदयसिंह को मारवाड़ राज्य का अधिकार खिलअत और खिताब सहित 1583 ई. में दे दिया। इस प्रकार मोटाराजा उदयसिंह मारवाड़ का प्रथम शासक था जिसने मुगलों की अधीनता स्वीकार की और मुगल राज्य की कृपा प्राप्त की थी। मोटाराजा उदयसिंह न 1587 ई. में अपनी पुत्री ‘मानबाई’ का विवाह शहजाद सलीम के साथ किया। उमरा-ए-हनूद में पाया जाता है कि यह वही मानमती थी जो जगतगुसाई के नाम से प्रसिद्ध थी। जोधपुर की राजकुमारी होने के कारण उसको जोधाबाई भी कहा जाता था। इस विवाह के अवसर पर उदयसिंह को 1000 का मनसबदार बनाया गया। जोधपुर राज्य में यह प्रथम व्यक्ति था जिसने मुगलों से वैवाहिक संबंध स्थापित कर अपने प्रभाव को मुगल व्यवस्था में बढ़ाने की चेष्टा की। इसी जोधाबाई से शहजादा खुर्रम उत्पन्न हुआ जो बाद में शाहजहाँ के नाम से मुगल सम्राट बना।

सवाई राजा शूरसिंह (1595-1619 ई.)

मोटाराजा उदयसिंह की मृत्यु होने पर अकबर ने शूरसिंह को उसके कई बड़े भाइयों के होते हुए भी मारवाड़ का स्वामी स्वीकार किया। इनको टीका देने की रस्म लाहौर में संपादित की गई और इस अवसर पर इनका मनसब 2000 जात एवं 2000 सवार कर दिया गया। 1604 ई. में अकबर ने इन्हें ‘सवाई राजा’ की उपाधि से सम्मानित किया। जहाँगीर ने 1608 में शूरसिंह का मनसब बढ़ाकर 3000 जात/सवार कर दिया। सन् 1613 में जब शहजादा खुर्रम ने मेवाड़ अभियान किया तो शूरसिंह भी उसमें सम्मिलित थे। जहाँगीर ने शूरसिंह का मनसब बढ़ाकर 5000 जात व 3000 सवार कर दिया। दक्षिण में रहते हुए 1619 ई. में महाराजा शूरसिंह की मृत्यु हो गई।

महाराजा गजसिंह (1619-1638 ई.)

जब दक्षिण में सवाई राजा शूरसिंह की मृत्यु हो गयी तो जहाँगीर ने उनके पुत्र गजसिंह के लिए सिरोपाव भेजे और 1619 ई. में बुरहानपुर में इनके टीके की रस्म की प्रथा की अदायगी की। इन्हें 3000 जात एवं 2000 सवार का मनसब दिया तथा झण्डा और राजा की उपाधि दी। 1621 ई. में इनको शहजादा खुर्रम के विरुद्ध 5000 जात व 4000 सवार का पद देकर भेजा गया। मुग़ल सम्राट जहाँगीर ने गजसिंह की वीरता से प्रसन्न होकर उन्हें ‘दलथंभन’ (फौज को रोकने वाला) की उपाधि दी एवं उनके घोड़े को शाही दाग से मुक्त कर दिया। 1630 ई. में जोधपुर नरेश गजसिंह को बादशाह जहांगीर ने ‘महाराजा’ की उपाधि दी। महाराजा गजसिंह का बड़ा पुत्र अमरसिंह था, लेकिन महाराजा ने अपने छोटे पुत्र जसवंतसिंह को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया।

राव अमरसिंह राठौड़

जोधपुर के राजा गजसिंह ने अपने बड़े पुत्र अमरसिंह को उसकी स्वतंत्र एवं विद्रोही प्रवृत्ति से नाराज होकर राज्य से निकाल दिया था। इस पर शाहजहाँ ने अमरसिंह को नागौर परगने का स्वतंत्र राजा बना दिया

भतीरे की राड़ (1644 ई.) : 1644 ई. में नागौर राज्य की अंतिम सीमा पर स्थित एक किसान के खेत में मतीरे की बेल लगी। बेल खेत की मेढ़ पार करके बीकानेर राज्य की सीमा में स्थित एक किसान के खेत में चली गयी और वहाँ पर एक मतीरा लग गया जिस पर स्वामित्व को लेकर दोनों किसानों में झगड़ा हो गया। इस समय बीकानेर के नरेश कर्णसिंह थे। यह झगड़ा सैनिकों तक जा पहुंचा और दोनों तरफ के कई सैनिक मारे गये, जो मतीरे की राड़ नाम से प्रसिद्ध हुई। 1644 ई. में आगरा के किले में शाहजहां के साले सलावत खां ने अमरसिंह को “गंवार” कहा, गंवार कहने कारण अमरसिंह ने दरबार में सलावत खां की हत्या कर दी। बाद में खलीमुल्ला व बिट्ठदास के पुत्र अर्जुन से युद्ध करते हुए शहीद हुए। अमरसिंह राठौड़ राजकुमारों में अपने साहस और वीरता के लिए प्रसिद्ध है। आज भी इसी के नाम से ‘अमरसिंह राठौड़ के ख्याल’ प्रसिद्ध हैं।

महाराजा जसवंतसिंह प्रथम (1638-1678 ई.)

जसवंतसिंह का जन्म 26 दिसंबर, 1626 ई. में बुरहानपुर में हुआ था। 1638 ई. में मुगल सम्राट शाहजहाँ ने जसवंतसिंह को खिलअत, जड़ाऊ जमधर एवं टीका दिया तथा उसे 4000 जात एवं 4000 सवार का मनसब देकर मारवाड़ का शासक स्वीकार किया। यह रस्म अदायगी आगरा में की गई। आगरा से महाराजा जसवंत सिंह बादशाह के साथ दिल्ली और वहां से जमरुद गया। इसी दौरान उसके मनसब में 1000 की वृद्धि कर 5000 जात व 5000 सवार का मनसब प्रदान किया गया। 30 मार्च, 1640 को महाराजा जोधपुर पहुंचे जहां अपनी गद्दी नशीनी का उत्सव मनाया। 1648 ई. में जब शाह अब्बास ने कंधार घेर लिया तो महाराजा को मुगल सेना के साथ कंधार भेजा गया। कंधार में महाराजा ने बड़ी वीरता का परिचय दिया। इस अवसर पर बादशाह शाहजहाँ ने उसके मनसब की संख्या बढ़ाकर 6000 जात व 6000 सवार कर दी।

धरमत का युद्ध (1658 ई.) : मुगल सम्राट शाहजहाँ के चारों पुत्रों (दाराशिकोह, शाहशुजा, औरंगजेब और मुराद) के मध्य उत्तराधिकार को लेकर 1658 व 1659 ई. में कई युद्ध लड़े गए। इनमें धरमत (उज्जैन, मध्य प्रदेश) का युद्ध बड़ा प्रसिद्ध रहा। जसवंतसिंह व अन्य अनेक राजपूत शासक शाही सेना की ओर से दाराशिकोह के पक्ष में तथा औरंगजेब के विपक्ष में लड़े। लेकिन कासिम खान ने धोखा दिया जिससे शाही खेमे की हार हुई। कहा जाता है कि पराजित महाराजा जसवंतसिंह धरमत के युद्ध स्थल से लौटकर 4 दिन बाद 19 अप्रैल, 1658 ई. को जोधपुर पहुँचा। बर्नियर, मनूची एवं खाफीखां के अनुसार महाराजा जोधपुर पहुंचे तो महारानी महामाया ने किले के द्वार बन्द करवाकर कहलवा भेजा कि राजपूत युद्ध से या तो विजयी लौटते हैं या वहां मर मिटते हैं। महाराजा पराजय के बाद लौट नहीं सकते, वह कोई अन्य व्यक्ति है। यह कहकर वह सती होने की तैयारी करने लगी। अन्त में बताया जाता है कि रानी की मां ने उसे समझाया तब जाकर दरवाजा खोला। इस कथा को श्यामलदास ने भी मान्यता दी है।

परन्तु इसके विपरीत रेऊ की मान्यता है कि वर्नियर ने यह कथा राजपूत वीरांगनाओं की तारीफ में सुनी-सुनायी किंवदन्तियों के आधार पर ही लिखी है और मुन्तखब-उत-तवारीख के लेखक ने हिन्दू-नरेश की वीरता को भुलावे में डालने का उद्योग किया है। वास्तव में न तो स्वामिभक्त किलेदार सरदार ही रानी के कहने से अपने वीर स्वामी के विरुद्ध ऐसी कार्यवाही कर सकता था और न इस प्रकार उदयपुर महाराणा या बूँदी के राव की रानी ही अपनी पुत्री को समझाने के लिए जोधपुर आ सकती थी। अतः यह कथा विश्वास-योग्य नहीं।

कविराज श्यामलदास के अनुसार ऊपर बतायी गयी घटना बूँदी की रानी से सम्बन्ध रखती है, न कि उदयपुर की रानी से। हमारी राय में रानी का स्थान सम्बन्धी भ्रम होने का कारण यह हो सकता है कि राव शत्रुशाल हाड़ा की एक रांनी सीसोदनी राणी राजकुंवर थी और उसकी पुत्री करमेती का विवाह जसवन्तसिंह के साथ हुआ था। सीसोदी रानी की पुत्री होने से महाराजा की रानी को भी सीनोदी रानी मान लिया और ‘सीसोदी’ शब्द से उदयपुर की रानी होने का भ्रम पैदा हो गया। इस कथा में हमें सत्यता कम दिखायी देती है। राजपूत वीरांगनाएँ अपने पति के साथ किसी भी स्थिति में इस प्रकार अपमानजनक व्यवहार नहीं कर सकतीं और जीवित महाराजा को मरा हुआ कहकर सती होने के लिए तैयार होना, जो रानी के लिए बताया जाता है, असत्य दीख पड़ता है। कोई भी स्त्री अपने जीवित पति के लिए ऐसी कल्पना नहीं कर सकती थी और न ऐसे भाव व्यक्त करने की धृष्टता ही कर सकती है। रानी की माँ के आने पर समझाने की बात भी ठीक नहीं है, क्योंकि द्वार बन्द होने की सूचना इतनी जल्दी उदयपुर या बूँदी पहुँचना और शीघ्र ही रानी की माँ का आना असंगत प्रतीत होता है।

खाजुवा (U.P.) का युद्ध (जनवरी 1659) : इस युद्ध से पूर्व औरंगजेब ने मुराद को बंदी बनाकर मथुरा किले में भेज दिया था।। युद्ध की पूर्व रात्री पर जसवंत सिंह ने औरंगजेब के खेमें को लूटा तथा जोधपुर आकर लाहौर से दारा को आमंत्रित किया। खाजवा के इस युद्ध में औरंगजेब ने अपने भाई सूजा को पराजित कर दिया सूजा कामरून भाग गया जहां आदिवासियों ने उनकी हत्या कर दी।

देवराई/दौराई का युद्ध (मार्च, 1659 ई.) : यह युद्ध अजमेर के निकट दौराई नामक स्थान पर दाराशिकोह और औरंगजेब के मध्य हुआ जिसमें औरंगजेब की विजय हुई। बाद में औरंगजेब मुगल सम्राट बना। आमेर के जयसिंह प्रथम के बीच-बचाव से औरंगजेब और जसवंतसिंह का मनमुटाव कम हो गया। सम्राट औरंगजेब ने पुनः उसके खिताब और मनसय बहाल कर दिए।

1659 ई. में महाराजा जसवंतसिंह को गुजरात का सूबेदार बनाया गया। महाराजा जसवंतसिंह को बाद में औरंगजेब ने शिवाजी के विरुद्ध दक्षिण में भेजा, जहाँ इन्होंने शिवाजी को मुगलों से संधि करने हेतु राजी किया तथा शिवाजी के पुत्र शम्भाजी को शहजादा मुअज्जम के पास लाये और दोनों के मध्य शांति संधि करवाई। 28 नवम्बर, सन् 1678 में महाराजा का जमरूद (अफगानिस्तान) में देहान्त हो गया। महाराजा जसवंतसिंह की मृत्यु के समय इनकी रानी गर्भवती थी परंतु जीवित उत्तराधिकारी के अभाव में औरंगजेब ने जोधपुर राज्य को खालसा (मुगल साम्राज्य में मिला लिया) घोषित कर दिया गया व ताहिर खां को जोधपुर का फौजदार नियुक्त कर दिया, और दक्षिण से राव अमरसिंह के पौत्र इन्द्रसिंह को जोधपुर की जागीर देने के लिये बुलाया। औरंगजेब ने जोधपुर की जागीर अमरसिंह के पौत्र इन्द्रसिंह को दे दी व इन्द्रसिंह को राजा की उपाधि दी। जसवंतसिंह की मृत्यु पर औरंगजेब ने कहा था कि ‘आज कुफ्र (धर्म विरोध) का दरवाजा टूट गया है।

महाराजा जसवंतसिंह विद्यानुरागी भी थे। उन्होंने रीति और अलंकार का अनुपम ग्रंथ ‘भाषा-भूषण’ की रचना की। इसके अलावा महाराजा ने ‘अपरोक्ष सिद्धान्त’, ‘सार’ और ‘प्रबोध चन्द्रोदय’ नाटक लिखे। उसके दरबारी विद्वानों में सूरत मिश्र, नरहरिदास, नवीन कवि बनारसीदास आदि प्रसिद्ध है, जिन्होंने अनेक ग्रंथों की रचना की। मुंहणौत नैणसी महाराज के दरबारी एवं चारण थे। नैणसी ने ‘नैणसी री ख्यात’ व ‘मारवाड़ रा परगना री विगत’ लिखी।

महाराजा ने अनेक तालाब और उद्यान बनवाये। औरंगाबाद में जसवंतपुरा आबाद किया। आगरे के निकट मुगल-राजपूत शैली का कचहरी भवन बनवाया। रानी अतिरंगदे ने जान सागर तालाब बनवाया जिसे सेखावतजी का तालाब कहते हैं। दूसरी रानी जसवन्तदे ने राई का बाग तथा कल्याण सागर तालाब बनवाया। इस तालाब के स्थान को राता नाडा कहते हैं। रूपा धाय जोधपुर महाराजा जसवंत सिंह की धाय थी। उनके नाम से एक बावड़ी मेड़ती दरवाजा के अंदर बनायी गयी हैं।

महाराजा अजीतसिंह (1679-1724 ई.)

महाराजा जसवंतसिंह की गर्भवती रानी जसवन्तदे ने 19 फरवरी, 1679 को राजकुमार अजीत सिंह को लाहौर में जन्म दिया। वीर दुर्गादास एवं अन्य राठौड़ सरदारों ने मिलकर औरंगजेब से राजकुमार अजीतसिंह को जोधपुर का शासक घोषित करने की माँग की। परंतु औरंगजेब ने इसे टाल दिया और कहा कि राजकुमार के वयस्क हो जाने पर उन्हें राजा बना दिया जायेगा। इसके पश्चात् औरंगजेब ने राजकुमार एवं रानियों को परवरिश हेतु दिल्ली अपने पास बुलवा लिया। वहाँ इन्हें रूपसिंह राठौड़ की हवेली में ठहराया गया। औरंगजेब की मंशा राजकुमार को समाप्त कर जोधपुर राज्य को हमेशा के लिए हड़पने की थी। वीर दुर्गादास औरंगजेब की मंशा को समझ गये और वे अन्य सरदारों के साथ मिलकर चतुरता से राजकुमार अजीतसिंह एवं रानियों को ‘बाघेली’ नामक महिला की मदद से औरंगजेब के चंगुल से बाहर निकाल लाये

वीर दुर्गादास, गोरा धाय तथा मुकुंददास खींची ने इन्हें चुपके से दिल्ली से निकाल कर सिरोही राज्य के कालिन्द्री मंदिर में छिपा दिया। इस कार्य में मेवाड़ महाराणा राजसिंह सिसोदिया ने बड़ी सहायता की। दिल्ली में एक अन्य बालक को नकली अजीत सिंह के रूप में रखा। बादशाह औरंगजेब ने बालक को असली अजीतसिंह बताते हुए उसका नाम ‘मोहम्मदीराज’ रखा।

मेवाड़ महाराजा राजसिंह ने अजीतसिंह के निर्वाह के लिए दुर्गादास को केलवा की जागीर-प्रदान की। 1707 ई. में औरंगजेब की मृत्यु होते ही अजीतसिंह ने जोधपुर पर आक्रमण किया व जोधपुर के फौजदार जाफर कुल्ली को भगा दिया व अपने पैतृक राज्य पर वापस अधिकार कर लिया।

किंतु कुछ समय बाद ही अजीतसिंह ने दुर्गादास को देश निकाला दे दिया। दुर्गादास मेवाड़ के अमरसिंह द्वितीय के यहाँ आ गये। महाराणा ने इन्हें विजयपुर की जागीर दी। 

देबारी समझौता : मारवाड़ के राजकुमार अजीतसिंह, राजा सवाई जयसिंह कच्छवाहा व मेवाड़ महाराणा अमरसिंह द्वितीय के मध्य देबारी में समझौता हुआ जिसके अनुसार अजीतसिंह को मारवाड़ तथा सवाई जयसिंह को आमेर में पदस्थापित करने व महाराणा अमरसिंह की पुत्री का विवाह सवाई जयसिंह से करने और इस विवाह से जन्म लेने वाले पुत्र को सवाई जयसिंह का उत्तराधिकारी घोषित करने पर सम्मति बनी।

जब फर्रुखसियर सैय्यद-बन्धुओं की सहायता से दिल्ली के तख्त का स्वामी बना तो अजीतसिंह जोधपुर पर नियुक्त शाही अफसरों को निकालने और उनके मुकामों को नष्ट करने तथा अजान के बन्द कराने आदि कार्यों में लग गया। इसको दण्ड देने के लिए बादशाह ने हुसैन अलीखाँ को एक बड़ी सेना के साथ मारवाड़ भेजा। अजीत मेड़ता से नागौर गया, परन्तु वहाँ भी मुगल फौज निकट आ पहुँची। अन्त में राठौड़ों ने हुसैन अ्लीखाँ की शर्तों के अनुसार सन्धि (1715 ई.) कर ली, जिसमें अजीत ने अपनी लड़की का विवाह बादशाह के साथ करना स्वीकार किया और अपने लड़के अभयसिंह को बादशाह की सेवा में भेजा। उन्हें विवश होकर अपनी पुत्री इन्द्रकुँवरी का विवाह मुगल बादशाह फर्रूखशियर से करना पड़ा किंतु अवसर पाकर उन्होंने फर्रूखशियर की हत्या में प्रमुख भूमिका निभाई और अपनी पुत्री को विधवा करके जोधपुर ले आये। उन्होंने इन्द्रकुंवरी का फिर से हिन्दूधर्म में शुद्धिकरण किया और उसका विवाह एक क्षत्रिय युवक से कर दिया। यह अंतिम मुगल-मारवाड़ विवाह माना जाता है।

अजीतसिंह धर्मपरायण राजा थे। उन्होंने ‘गुणसागर’, ‘दुर्गापाठ भाषा’, ‘निर्वाण दूहा’, ‘अजीतसिंह रा कह्या दूहा’ तथा ‘गज उद्धार’ नामक ग्रंथों की रचना की। महाराजा के लिखे हुए कई गीत भी मिलते हैं।

23 जुलाई, 1724 को महाराजा अजीतसिंह की पुत्र बख्तसिंह ने हत्या कर दी। इस हत्या में जयपुर नरेश जयसिंह तथा अजीतसिंह के बड़े पुत्र अभयसिंह का भी हाथ था। अजीतसिंह के साथ 6 रानियां, 20 दासियां, 9 उड़दा बेगणियां, 20 गायनें तथा 2 हजूरी बेगमें सती हुई। गंगा नाम की पड़दायत भी राजा के साथ जलाई गयी। उसकी भी राजा के साथ हत्या हुई। तत्कालीन इतिहासकारों का कहना है कि महाराजा की चिता में कई मोर तथा बंदर भी अपनी इच्छा से जलकर भस्म हुए। वह दिन जोधपुर में बड़े शोक, संताप और हा-हा कार का दिन था। इतिहासकार डॉ. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा ने राजा अजीत सिंह को “कान का कच्चा” कहा है।

वीर दुर्गादास राठौड़

जन्म 13 अगस्त, 1638 को महाराजा जसवंतसिंह प्रथम के मंत्री आसकरण के यहाँ मारवाड़ के सालवा गाँव में हुआ।

महाराजा जसंवतसिंह के देहान्त के बाद राजकुमार अजीतसिंह की रक्षा व उन्हें जोधपुर का राज्य पुनः दिलाने में वीर दुर्गादास राठौड़ का महती योगदान रहा।

राजस्थान के इतिहास में मेवाड़ की पन्नाधाय के पश्चात् दुर्गादास दूसरे व्यक्ति हैं जिनकी स्वामिभक्ति अनुकरणीय है।

शहजादा अकबर को औरंगजेब के विरूद्ध सहायता दी तथा शहज़ादा के पुत्र-पुत्री (बुलन्द अख्तर व सफीयतुनिस्सा) को स्लोमोचित शिक्षा देकर मित्र धर्म निभाया एवं सहिष्णुता का परिचय दिया।

अंत में महाराजा अजीतसिंह से अनबन होने पर सकुटुम्ब मेवाड़ चला आया और अपने स्वावलम्बी होने का परिचय दिया।

वीर दुर्गादास की मृत्यु उज्जैन में 22 नवम्बर, 1718 को हुई। यहाँ शिप्रा नदी के तट पर इनकी छतरी बनी हुई है। दुर्गादास के लिए कहा जाता है कि- ‘मायड एडो पूत जण, जडो दुर्गादास।’

जेम्स टॉड ने इन्हें “राठौड़ों का यूलीसैस” कहा है।

महाराजा अभयसिंह (1724-1749 ई.)

अभयसिंह महाराजा अजीतसिंह का पुत्र था जो 1724 ई. में मारवाड़ का शासक बना। अभयसिंह ने बख्तसिंह को ‘राजाधिराज’ की उपाधि व नागौर का ठिकाना दिया।

इसी के काल में 1730 ई. में जोधपुर के खेजड़ली गाँव में अमृता देवी के नेतृत्व में बारी-बारी से 363 लोग पेड़ों को पकड़ कर खड़े हो गए और महाराजा के कारिन्दों ने सभी को काट दिया। इस तरह पेड़ों की रक्षा करते हुए 363 लोग शहीद हो गए।

तथ्य

राजस्थान सरकार ने अमृतादेवी पुरस्कार की शुरूआत 1994 में की थी।

पहला पुरस्कार गंगाराम विश्नोई को दिया गया।

पहला खेजड़ली दिवस 12 सितंबर 1978 को मनाया गया।

खेजड़ली गांवमें प्रतिवर्ष भाद्र शुक्ल दशमी को वृक्ष मेला लगता है।

1734 ई. में महाराजा ने ‘हुरड़ा सम्मेलन’ में भाग लिया, जो मराठों के विरुद्ध राजपूत शासकों द्वारा एकजुटता दिखाकर लड़ने के लिए बुलाया गया था।

गंगवाना का युद्ध : गंगवाना की लड़ाई 1741 में मारवाड़ साम्राज्य और जयपुर और मुगलों की संयुक्त सेनाओं के बीच लड़ी गई थी।

महाराजा अभयसिंह को काव्य और साहित्य से अनुराग था। चारण कवि करणीदान ने उसके आश्रय में रहकर ‘सूरजप्रकाश’ नामक ग्रंथ की रचना की। भट्ट जगजीवन ने ‘अभयोदय’, वीरभाण ने ‘राजरूपक’, सुरति मिश्र ने‘अमरचन्द्रिका’ की रचना की।

बख्तसिंह (1750-52 ई.)

अभयसिंह (छोटा) के भाई व नागौर शासक बख्तसिंह ने अभयसिंह के पुत्र रामसिंह (1749-50 ई.) को पराजित कर जोधपुर पर अधिकार कर लिया। रामसिंह जयपुर के माधोसिंह प्रथम के पास चले गये। 1752 में ही सोनौली गाँव में बख्तसिंह की मृत्यु हो गयी। बख्तसिंह का शासन लगभग एक वर्ष तक ही रहा। इन्होंने आनन्दघन का मन्दिर बनवाया था।

महाराजा विजयसिंह (1752-1793 ई.)

महाराजा विजयसिंह अपने पिता बख्तसिंह की मृत्यु (1752 ई.) के बाद मारवाड़ का शासक बना। विजयसिंह ने जोधपुर में टकसाल खोली। उसके द्वारा ढ़लवाये गये सिक्के ‘विजयशाही’ के नाम से प्रसिद्ध हुए। विजयसिंह पर अपनी पासवान गुलाबराय का अत्यधिक प्रभाव था, राजकार्य उसके इशारे से ही चलता था। अतः वीर विनोद के रचनाकार श्यामलदास ने विजयसिंह को ‘जहाँगीर का नमूना’ कहा है।

विजयसिंह के शासन काल के दौरान रामसिंह और मराठों ने 1754 ई. में मारवाड़ पर आक्रमण कर दिया। इसी कारण 1755ई. को विजयसिंह को नागौर के दुर्ग में शरण लेनीपड़ी। बाद में विजयसिंह ने मराठा सरदार जयप्पा सिंधिया की हत्या करवा दी। जयप्पा सिंधिया की छतरी ताऊसर का बास(मेड़ता) में बनी है। इससे मराठा अधिक नाराज हो गए जिससे विजय सिंह को मराठों के साथ संधि करनी पड़ी। जियसिंह को संधि के तहत मराठों को अजमेर देना पड़ा साथ ही रामसिंह को जालौर का क्षेत्र और मारवाड़ का आधा राज्य देना पड़ा। 1772 में रामसिंह की मृत्युपरान्त विजयसिंह ने पुनः पूरे मारवाड़ राज्य पर अधिकार कर लिया।

तुंगा का युद्ध (1787 ई.) (जयपुर ग्रामीण) : यह युद्ध सवाई प्रतापसिंह व माधावराज सिंधिया के मध्य जयपुर ग्रामीण में लड़ा गया था। जिसमें सवाई प्रतापसिंह की विजय हुई थी। सवाई प्रतापसिंह के साथ जोधपुर के महाराजा विजयसिंह थे। प्रतापसिंह का सेनापति सूरजमल शेखावत (बिसाऊ के ठाकुर) था। जिसकी 8 खम्भों की छतरी तूंगा (जयपुर ग्रामीण) में बनी हुयी है। महादजी सिंधिया के लिए यह एक बड़ी असफलता थी, क्योंकि न तो वह राजपूतों से धनराशि वसूल सका और न ही वह उन्हें कुचल सका। युद्ध के परिणामस्वरूप प्रतापसिंह की प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई। अजमेर पर जोधपुर के शासक विजयसिंह ने अधिकार कर लिया।

डंगा का युद्ध (1790 ई.) : मेड़ता के पास डंगा नामक स्थान पर 10 सितम्बर, 1790 को सिंधिया के सेनानायक डी. बोइन ने जोधपुर के शासक विजयसिंह राठौड़ की सेना को पराजित किया। युद्ध के परिणामस्वरूप सांभर की संधि (5 जनवरी, 1791) हुई, जिसके अनुसार अजमेर शहर तथा दुर्ग एवं 60 लाख रुपये मराठों को देना निश्चित हुआ।

पासवान गुलाबराय

राजा या राजकुमार किसी भी स्त्री के पाँवों में सोने का गहना पहनाकर उसे पड़दायत बना लेते थे। पड़दायत राजा की उप पत्नी को कहते थे। पड़दायत के नाम के साथ ‘राय’ लगा दिया जाता था। इनके पुत्र को ‘बाभा’ कहते थे, जिन्हें महाराजा तख्तसिंह ने 1863 ई. में राव राजा का खिताब प्रदान किया था।

पासवान गुलाबराय ने जालौर में स्वतन्त्र सरकार की स्थापना की और राजकाज चलाया। वह गोकुलिये गोसाइयों की परम भक्त थी। इस परम सुन्दरी के मोह पाश में जोधपुर नरेश विजयसिंह ने अपनी रानियों और सरदारों को नाराज कर दिया। इससे नाराज होकर 16 अप्रेल, 1792 ई. में सरदारों ने षड्यन्त्र रचकर जोधपुर की गलियों में गुलाबराय की हत्या कर दी। गुलाबराय के कहने पर ही विजयसिंह ने जोधपुर में पशुवध और शराब की बिक्री पर रोक लगा दी थी।

भीमसिंह (1793-1803)

महाराजा भीमसिंह का जन्म 1766 ई. में हुआ। भीमसिंह ने लगभग 10 वर्षों तक शासन किया था। भीमसिंह के समय हरिवंश भट्ट ने ‘भीमप्रबंध’ नामक संस्कृत में ग्रन्थ लिखा। इनके समय रामकर्ण ने ‘अलंकारसमुच्चय’ नामक पुस्तक लिखी।

महाराजा मानसिंह (1803-1843 ई.)

सन् 1803 में उत्तराधिकार युद्ध के पश्चात् मानसिंह जोधपुर के सिंहासन पर आसीन हुए। जब मानसिंह जालौर में मारवाड़ की सेना से घिर गए थे, तब गोरखनाथ संप्रदाय के गुरु आयस देवनाथ ने भविष्यवाणी की, कि मानसिंह शीघ्र ही जोधपुर के शासक बनेंगे। अतः शासक बनते ही मानसिंह ने देवनाथ को जोधपुर आमंत्रित कर अपना गुरु बनाया तथा वहाँ नाथ संप्रदाय के ‘महामंदिर’ का निर्माण करवाया।

कृष्णाकुमारी को लेकर गिंगोली का युद्ध 1807 ई. (परबतसर) : भूतपूर्व महाराजा भीमसिंह के साथ उदयपुर के महाराणा भीमसिंह की पुत्री कृष्णाकुमारी का रिश्ता तय हुआ था लेकिन 1803 में भीमसिंह की मृत्यु हो गई तब महाराणा ने अपनी पुत्री की सगाई जयपुर के जगतसिंह से कर दी। जब ये समाचार मानसिंह को मिला तो वह 1806 में मेड़ता पहुँचा व सेना इकट्ठी की जसवन्तराय होल्कर को भी निमन्त्रण भेजा। ये समाचार जब जयपुर के जगतसिंह के पास पहुँचा तो वह भी सेना लेकर रवाना हो गया। इसी बीच अमीर खां पिण्डारी (टोंक) महाराणा भीमसिंह के पास पहुँचा और कहा “या तो आप कृष्णाकुमारी का विवाह मानसिंह के साथ करें या उसे मरवा दें वरना मैं आपके मेवाड को बरबाद कर दूँगा।” मेवाड़ की दशा उस समय कमजोर थी लाचार होकर महाराणा को इस ओर ध्यान देना पड़ा। अन्ततः अमीर खां पिण्डारी के दबाव में आकर महाराणा ने इस अल्पवयस्क कन्या को 1810 ई. में जहर देकर इसकी जीवन लीला समाप्त कर दी। जो मेवाड़ ही नहीं वरन् राजपूताने के इतिहास का कलंक है। चार्ल्स मैटकॉफ नामक अंग्रेज अधिकारी के कहने पर 6 जनवरी 1818 को जोधपुर ने सहायक संधि स्वीकार कर ली थी।

मानसिंह पुस्तक प्रकास पुस्तकालय (मेहरानगढ़ दुर्ग में) का निर्माण मानसिंह ने करवाया था।

महाराजा तख्तसिंह (1843-1873 ई.)

तख्तसिंह के राज्याभिषेक में पाल्टिकल एजेंट लुडलो आया था। 1857 की क्रांति के समय मारवाड़ का शासक तख्तसिंह ही था। तख्तसिंह ने जोधपुर में शृंगार चौकी (यहाँ जोधपुर राजाओं का राजतिलक होता था) व बिजोलाई महल बनवाया था। इसके शासन काल में मारवाड़ में प्रथम छापाखाना व स्कूल खोली गई।

महाराजा तख्तसिंह ने राजपूत जाति में होने वाले कन्या-वध को रोकने के लिए कठोर आज्ञाएँ प्रसारित की और ऐसी आज्ञाओं को पत्थरों पर खुदवाकर मारवाड़ के तमाम किलों के द्वारों पर लगा दिया गया। उसने अजमेर के मेयो-कॉलेज की स्थापना के समय एक लाख रुपये का चन्दा दिया।

महाराजा जसवन्तसिंह द्वितीय (1873-1895 ई.)

महाराजा तख्तसिंह के दो पुत्र थे। महाराजा की प्यारी मुस्लिम रखैल का नाम अनारा था। अनारा की इच्छा के कारण ही महाराजा तख्तसिंह ने अपने छोटे पुत्र जसवन्तसिंह को जोधपुर का महाराजा बनाया था। इन्होंने 1892 ई. से जसवन्त सागर का निर्माण करवाया जो जोधपुर जिले का सबसे हरा भरा क्षेत्र माना जाता है। जोधपुर में स्थित जुबली कोर्टरिसर का निर्माण महाराजा जसवन्त सिंह के प्रधानमंत्री प्रतापसिंह ने करवाया था। यह महारानी विक्टोरिया के शासन के 50 वर्ष पूरे होने की प्रशंसा में स्थापित किया गया। महाराजा जसवन्तसिंह की प्रीतपात्री नन्ही जान जोधपुर में अत्यन्त प्रभावशाली महिला थी। एक बार महर्षि दयानन्द सरस्वती ने राजा जसवन्तसिंह को मदिरा के नशे में घुत होकर नन्ही की पालकी को अपने कंधे पर उठाये हुए देख लिया इससे क्रुध होकर महर्षि दयानन्द ने राजा को धिक्कारा। इससे कुपित होकर नन्ही ने महाराजा के रसोईये गौड मिश्रा के साथ मिलकर महर्षि दयानन्द को विष दे दिया। स्वामी जी को अजमेर लाया गया जहाँ उनकी मृत्यु हो गई।

महाराजा सरदारसिंह (1895-1911 ई.)

1895 ई. में महाराजा सरदारसिंह मारवाड़ का शासक बना। 24 नवम्बर, 1895 ई. को वायसराय लार्ड ऐल्गिन के जोधपुर आने पर उनके हाथ से ‘जसवंत फीमेल हॉस्पीटल’ नामक जनाना अस्पताल का उद्घाटन करवाया। उन्हीं के हाथ से ‘ऐल्गिन राजपूत-स्कूल' का उद्घाटन करवाया गया। ‘बॉक्सर युद्ध’ में मारवाड़ की सेना चीन भेजी गई, जहां इस सेना ने वीरता दिखाई। अतः सरकार ने मारवाड़ के झंडे पर ‘चाइना 1900’ लिखने का सम्मान प्रदान किया एवं चीन से छीनी चार तोपें भी भेंट की। मई, 1910 में इन्होंने ‘एडवर्ड-रिलीफ फण्ड’ बनाया, जिसमें 29,000 रुपये सालाना मंजूर कर असमर्थ नगर-निवासियों की पेंशन का प्रबंध किया। जून, 1910 में बंगाल ऐशियाटिक सोसायटी की प्रार्थना पर राज्य की तरफ से ‘डिंगल’ भाषा की कविता आदि का संग्रह करने के लिए ‘बौद्धिक रिसर्च कमेटी’ बनाई गई। 1911 में इनकी मृत्यु हो गई।

महाराजा सुमेरसिंह (1911-1918 ई.)

सरदारसिंह के बाद सुमेरसिंह जोधपुर का महाराजा बना। प्रथम विश्व युद्ध में जोधपुर राज्य की सेना- जोधपुर लांसर्स, जोधपुर राज्य का प्रधानमंत्री- सर प्रतापसिंह तथा जोधपुर महाराजा-सुमेरसिंह (1911-1918) स्वयं फ्रांस के मोचों पर लड़ने के लिए गए।

महाराजा उम्मेदसिंह (1918-1947 ई.)

महाराजा उम्मेदसिंह को ‘मारवाड़ का निर्माता या मारवाड़ का कर्णधार’ कहते हैं। इसने पाली में जवाई नदी पर जवाई बाँध का निर्माण करवाया। महाराजा उम्मेदसिंह ने ‘उम्मेद भवन पैलेस’ (1929-1942 ई.) का निर्माण करवाया जो ‘छीतर पैलेस’ (छीतर पत्थर से) नाम से भी प्रसिद्ध है। यह इण्डो-कॉलोनियल कला का बेहतरीन नमूना है। महाराजा उम्मेदसिंह ने अपने जन्म दिवस पर 24 जुलाई, 1945 को जोधपुर राज्य में विधानसभा के गठन की घोषणा की। 28 मार्च 1947 को महाराजा ने ‘द जोधपुर लेजिस्लेटिव असेंबली रूल्स’ का अनुमोदन किया।

महाराजा हनुवंतसिंह (1947-1949 ई.)

महाराजा उम्मेदसिंह की मृत्यु के बाद 21 जून, 1947 को उनका पुत्र हनुवंतसिंह जोधपुर का महाराजा बनाया गया। इनके समय में देश आजाद हुआ। महाराजा हनुवंतसिंह पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना के साथ मिलना चाहते थे। ये तत्कालीन बीकानेर नरेश को साथ लेकर मोहम्मद अली जिन्ना से मिलने पाकिस्तान भी गये। लेकिन वी.पी. मेनन, लार्ड माउन्टबेटन एवं सरदार वल्लभभाई पटेल के समझाने से महाराजा हनुवंतसिंह बड़ी मुश्किल से भारतीय संघ में मिलने को तैयार हुए।

बीकानेर का राठौड़ वंश

बीकानेर का पुराना नाम ‘जांगलदेश’ था। इसके उत्तर में कुरू व मद्र देश थे इसलिए महाभारत में इस क्षेत्र का नाम कुरू और मद्र के साथ जुड़ा हुआ मिलता है। जैसे- कुरूजांगला, माद्रेजांगला आदि। बीकानेर में राठौड वंश का शासन था, बीकानेर के राजा जांगलदेश के स्वामी थे इसलिए इन्हें ‘जांगलधर बादशाह’ कहते है और बीकानेर के राज्य चिह्न में जयजांगलधर बादशाह लिखा हुआ है। मध्य काल में इस क्षेत्र की राजधानी अहिच्छत्रपुर थी, जो इस समय नागौर हैं।

राव बीका (1465-1504 ई.)

बीका का जन्म जोधपुर के राजा राव जोधा की पत्नी सांखली रानी नौरंगदे से हुआ, बीका का जन्म 5 अगस्त 1438, मंगलवार को हुआ।

बीकानेर की स्थापना

एक बार जोधा का दरबार लगा हुआ था, तब राव बीका व बीका के चाचा कांधल आपस में काना-फूसी कर रहे थे तब जोधा ने पूछा “आज चाचा-भतीजे में क्या सलाह हो रही है क्या कोई नया ठिकाणा जीतने की योजना चल रही है” जब कांधल ने कहा आपके प्रताप से यह भी हो जाएगा। उस समय जांगलू का नापा सांखला भी दरबार में आया हुआ था उसने बीका से कहा “जांगलू बिलोचों के आक्रमण से कमजोर हो गया और सांखले इसे छोड़कर अन्यत्र चले गए अगर आप चाहे तो जांगलू पर आसानी से अधिकार कर सकते है” राव जोधा को भी यह बात पसन्द आयी उसने बीका और कांधल को नापा के साथ नया राज्य स्थापित करने की आज्ञा दे दी। तब बीका अपने चाचा कांधल व कुछ सरदारों के साथ 30 सितम्बर 1465 को जोधपुर से रवाना हुआ और नए राज्य की स्थापना की। मण्डोर होते हुए बीका देशनोक पहुँचा व करणी माता से आशीर्वाद लिया। यहां से चलकर बीका कोडमदेसर आया, और बीका ने अपने आपको राजा घोषित किया। फिर यहां से जांगलू पहुँचकर सांखलों के चौरासी गांव पर अधिकार किया।

ख्यातों में उल्लेख मिलता है कि पूगल का भाटी राव शेखा लूट-पाट करता था, एक बार वह मुल्तान की ओर गया हुआ था, शेखा को मुल्तान में कैद कर लिया। शेखा को मुक्त कराने के बदले शेखा की पत्नी ने अपनी पुत्री रंगकुंवरी का विवाह बीका से कर दिया।

कोडमदेसर में जब बीका दुर्ग बनवा रहा था, तब जैसलमेर के भाटी राव शेखा से बीका का विवाद बढ़ गया भाटियों के साथ युद्ध हुआ, युद्ध में भाटियों की हार हुई लेकिन बीका को भाटियों से युद्ध की आशंका हमेशा थी। इस कारण भाटियों की परेशानी को देखकर बीका ने अन्य स्थान पर दुर्ग की योजना बनायी। 1485 में रातीघाटी स्थान पर गढ़ की नींव रखी और 12 अप्रैल 1488 आखा तीज पर गढ़ के आस-पास अपने नाम पर बीकानेर नगर बसाया, आखा तीज को बीकानेर दिवस के रूप में मनाया जाता है। महाराणा कुम्भा के पुत्र ऊदा ने अपने पिता कुम्भा की हत्या कर दी और मेवाड़ का शासक बन गया। मेवाड़ सरदारों ने ऊदा को हटाने की योजना बना ली और ऊदा के छोटे भाई रायमल को ईडर से बुलवा लिया। इसने चित्तौड़ को घेर लिया, रायमल की विजय हुई, ऊदा भागकर कुम्भलगढ़ आया। यहां से अपने दोनों पुत्र सेसमल व सूरजमल के साथ ऊदा अपने ससुराल सोजत आया, इसके बाद वह बीका के पास आया, बीका ने इसे शरण तो दी लेकिन सहायता करने से इन्कार कर दिया। इसके बाद ऊदा माण्डू सुल्तान गयासुद्दीन खिलजी के पास चला गया वहां बिजली गिरने से उसकी मृत्यु हो गई।

बीकानेर के उत्तर-पूर्व में जाटों का अधिकार था, शेखसर का इलाका गौदारा जाट पाण्डू के अधिकार में तथा भाडंग सारण जाट पूल्ला के अधीन था किसी बात को लेकर पाण्डू व पूल्ला के मध्य विवाद हो गया, तब पूल्ला ने रायसाल व सिदमुख के कसवां जाट कंवर पाल की सहायता मांगी परन्तु पाण्डू का सहायक बीका था इस कारण किसी की भी पाण्डू से युद्ध की हिम्मत नहीं हुई तब सभी मिलकर सिवाणी के स्वामी नरसिंह जाट के पास गये और उसे पाण्डू के विरूद्ध ले आये, पाण्डू की हार हुई तब बीका व कांधल सिद्धमुख में थे।

पाण्डू ने उनके पास जाकर सहायता मांगी उन्होंने पूल्ला का पीछा किया, सिद्धमुख के पास नरसिंह को मार दिया और रायसल, कंवरपाल व पूल्ला आदि ने अधीनता स्वीकार कर ली, इस प्रकार जाटों के सभी ठिकानों पर बीका का अधिकार हो गया। बीका ने पाण्डू के वंशजों को बीकानेर के राजाओं का राजतिलक करने का अधिकार दिया, बीकानेर के राठौड़ राजपूतों का राजतिलक गोदारा जाट पाण्डू के वंशज करते हैं।

कांधल हिसार के पास था तब हिसार के फौजदार सारंगखां ने कांधल की हत्या कर दी तब बीका ने सारंगखां को मारने की प्रतिज्ञा ली और उसने जोधा को सूचना देने के लिए चौथमल को जोधपुर भेजा, जोधा भी मेड़ता के दूदा व वरसिंह के साथ सहायता के लिए आया, द्रोणपुर में पिता व पुत्र मिले यहां से सेना आगे बढ़ी झांसल में दोनों दलों के मध्य युद्ध हुआ बीका के पुत्र नरा के हाथों सारंगखां मारा गया

सारंगखां को मारकर वापस लौटते समय जोधा ने बीका से कहा "बीका तू तो सपूत है अतः मैं तुमसे एक वचन मांगता हूँ एक तो लाडनूं मुझे दे दे और तूने अपने पराक्रम से नया राज्य भी स्थापित कर लिया अतः तू जोधपुर राज्य को अपने भाई को दे दे" बीका ने यह बात स्वीकार कर ली ओर कहा "मेरी भी एक प्रार्थना है मैं बड़ा पुत्र हूँ अतः मुझे तख्त, छत्र, आपकी ढाल-तलवार मुझे मिलनी चाहिए" जोधा ने कहा में जोधपुर पहुँचकर यह सारी वस्तुएँ पहुँचा दूंगा।

जोधा का देहान्त होने के बाद गद्दी पर सातल देव बेठा, वह अधिक समय तक शासन नहीं कर पाया और मुसलमानों के हाथों मारा गया इसके कोई संतान नहीं थी तो सातल का छोटा भाई सूजा राजगद्दी पर बैठा, बीका ने राजचिहन लाने के लिए पड़िहार बेला को सूजा के पास जोधपुर भेजा परन्तु सूजा ने यह वस्तुएँ देने से इन्कार कर दिया, तब बीका ने बड़ी फौज के साथ जोधपुर पर आक्रमण कर दिया व जोधपुर दुर्ग को घेर लिया। 10 दिन में ही दुर्ग में पानी की समस्या हो गई, तब सूजा की माता हाडी सजमादे के मध्यस्ता में समझौता हुआ, बीक़ा ने समझौता कर लिया व अपनी पूजनीय चीजें तख्त, ढाल, तलवार, चंवर, छत्र आदि बीकानेर ले आया। ये वस्तुएं वर्तमान में बीकानेर दुर्ग में रखी हुई हैं, वर्ष में दो बार विजयादशमी व दीपावली को बीकानेर के शासक स्वयं इसकी पूजा करते है।

बीका की अंतिम चढाई रेवाड़ी पर थी। बीका की मृत्यु 1504 ई. में हुई।

राव नरा (1504-05 ई.)

बीका की मृत्यु के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र नरा बीकानेर का शासक बना, लेकिन कुछ माह बाद ही इसकी 1505 में मृत्यु हो गई।

राव लूणकरण (1505-26 ई.)

बीका की रानी रंगकुंवरी (पूगल के राव शेखा की पुत्री) का पुत्र था इसका जन्म 1470 ई. में हुआ, नरा के निस्संतान मरने के कारण लूणकरण को राजा बनाया गया।

राव बीका ने जिन क्षेत्र को बीकानेर में मिलाया था, उनमें कुछ क्षेत्र उत्पात करने लग गए थे। लूणकरण ने इनका दमन शुरू किया, सर्वप्रथम 1509 में ददरेवा (चूरू) पर आक्रमण किया, यहाँ का स्वामी मानसिंह चौहान था जिसने 7 मास तक किले में रहकर लूणकरण का मुकाबला किया परन्तु खाद्य सामग्री की कमी होने के कारण गढ़ के द्वार खोलने पड़े मानसिंह अपने 500 साथियों सहित लूणकरण के छोटे भाई घड़सी के हाथों मारा गया। ददरेवा का परगना लूणकरण के अधीन हो गया, लूणकरण यहाँ थाना स्थापित करके वापिस आ गया।

फतेहपुर कायमखानियों के अधिकार में था, यहाँ दौलतखां शासन कर रहा था। लूणकरण ने 1512 में फतेहपुर पर आक्रमण किया और फतेहपुर पर भी अधिकार कर लिया।

1513 ई. में नागौर के शासक मोहम्मद खाँ ने बीकानेर पर आक्रमण कर दिया किन्तु उसे पराजय का मुंह देखना पड़ा।

इसके उपरान्त लूणकरण ने जैसलमेर पर आक्रमण किया और वहाँ के शासक राव जैतसी को पराजित कर बंदी बना लिया। किन्तु लूणकरण ने कुछ समय के उपरान्त ही उसे मुक्त कर दिया और दोनों में मित्रता स्थापित हो गई।

चायलवाड़ा सिरसा व हिसार की सीमा पर है। लूणकरण ने यहाँ आक्रमण किया यहाँ का चायल स्वामी पूना से भटनेर आ गया, और इस क्षेत्र पर भी लूणकरण का अधिकार हो गया।

लूणकरण ने 1514 में मेवाड़ के रायमल की पुत्री से विवाह किया था उस समय मेवाड़ के महाराणा संग्रामसिंह थे।

जोधपुर के राव जोधा ने नागौर के खान पर आक्रमण किया तब लूणकरण नागौर के खान की सहायता के लिए गया था।

लूणकरण की मृत्यु 1526 में नारनोल के शेख अबीमीरा से लड़ते हुए हुई थी।

जयसोम ने (रायसिंह के दरबारी) लूणकरण की तुलना ‘कर्मचन्द्रवंशोत्कीर्तनकं काव्यम्’ में ‘दानी कर्ण’ से की है।

बीठू सूजा (राव जैतसिंह के दरबारी) द्वारा लिखित ‘जैतसी रो छंद’ में लूणकरण को कलयुग का कर्ण कहा गया है।

राव जैतसिंह (1526-42 ई.)

लूणकरण के बड़ा पुत्र जैतसिंह का जन्म 1489 में हुआ।

1527 में जैतसिंह ने द्रोणपुर पर चढ़ाई के लिये सेना भेजी। उदयकरण का पुत्र कल्याणमल द्रोणपुर से भागकर नागौर आ गया। जैतसिंह ने द्रोणपुर सांगा को सौंप दिया इसके बाद जैतसिंह ने सांगा को सिंहाणकोट की ओर जोहियों के विरुद्ध भेजा जोहियों का सरदार तिहुणपाल लाहौर की ओर चला गया।

हुमायूँ ने अपना साम्राज्य चारों भाईयों में बांट दिया। कामरान ने लाहौर पर अधिकार कर लिया, उस समय तक बीकानेर के राठौड़ स्वतंत्र थे तब कामरान एक बड़ी सेना के साथ बीकानेर की ओर रवाना हुआ, सतलज नदी को पार कर भटिण्डा व अबोहर के बीच से होते हुए भटनेर को घेर लिया। उस समय भटनेर कांधल के पौत्र खेतसिंह के अधिकार में था, खेतसिंह यहाँ युद्ध करते हुए मारा गया और भटनेर पर कामरान का अधिकार हो गया। भटनेर से कामरान की फौज बीकानेर की ओर रवाना हुई, जैतसिंह बड़ी सेना का सामना करना उचित न समझ कर दूर हट गया, भोजराज रूपावत बीकानेर के पुराने गढ़ की रक्षा करते हुए मारे गए, गढ़ पर मुगलों का अधिकार हो गया, जैतसिंह ने एक सेना तैयार करके 26 अक्टुबर 1534 को रात्रि के समय मुगलों पर आक्रमण कर दिया, राठौड़ों के इस आक्रमण को मुगल सेना सहन नहीं कर पाई और लाहौर की ओर भाग गई।

मालदेव ने कूंपा के नेतृत्व में बीकानेर पर सेना भेजी, जैतसिंह ने अपने मंत्री नागराज को सहायता के लिए शेरशाह सूरी के पास भेजा व जैतसिंह ने अपने पुत्र कल्याणमल व परिवार को भी नागराज के साथ भेजा, नागराज ने जैतसिंह के परिवार को सिरसा में छोड़ा और स्वयं शेरशाह सूरी के पास गया और उधर जैतसिंह मालदेव की सेना से युद्ध करने के लिए आया और इस युद्ध में जैतसिंह की मृत्यु हुई।

इस युद्ध को पाहेबा-साहेबा युद्ध कहा जाता है जो 1542 में हुआ था। मालदेव ने बीकानेर कूंपा को सौंप दिया। कूंपा से ही राठौड़ों की कूंपावत शाखा चली थी।

राव कल्याणमल (1542-74 ई.)

सिरसा से ही कल्याणमल अपने राज्य को वापस लेने का प्रयास करने लगा। शेरशाह सूरी जब मालदेव पर आक्रमण के लिए दिल्ली से रवाना हुआ तब सिरसा से कल्याणमल भी शेरशाह सूरी से मिल गया। 1544 ई. के गिरी सुमेल के युद्ध में मालदेव की हार हुई व जोधपुर पर शेरशाह का अधिकार हो गया और कल्याणमल को भी शेरशाह की सहायता से बीकानेर वापस मिल गया।

सितम्बर 1570 में अकबर ख्वाजा साहब की जियारत के लिए अजमेर की ओर रवाना हुआ, 12 दिन फतेहपुर में रुककर अजमेर में पहुँचा इसके बाद वह नवम्बर में नागौर आया, यहाँ ‘शुक्र तालाब’ बनवाया। जब अकबर नागौर में रुका हुआ था, राजस्थान के कई राजा यहाँ पहुँचे व बीकानेर का कल्याणमल अपने पुत्र रायसिंह के साथ नागौर पहुँचा व अधीनता स्वीकार की, कल्याणमल बीकानेर का प्रथम शासक है जिसने मुगलों की अधीनता स्वीकार की। यहाँ से कल्याणमल बीकानेर आ गया और कुंवर रायसिंह बादशाह की सेवा में रहा।

1571 में कल्याणमल की मृत्यु हो गई। कल्याणमल के बाद शासक उसका बड़ा पुत्र रायसिंह बना व इसका एक अन्य पुत्र पृथ्वीराज राठौड़ अकबर के दरबार में चला गया था।

पृथ्वीराज राठौड

पृथ्वीराज राठौड़ का चरित्र बड़ा ही आदर्श और महत्वपूर्ण है, पृथ्वीराज का जन्म 6 नवम्बर 1549 को हुआ। पृथ्वीराज विष्णु का परम् भक्त था पृथ्वीराज को संस्कृत और डींगल भाषा का अच्छा ज्ञान था। पृथ्वीराज को ‘डींगल का हेरोन्स’ कहा जाता है। डींगल का हेरोन्स पृथ्वीराज को इटली के टेस्सीटोरी ने कहा था। अकबर के दरबार में पृथ्वीराज का अच्छा सम्मान था, अकबर ने इन्हें गागरोन की जागीर दी थी, गागरोन दुर्ग में पृथ्वीराज राठौड़ ने डींगल भाषा में 1580 मेंवेली किशन रूकमणी री’ नामक ग्रंथ लिखा था। इस ग्रंथ को दुरसाआढ़ा ने पांचवां वेद व 19 वां पुराण कहा था।

पृथ्वीराज के वंशज पृथ्वीराजोत बीका कहलाते हैं। पृथ्वीराज बड़े ही देशप्रेमी थे, अकबर के दरबार में रहने के बाद भी यह महाराणा प्रताप के प्रति श्रद्धा रखते थे, राजपूताने में ऐसी जनश्रुति है कि एक दिन बादशाह ने पृथ्वीराज से कहा कि राणा प्रताप अब मुझे बादशाह कहने लग गया और हमारी अधीनता स्वीकार करेगा, पृथ्वीराज को यह विश्वास नहीं हुआ तब उन्होंने महाराणा प्रताप को एक दौहा लिखा -

पातल जो पतसाह, बोलै मुख हूंतां बयण।
मिहर पछम दिस मांह, ऊगे कासप राव उत।।
पटकूं मूंछां पाण, के पटकूं निज तन करद।
दीजे लिख दीवाण, इण दो महली बात इक।।

(अर्थ : महाराणा प्रताप अगर अकबर को बादशाह कहे तो सूर्य पश्चिम में उग जाये अर्थात् जैसे सूर्य का पश्चिम में उदय होना असम्भव है वैसे ही महाराणा प्रताप के मुख से बादशाह निकलना असम्भव है। हे महाराणा मैं अपनी मूछों पर ताव दूँ या अपनी तलवार का अपने ही शरीर पर प्रहार करूँ, इन दोनों में से मैं क्या करूँ आप लिख दीजिए)

उपर्युक्त दोहे के उत्तर में महाराणा ने लिखा-

तुरक कहासी मुख पतौ, इण तन सूं इकलिंग।
ऊगै जांही ऊगसी, प्राची बीच पतंग।।
खुसी हूंत पीथल कमध, पटको मूंछां पाण।
पछटण है जेतै पतौ, कलमाँ सिर केवाण।।
सांग मूंड सहसी सको, समजस जहर सवाद।
भड़ पीथल जीतो भलां बैण तुरक सूं वाद।।

(अर्थ : बादशाह को मैं तुर्क ही कहूंगा, मेरा राजा एकलिंगजी हैं वहीं रहेंगे, सूर्य पूर्व में उदय हो रहा है पूर्व में ही होगा, हे पृथ्वीराज राठौड़ जब तक प्रतापसिंह की तलवार यवनों के सिर पर है तब तक आप अपनी मूछों पर खुशी से ताव लगाएं) पृथ्वीराज राठौड़ ने अकबर को 6 माह पूर्व ही बता दिया था कि मेरी मृत्यु मथुरा के विश्रांत घाट पर होगी, पृथ्वीराज की मृत्यु विश्रांत घाट पर 1600 ई. में हुई।

महाराजा रायसिंह (1574-1612 ई.)

रायसिंह ने अपनी उपाधि ‘महाराजाधिराज व महाराजा’ रखी। अकबर ने रायसिंह ‘राय’ उपाधि व 4000 मनसब दी।

जोधपुर के शासक मालदेव ने अपने बड़े पुत्र राम को जोधपुर का शासक न बनाकर झालीरानी स्वरूपदे से विशेष अनुराग के कारण तीसरे पुत्र चंद्रसेन को उत्तराधिकारी बनाया था। 1570 में बादशाह अकबर नागौर आया तब जोधपुर की गद्दी के हकदार राम व उदयसिंह बादशाह के पास गये, चन्द्रसेन भी अपने पुत्र रायसिंह सहित नागौर दरबार में उपस्थित हुआ यहाँ पर अकबर का पक्षपात रवैया देखकर चन्द्रसेन वापस भद्राजुन आ गया उस समय अकबर ने रायसिंह को जोधपुर का प्रशासन सौंपा था, जोधपुर राज्य की ख्यात में अकबर द्वारा रायसिंह को जोधपुर 1572 में दिया जाना लिखा है।

अकबर ने रायसिंह को इब्राहीम हुसेन मिर्जा के विरूद्ध भेजा था, रायसिंह अकबर के साथ गुजरात अभियान में भी गया था।

1574 में जब बादशाह अजमेर में था तब उसे चन्द्रसेन के विद्रोह की सूचना मिली उस समय चन्द्रसेन सिवाना के गढ़ में था। अकबर ने रायसिंह, शाह कूल्ली खां, केशव दास आदि को चन्द्रसेन के विरूद्ध भेजा उस समय सोजत पर मालदेव के पौत्र व राम के पुत्र कल्ला का अधिकार था, मुगलों ने इस पर अधिकार कर लिया। इसके बाद मुगल सेना सिवाने की ओर चली चन्द्रसेन ने राठौड़ पता को गढ़ सौंपकर पहाड़ियों में आ गए 2 वर्ष तक घेराबंदी के बाद में रायसिंह सिवाना दुर्ग को नहीं जीत पाया तब अकबर ने रायसिंह को वापस बुलवा लिया व शाहबाज खां को भेजा। शाहबाज खां ने इस दुर्ग को जीत लिया था।

1581 में काबुल के शासक हाकिम मिर्जा जो अकबर का सौतेला भाई था, ने विद्रोह कर दिया और भारत की ओर अग्रसर होने लगा, उस समय सिंधु के निकटवर्ती प्रदेशों में मुहम्मद युसुफ खां नियुक्त था, बादशाह ने इसे हटाकर मानसिंह को भेजा, बाद में मानसिंह की सहायता के लिए रायसिंह, जगन्नाथ आदि को भेजा। मिर्जा हाकिम पंजाब पहुँच गया, तब बादशाह स्वयं पंजाब की ओर रवाना हुआ बादशाह के आगमन की सूचना सुनकर हाकिम यहाँ से भाग गया तब बादशाह ने शहजादे मुराद, रायसिंह व मानसिंह को मिर्जा हाकिम को समझाने के लिए भेजा, न माने तो युद्ध का आदेश दिया, मिर्जा हाकिम ने मुकाबला किया व हार हुई काबुल पर भी बादशाह का अधिकार हो गया। बादशाह स्वयं काबुल पहुँचा मिर्जा हाकिम को क्षमा कर दिया व वापस काबुल का अधिकारी बना दिया, इसके बाद बादशाह सरहिंद पहुँचा, इसके बाद रायसिंह, भगवनदास अपनी अपनी रियासत में आ गए।

1585 में बलुचिस्तान में विद्रोह हुआ, विद्रोह को दबाने के लिए अकबर ने रायसिंह को भेजा था। 1586 में अकबर ने रायसिंह व भगवन दास को लाहौर का प्रशासक नियुक्त किया।

1589 बीकानेर के जूनागढ़ का निर्माण प्रारम्भ हुआ, 1594 में गढ़ बनकर पूर्ण हुआ। ये दुर्ग मंत्री कर्मचन्द की देखरेख में बना था। जूनागढ़ को जमीन का जेवर भी कहा जाता है।

अकबर ने रायसिंह को जूनागढ़ (काठियावाड़, गुजरात) का प्रदेश सौंपा था। 1600 ई. में भगवनदास के पुत्र माधोसिंह को हटाकर नागौर का परगना रायसिंह को दिया था।

1603 में अकबर ने पुनः सलिम को मेवाड़ अभियान पर भेजा इसमें सलिम के साथ रायसिंह, जगन्नाथ, माधोसिंह, मोटा राजा का पुत्र सकतसिंह आदि कई राजपूत थे। सलिम फतेहपुर में रूका, सलिम का मेवाड़ जाने का मन नहीं था इसलिए बादशाह से आदेश लेकर इलाहाबाद चला गया।

1605 में जब अकबर बीमार हुआ उस समय दरबार में मानसिंह व खान आजम कर्ता-धर्ता थे ये दोनों खुसरों को बादशाह बनाना चाहते थे क्योंकि खुसरों मानसिंह का भाणजा व खान आजम का जवांई था।

ऐसे समय में रायसिंह एक ऐसा व्यक्ति था जिस पर सलिम भरोसा कर सकता था सलिम ने शीघ्रताशीघ्र आने के लिए निमंत्रण भेजा।

अक्टुबर 1605 को अकबर की मृत्यु हुई, सलिम जहांगीर नाम से बादशाह बना, बादशाह बनते ही रायसिंह की मनसबदारी जो अकबर के समय 4000 थी बढ़ाकर 5000 कर दी गई।

जहांगीर ने रायसिंह की नियुक्ति दक्षिण में कर दी, 1612 ई. में बुरहानपुर में मृत्यु हुई। रायसिंह ‘मुगल साम्राज्य का स्तम्भ’ माना जाता है।

रायसिंह के समय में घोर त्रिकाल पड़ा, जिसमें हजारों व्यक्ति एवं पशु मारे गए। महाराजा ने व्यक्तियों के लिए जगह-जगह ‘सदाव्रत’ खोले एवं पशुओं के लिए चारे-पानी की व्यवस्था की। इसलिए मुंशी देवी प्रसाद ने इसे ‘राजपूताने का कर्ण’ की संज्ञा दी है। रायसिंह के समय बीकानेर में रहकर जैन साधु ज्ञानविमल ने महेश्वर के ‘शब्द भेद’ की टीका समाप्त की थी। रायसिंह ने ‘रायसिंह महोत्सव’ व ‘ज्योतिष रत्नाकर/रत्रमाला’ नामक ग्रंथ लिखे थे। ज्योतिष रत्नमाला एक टिका है जो बालबोधिनी पर लिखी गई है।

अकबर ने रायसिंह को जूनागढ़, नागौर, शम्साबाद आदि की जागीरे दी थी। ‘कर्मचन्द्रवंशोत्कीर्तनकं काव्यं’ में रायसिंह को 'राजेन्द्र' कहा गया है।

महाराजा दलपतसिंह (1612-13 ई.)

दलपतसिंह के ज्येष्ठ होने पर भी भटियाणी रानी गंगा पर विशेष प्रेम होने के कारण रायसिंह की इच्छा थी कि गंगा का पुत्र सूरसिंह बीकानेर का शासक बने इसलिए रायसिंह ने अपना उत्तराधिकारी सूरसिंह को नियुक्त किया। दलपतसिंह जहांगीर की सेवा में उपस्थित हुआ, जहांगीर ने उसे राय का खिताब दिया व शासक नियुक्त किया व पैतृक राज्य सौंप दिया। दलपतसिंह ने अनूपगढ़ के नजदीक चूड़ेहर दुर्ग बनवाना प्रारम्भ किया परन्तु भाटियों के विरोध करने के कारण दुर्ग नहीं बनवा पाया।

कुछ दिनों बाद जहांगीर ने बीकानेर का राज्य सूरसिंह को दे दिया व दलपतसिंह को गद्दी से हटाने के लिए नवाब जियाउद्दीन खां को भेजा, सूरसिंह जब शाही सेना लेकर रवाना हुआ तब दलपतसिंह भी सेना लेकर छापर पहुँचा, दोनों दलों में युद्ध हुआ, जियाउद्दीन खां भाग गया दलपतसिंह की विजय हुई तब जियाउद्दीन ने दिल्ली से ओर सहायता मंगवायी व सूरसिंह ने सभी सरदारों को अपनी तरफ मिला लिया केवल ठाकुर जीवणदासोत दलपतसिंह की तरफ ही रहा। ये भटनेर का शासक था, दूसरे दिन लड़ाई प्रारम्भ होने पर दलपतसिंह हाथी पर चढ़कर मैदान में आया, दलपतसिंह के पीछे चूरू का ठाकुर भीमसिंह बैठा था, इसने दलपतसिंह के दोनों हाथ पकड़ लिये व दलपतसिंह को बंदी बना लिया।

तुजुक ए जहांगीरी’ में लिखा है दलपतसिंह को गिरफ्तार करके बादशाह के आगे पैश किया, दलपतसिंह को मृत्यु दण्ड दे दिया।

महाराजा सूरसिंह (1613-31 ई.)

सूरसिंह का जन्म 1594 में हुआ। दलपत सिंह को परास्त करके 1613 में बीकानेर का शासक बना। सूरसिंह को बादशाह जहांगीर ने दक्षिणी सूबों में खूर्रम के विरुद्ध भेजा था, जहांगीर के समय सूरसिंह की मनसबदारी 3 हजार जात व 2 हजार सवार थी। शाहजहां ने सूरसिंह की मनसबदारी बढ़ाकर 4 हजार जात व ढाई हजार सवार कर दी।

सूरसिंह को काबुल में मुहम्मद खां के विरूद्ध भी भेजा था।

सूरसिंह की जैसलमेर से वैवाहिक संबंध न करने की प्रतिज्ञा

ख्यातों में लिखा है कि सूरसिंह की एक भतीजी (रामसिंह की पुत्री) जैसलमेर के रावल हरराज के पुत्र भीमसिंह से हुआ था। भीमसिंह की मृत्यु के बाद जैसलमेर के सरदारों ने उसके पुत्र को मारने का निश्चय किया तब रानी ने अपने चाचा सूरसिंह से पुत्र की रक्षा का निवेदन किया, सूरसिंह 1 हजार राजपूतों के साथ जैसलमेर की ओर रवाना हुआ, लाठी गांव के पास उसे बालक की हत्या का समाचार मिला। जैसलमेर वालों की इस नृशंस कार्य के कारण सूरसिंह ने प्रतिज्ञा की कि बीकानेर की किसी भी राजकुमारी का विवाह जैसलमेर में नहीं किया जाएगा।

जैसलमेर की तवारीख में सूरसिंह की भतीजी के पुत्र का फलौदी में चेचक या जहर से मरना लिखा है व भतीजी के स्थान पर बहन लिखा है।

जहांगीर के समय सूरसिंह को राजा की उपाधि से सम्बोधित किया है, शाहजादे खुर्रम ने सूरसिंह को ‘उच्च कुल के राजाओं में सर्वश्रेष्ठ’ लिखा है। सूरसिंह की मृत्यु 1631 में बुरहानपुर के नजदीक बौहरी गांव में हुई थी।

महाराजा कर्णसिंह (1631-69 ई.)

सूरसिंह के ज्येष्ठ पुत्र कर्णसिंह का जन्म 1616 ई. में हुआ था।

जोधपुर के राजा गजसिंह का ज्येष्ठ पुत्र अमरसिंह था परन्तु गजसिंह ने जोधपुर का शासक जसवंतसिंह को बना दिया अमरसिंह बादशाह की सेवा में चला गया, बादशाह ने उसे राव का खिताब व नागौर की जागीर दी। एक जनश्रुति है कि बीकानेर सीमा के खेत में मतीरे की एक बैल लग गई थी जो फैलकर नागौर की सीमा में चली गई थी और मतीरा भी नागौर की सीमा में लगा। जब नागौर का किसान मतीरा तोड़ने आया तो बीकानेर वाले ने मना किया इस पर किसानों का झगड़ा हुआ और ये सूचना शासकों के पास पहुँच गई और दोनों के मध्य झगड़ा हुआ। राजपूतानें में इसे ‘मतीरे की राड़’ कहा जाता है। ये झगड़ा 1644 ई. में हुआ था।

कर्णसिंह के अधीन पूगल का राव सुदर्शन भाटी विद्रोही हो गया कर्णसिंह ने सेना सहित गढ़ को घेर लिया 1 माह की घेराबंदी के बाद सुदर्शन भागकर लखवेराज आ गया, मुहणौत नैणसी यह घटना 1665 के आस-पास बताता है।

शाहजहां ने 1648-49 में कर्णसिंह की मनसबदारी बढ़ाकर 2 हजार जात व 2 हजार सवार कर दी व दौलताबाद का किलेदार भी नियुक्त किया, इसके 1 वर्ष बाद इसकी मनसबदारी बढ़ाकर ढाई हजार जात व ढाई हजार सवार कर दी व 1652 में कर्णसिंह की मनसबदारी 3 हजार जात व 2 हजार सवार कर दी।

मुगल शहजादों में उत्तराधिकार संघर्ष के समय कर्णसिंह तटस्थ रहे। लेकिन उन्होंने अपने दो पुत्रों-प‌द्मसिंह और कैंसरीसिंह को औरंगजेब की ओर से भेजा।

जब औरंगजेब अपने अधीन हिन्दु राजाओं को लेकर ईरान की ओर चला तो मार्ग में कर्णसिंह को अनेक षड्यंत्र की जानकारी हुई कि वह उन्हें इस्लाम में दीक्षित करवाने की इच्छा रखता है। जब बादशाह और राजपूत राजा अटक में डेरा डाले हुए थे तो कर्णसिंह ने योजना तैयार की कि जब बादशाह की सेनाएँ अटक नदी पारकर ले तो सारे हिन्दु सरदार नदी पार न करें और अपने अपने राज्य में लौट जाये। सभी सरदारों ने ऐसा ही किया और उन्होंने कर्णसिंह को जांगल धर बादशाह की उपाधि प्रदान की। औरंगजेब ने कर्णसिंह को औरंगाबाद भेज दिया। वहाँ कर्णसिंह ने अपने नाम पर कर्णपुरा गांव बसाया व केसरीसिंहपुरा व पदमपुरा गांव भी बसाये। कर्णसिंह ने इनमें से एक गांव वल्लभ सम्प्रदाय के गोकुलजी विट्ठल नाथजी को भेंट कर दिया था, कर्णपुरा, केसरीसिंहपुरा व पदमपुरा 1904 तक बीकानेर राज्य के अधीन रहे। जब अंग्रेजों ने औरंगाबाद की छावनी को बढ़ाना चाहा तब इनके बदले में इतनी ही आय के पंजाब जिले के दो गांव रताखेड़ा और बावलवास और पच्चीस हजार रुपये नगद देकर बीकानेर के अधीन किये थे। 22 जून, 1669 ई. को औरंगाबाद में कर्णसिंह की मृत्यु हो गई।

कर्णसिंह के समय लिखे गए ग्रंथ -

  1. साहित्यकल्पद्रुम : यह अलंकार संबंधी ग्रंथ है, ये बड़े-बड़े 383 पत्रों पर लिखा गया है इसके प्रारम्भ में महाराजा रायसिंह से कर्णसिंह तक वंश विवरण है। यह ग्रंथ कई विद्वानों की सहायता से कर्णसिंह ने लिखवाया था।
  2. कर्णभूषण व काव्य डाकिनी : पण्डित गंगानंद मैथिल द्वारा लिखा गया है।
  3. कर्णवतंस : भट्ट होसिक द्वारा रचित।
  4. कर्णसन्तोष : कवि मुद्रल द्वारा रचित।

महाराजा अनूपसिंह (1669-98 ई.)

अनूपसिंह का जन्म 1638 में हुआ। फारसी तवारीखों के अमुसार अनूपसिंह मुगलों की ओर से बड़ी वीरता से लड़ा था, इसी कारण अनूपसिंह को खाजहां बहादुर जफरगंज कोकल्दास का खिताब दिया व अनूपसिंह को महाराजा की उपाधि दी।

महाराणा राजसिंह ने राजसमंद झील बनवाकर उत्सव का आयोजन किया, इस उत्सव में राजसिंह का बहनोई अनूपसिंह उपस्थित नहीं हो सका, तब राजसिंह ने अनूपसिंह के लिए मनमुक्ति नाम का हाथी सहणसिंगार नाम का घोड़ातेज निधान घोड़ा, वस्त्र व आभूषण जोशी माधव के साथ बीकानेर भेजे।

औरंगजेब की ओर से अनूपसिंह दक्षिण में गोलकुण्डा की लड़ाई में शामिल हुआ इसके अलावा आदूणी और औरंगाबाद में बादशाह की ओर से शासक रहा। औरंगजेब ने अनूपसिंह को ‘माही मरातिब’ की उपाधि दी। माहीमरातिब की उपाधि फारस के बादशाह नौशेरवा के पौत्र खुसरो परवेज ने सर्वप्रथम इसका प्रारम्भ किया था। अनूपसिंह के अतिरिक्त महाराजा गजसिंहमहाराजा रतनसिंह को भी माहीमरातिब की उपाधि मिली थी।

अनूपसिंह दक्षिण में आदूणी में नियुक्त था, इसके पास भाटियों के विद्रोह की सूचना मिली, तो अनूपसिंह ने मुकन्दराय को भाटियों के विरुद्ध भेजा, भाटियों को हराकर गढ़ पर अनूपसिंह ने अधिकार कर लिया और 1678 ई में नये गढ़ का निर्माण प्रारम्भ हुआ जिसका नाम अनूपगढ़ रखा गया।

महाराजा अनूपसिंह ने जोधपुर का राज्य अजीतसिंह को देने के लिए बादशाह औरंगजेब से निवेदन किया था, परन्तु औरंगजेब ने यह निवेदन स्वीकार नहीं किया था।

औरंगजेब के बीजापुर अभियान में भी अनूपसिंह गया था, 1698 में आदूणी में अनूपसिंह की मृत्यु हुई।

बीकानेर में “उस्ता कला” का सर्वाधिक विकास इनके समय हुआ तथा उस्ता कला की शुरूआत महाराजा रायसिंह के समय हुई थी।

अनूपसिंह ने संस्कृत में अनूपविवेक, कामप्रबोध, श्रज्ञाद्धप्रयोग चिन्तामणि ग्रंथ लिखे व गीत गोविंद पर ‘अनुपोदय’ नामक टीका लिखी। अनूपसिंह के समय इसके दरबार में विद्यानाथ सूरी ने ‘ज्योत्पत्तिसार’ ग्रंथ व मणिराम दीक्षित ने अनूपव्यवहारसागर’ ‘अनूपविलास', ‘धर्मशास्त्र ग्रंथ’, अनन्त भट्ट ने तीर्थ ‘रत्नाकर’ ग्रंथ, उदयचन्द्र ने ‘पाण्डित्यदर्पण’ नामक ग्रंथ लिखे।

अनूपसिंह ने अपने पिता के समय ‘शुकसारिका’ ग्रंथ का भाषा अनुवाद किसी विद्वान से करवाया था। अनूपसिंह के आश्रय में आनन्दराम ने श्रीधर की टीका के आधार पर गीता का गद्य-पद्य में अनुवाद किया था।

औरंगजेब के राजगद्दी पर बैठने के बाद जब औरंगजेब ने संगीत पर प्रतिबंध लगाया तब शाहजहां के दरबार का प्रसिद्ध संगीताचार्य जनार्दनभट्ट का पुत्र भावभट्ट अनूपसिंह के दरबार में आया था यहाँ रहते हुए उसने ‘संगीतअनूपांकुश’, ‘अनूपसंगीतविलास’, ‘अनूपसंगीतरत्नाकर’ नामक ग्रंथ लिखे थे। औरंगजेब की कट्टरता के कारण दक्षिण में आक्रमण के समय वहाँ के ब्राह्मणों को धार्मिक ग्रंथों को नष्ट करने का भय रहता था। मुसलमानों के हाथों पुस्तकों के नष्ट होने के भय से वे इन्हें नदियों में बहा देते थे। संस्कृत ग्रंथों के इस प्रकार नष्ट होने से हिन्दू संस्कृति के नष्ट होने की आशंका थी, तब अनूपसिंह ने उन ब्राह्मणों को धन देकर यह पुस्तकें बीकानेर भिजवायी। बीकानेर पुस्तकालय में ये बहुमूल्य पुस्तकें अभी तक सुरक्षित हैं। महाराणा कुम्भा द्वारा बनाये गये संगीत ग्रंथों का पूरा संग्रह बीकानेर पुस्तकालय में ही है।

दक्षिण में जब मुसलमान सैनिक हिन्दू मंदिरों व मूर्तियों को तोड़ते थे, तब अनूपसिंह दक्षिण में रहते हुए इन मूर्तियों की रक्षा की और इन्हें बीकानेर पहुँचाया, ये मूर्तियाँ बीकानेर के किले में अभी तक सुरक्षित हैं जो ‘तैंतीस करोड़ देवी देवताओं का मंदिर’ नाम से प्रसिद्ध है।

7 मार्च 1672 को महाराष्ट्र के औरंगाबाद स्थित शाही दीवानखाने में बीकानेर के राजकुमार मोहनसिंह और औरंगाबाद के कोतवाल मुहम्मद मीर तोजक के बीच एक हिरण को लेकर विवाद हुआ। कोतवाल मुहम्मद मीर तोजक औरंगजेब के शहजादे मुअज्जम का साला था तो मोहनसिंह भी शाहजादे के अतिप्रिय थे। हिरण के इस विवाद ने देखते ही देखते ही झगड़े का रूप ले लिया। दोनों ओर से तलवारें खींच गई। मोहनसिंह अकेले थे और कोतवाल के साथ उसके कई सहयोगी थे। अत: कुछ क्षण की ही तलवारबाजी के बाद कोतवाल के आदमियों ने मोहनसिंह की पीठ पर पीछे से एक साथ कई वार कर गहरे घाव कर दिए। इन घावों से बहे रक्त की वजह से निस्तेज होकर मोहनसिंह दीवानखाने के खम्बे के सहारे खड़े हुए ही थे कि कोतवाल के एक अन्य आदमी ने उनके सिर पर वार किया, जिससे वे मूर्छित से होकर भूमि पर गिर पड़े। दीवानखाने के दूसरी ओर मोहनसिंह के बड़े भाई पद्मसिंह बैठे थे। झगड़े व अपने भाई के घायल होने का समाचार सुनकर वे दौड़ते हुए आये और तलवार लेकर कोतवाल पर झपट पड़े और एक ही प्रहार में कोतवाल का सिर कलम कर दिया

बीकानेर राज्य और बनमाली दास प्रकरण

बीकानेर नरेश महाराजा अनूप सिंह के अनौरस (पासवानिए) भाई वनमाली दास दिल्ली जाकर बादशाह औरंगजेब की सेवा में रहा और मुस्लिम धर्म तक स्वीकार कर लिया। बादशाह ने बीकानेर का आधा मनसब उस (वनमाली दास) को प्रदान कर दिया। तब कुछ फौज को साथ लेकर बनमाली दास बीकानेर गया। राज्य की ओर से उसका अच्छा सत्कार किया गया। वनमाली दास ने बीकानेर के बाहर मन्दिर के सामने मुर्गे और बकरे कटवाये

जब बीकानेर नरेश महाराजा अनूप सिंह के पास यह खबर पहुंची तब उसने मुहता दयाल दास तथा कोठारी जीवन दास को उसके पास भेज कर यह कहलवाया कि, अपने पूर्वजों के द्वारा बनवाए गए मंदिर के निकट पशु मरवाना उचित नहीं है। परंतु, वनमाली दास इस पर क्रुद्ध हो उठा और उसने उत्तर दिया कि मेरी जो मर्जी आएगी मैं करुंगा।

इस समय बनमाली दास को मारने का कार्य अनूप सिंह ने लक्ष्मी दास को बुलाकर उसे सौंपा और उसकी सहायता के लिए राजपुरा के बीका भीमराजोत को उसके साथ कर दिया।

कुछ दिन बीत जाने के उपरांत यह दोनों अनूप सिंह के विद्रोहियों के रूप में चंगोई में रह रहे बनमाली दास के पास पहुंचे। अनूप सिंह ने इस संबंध में बनमाली दास को सचेत करते हुए एक पत्र उसके पास भेज दिया था, परंतु इससे उसने और अधिक उत्तेजित होकर इन दोनों को अपनी सेवा में रख लिया।

अनंतर सोनगरे लक्ष्मी दास ने बनमाली दास से यह अर्ज की कि मैं अपने साथ एक डोला लाया हूं, यदि आप उससे विवाह कर लें तो आपका मुझ पर बहुत बड़ा उपकार होगा। बनमाली दास के स्वीकार कर लिए जाने के उपरांत एक दास-पुत्री का विवाह उसके साथ कर दिया गया, जिसने विवाह की रात्रि को ही पूर्व आदेशानुसार, बनमाली दास को शराब में संखिया मिला कर पिला दिया, जिससे उसी समय उसकी मृत्यु हो गई। बनमाली दास के साथ एक नवाब भी बीकानेर गया था। जब उस नवाब ने बादशाह से यह सब हाल बता देने का भय दिखवाया तो एक लाख रुपए की एक बड़ी धनराशि देकर उसका मुंह बंद कर दिया गया, जिससे उस नवाब ने बादशाह को यही सूचित किया कि बनमाली दास स्वाभाविक मृत्यु से मरा है। इस प्रकार इस घटना से महाराजा अनूप सिंह के शत्रु बनमाली दास का अंत हो गया और अनूप सिंह पर बादशाह की भी कोई नाराजगी नहीं हुई।

स्वरूपसिंह (1698-1700 ई.)

अनूपसिंह का ज्येष्ठ पुत्र जिसका जन्म 1689 में हुआ। अनूपसिंह की मृत्यु के समय वह आदूणी में ही था । स्वरूपसिंह की उम्र कम होने के कारण बीकानेर का शासन स्वरूपसिंह की माता सिसोदा रानी चलाती थी। लगभग 2 वर्ष तक स्वरूपसिंह ने शासन किया व शीतला (चेचक) रोग से इसकी मृत्यु हो गई।

महाराजा सुजानसिंह (1700-1735 ई.)

स्वरूपसिंह की छोटी अवस्था में निस्सन्तान मृत्यु होने के कारण उसका छोटा भाई सुजानसिंह शासक बना। उस समय औरंगजेब दक्षिणी अभियान में था। औरंगजेब ने सुजानसिंह को दक्षिण में बुलवाया व लगभग 10 वर्ष तक सुजानसिंह दक्षिण में ही रहा। जसवंत सिंह की मृत्यु के बाद औरंगजेब ने जोधपुर को खालसा कर दिया था, अहमदनगर में औरंगजेब की मृत्यु के बाद अजीतसिंह ने जोधपुर पर अधिकार कर लिया। औरंगजेब की मृत्यु के बाद मुगल बादशाह मुअज्जम बहादुर शाह नाम से बादशाह बना। अजीतसिंह बीकानेर पर आक्रमण के लिए चला व लाडनू में आकर डेरा डाला व भण्डारी रघुनाथ को बड़ी सेना देकर बीकानेर की ओर भेजा। बीकानेर पर अजीतसिंह का अधिकार हो गया तब बीकानेर के सरदारों, भूकरका के ठाकुर पृथ्वीराज व मलसीसर के बीदावत आदि ने सेना एकत्रित करके जोधपुर की सेना से मुकाबला किया तब जोधपुर की सेना वापस लौट गई।

जोरावर सिंह

ठाकुर भीमसिंह ने जोरावरसिंह से भटनेर पर अधिकार करने की आज्ञा ली। भटनेर दुर्ग तलवाड़े के जोहिया स्वामी मल्ला गोदारा के अधीन था। भीमसिंह ने जोहिया मल्ला को धोखे से मरवा दिया। भटनेर पर भीमसिंह का अधिकार हो गया। दुर्ग में चार लाख सम्पति हाथ लगी। इसने सारी सम्पति स्वयं रख ली।

बीकानेर सेना नाराज होकर वापस लौट गई। यह सूचना जोरावरसिंह को मिलने पर उसने हसन खां भट्टी को भटनेर पर अधिकार करने के लिये भेजा। भीमसिंह भाग गया। हसन खां का भटनेर पर अधिकार हो गया।

राज माता सिसोदिणी ने बीकानेर में चतुर्भुज मंदिर बनवाया।

जोरावरसिंह ने इसकी प्रतिष्ठा की 1744 में जोरावरसिंह ने कोलायत जाकर चांदी का तुला दान किया। कुछ समय बाद रेवाड़ी के गुजरमल ने जोरावरसिंह के पास संदेश भेजा की आप और हम मिलकर हिसार पर अधिकार कर ले। जोरावरसिंह ने सेना भेजी। दौलतसिंह व बख्तावरसिंह रिणी भेजे गये। जुझारसिंह व साहबसिंह चंगोई गये। फिर सेना हासी हिसार भेजी गयी और वहाँ जोरावरसिंह का अधिकार हो गया। हिसार से लौटते समय जोरावरसिंह अनूपपुर में ठहरे वहाँ इनकी मृत्यु हो गई।

जोरावरसिंह ने संस्कृत में दो ग्रंथ वैद्यकसार व पुजा पद्यति लिखी। रसिकप्रिया पर टिकाएँ लिखी। जोरावरसिंह ने 1734 के हुरड़ा सम्मेलन में भाग लिया था।

गज सिंह (1746-1787 ई.)

गजसिंह का विवाह जैसलमेर के रावल अखैराज की पुत्री चंद्रकुंवरी से हुआ था। बादशाह अहमद शाह ने हिसार की जागीर गजसिंह को दी थी क्योंकि हिसार दूर होने के कारण बादशाह इसका सुचारू रूप से प्रबंध नहीं कर पा रहा था। गजसिंह ने बख्तावरसिंह को भेजकर 1752 में हिसार पर अधिकार कर लिया।

बादशाह अहमद शाह के समय वजीर मनसूर अल्ली खां ने विद्रोह कर दिया। गजसिंह ने बादशाह की सहायता के लिए सेना भेजी, समय पर सहायता देने के कारण बादशाह ने गजसिंह की मनसबदारी 7000 कर दी व गजसिंह को ‘श्री राजराजेश्वर महाराजाधिराज महाराजाशिरोमणि श्री गजसिंह’ की उपाधि दी व गजसिंह को ‘माहीमराति’ की श्रेष्ठ उपाधि भी दी।

राजसिंह

राजसिंह बीमार रहने के कारण राज कार्य मनसुख नाहटा को सौंपा था। 21 दिन राज्य करने के पश्चात 1787 में राजसिंह की मृत्यु हो गई। कर्नल टॉड के अनुसार राजसिंह के भाई सूरतसिंह की माता ने राजसिंह को जहर दे दिया था। राजसिंह की चिता में उनका एक सेवक मण्डलावत संग्रामसिंह ने भी अग्नि में प्रवेश किया था।

महाराजा सूरतसिंह (1787-1828 ई.)

सूरतसिंह ने जयपुर के शासक प्रतापसिंह की युद्ध में सहायता की थी। जयपुर की सहायता करने के कारण जॉर्ज टॉमस ने बीकानेर पर आक्रमण किया टॉमस ने सर्वप्रथम जीतपुर को जीता। सूरतसिंह ने टॉमस से समझौता कर लिया।

सूरतसिंह ने 1804 में अमरचन्द सुराणा के नेतृत्व में भटनेर पर आक्रमण के लिए भेजा। जाब्ताखां ने बाध्य होकर बीकानेर के सरदारों से कहा हम पर आक्रमण न करने का वचन दिया जाए तो हम गढ़ छोडकर चले जाएंगे, ये वचन पाकर जाब्ताखां व सभी भट्टी गढ़ छोड़कर राजपुरा चले गए। 1805 में भटनेर पर बीकानेर का अधिकार हो गया। ये दुर्ग मंगलवार के दिन जीता गया था इसलिए इसका नाम हनुमानगढ़ कर दिया गया। सूरतसिंह ने 1818 में अंग्रेजों से सहायक संधि कर ली। सूरतसिंह ने अपने शासनकाल में सूरतगढ़ का निर्माण करवाया था। सूरतसिंह के समय दयालदास ने ‘बीकानेर राठौड़ री ख्यात’ लिखी थी।

महाराजा रतनसिंह (1828-1851 ई.)

रतनसिंह को अकबर द्वितीय ने माहीमरातिब की उपाधि दी। 1836 में अपने पिता की स्मृति में देवीकुण्ड में एक छतरी बनवायी व अन्य छतरियों का जीर्णोद्धार करवाया। इसके बाद महाराजा गया की यात्रा के लिए रवाना हुए। मथुरा, वृंदावन, प्रयाग, काशी आदि होते हुए महाराजा गया पहुँचे वहाँ महाराजा ने अपने सरदारों से 1837 में पुत्रियों को न मारने की प्रतिज्ञा करवायी। इसके बाद बीकानेर पहुँचकर 1844 में अंग्रेजों से भी इस प्रथा को रोकने का निवेदन किया व नियम बनाया कि सभी सरदार अपनी हैसियत के अनुसार विवाह करेंगे, जिसके पास भूमि नहीं है वह विवाह में 100 रुपये खर्च करेगा जिसमें से त्याग के 10 रुपये होंगे।

द्वितीय सिख (1848) युद्ध में रतनसिंह ने अंग्रेजों की सहायता के लिए ऊंटों की सेना भेजी थी।

1846 में महाराजा ने अपने नाम पर रतनबिहारी मंदिर (बीकानेर) बनवाया। रतनसिंह की प्रसंशा में जसरत्नाकर ग्रंथ लिखा गया व बीठू भोमा ने रतनविलास ग्रंथ लिखा, कविया सागरदान ने रतनरूपक ग्रंथ लिखा।

महाराजा सरदार सिंह (1851-72 ई.)

सरदार सिंह ने कई कुप्रथाओं को बंद किया। अतिरिक्त महाजनों से ‘बाछ’ नाम से कर लिया जाता था वह बंद कर दिया। सरदार सिंह ने कानून बनाया कि मृत्यु भोज पर ‘लापसी’ के अलावा कुछ नहीं बनेगा। 1854 में सरदार सिंह ने सती प्रथा व जीवित समाधि पर रोक लगा दी।

1857 की क्रान्ति के समय बीकानेर के महाराजा थे।

1857 ई. की क्रान्ति के समय सरदारसिंह ने तन, मन, धन से अंग्रेजों का साथ देने हेतु सेना लेकर रियासत से बाहर बांडलू (पंजाब) एवं हिसार (हरियाणा) गये थे। 1857 की क्रांति में एकमात्र सरदारसिंह ही शासक है जो स्वयं विद्रोहियों से युद्ध करने के लिए गये थे। सरदार सिंह ने अंग्रेजों को आश्रय भी दिया। 1859 में तात्या टोपे, राव साहब, फिरोज शाह आदि को सीकर में कर्नल होम्स ने हराया, इनमें से 600 विद्रोही भागकर बीकानेर चले गये उन्होंने सरदार सिंह के माध्यम से अंग्रेजों से क्षमा-याचना मांगी। सरदार सिंह के कहने पर अंग्रेजों ने इन्हें माफ कर दिया। अंग्रेजों की सहायता करने के कारण सरदारसिंह को टीबी तहसील के 41 गांव अंग्रेजों ने उपहार में दिये

सरदार सिंह ने अपने नाम पर सरदारशहर (चूरू) नामक कस्बा बसाया।

क्रांति से पूर्व बीकानेर में सिक्के बादशाह शाह आलम द्वितीया के नाम से चलते थे, विद्रोह के बाद जब भारत का शासन विक्टोरिया के अधीन आया तब सरदारसिंह ने सोने व चाँदी के सिक्कों पर बादशाह का नाम हटाकर ‘औरंगाराय हिन्द व इंग्लिस्तान क्वी विक्टोरिया 1859’ और दूसरी तरफ ‘जर्ब श्री बीकानेर 1916’ फारसी लिपि में लिखवाया। सरदार सिंह ने रसिकशिरोमणी मंदिर बनवाया।

महाराजा डूंगरसिंह (1872-1887 ई.)

सरदार सिंह के कोई पुत्र नहीं था तब डूंगरसिंह को शासक बनाया गया।

काबुल की दूसरी लड़ाई में 1878 में महाराजा ने अंग्रेजों की सहायता करते हुए 800 ऊंट भेजे थे।

डूंगरसिंह के समय बीकानेरी भुजिया प्रसिद्ध हुई।

बीकानेरी भुजिया मोठ की दाल से बनायी जाती हैं।

डूंगरसिंह के समय 1884-85 ई. को बीकानेर में भूमि बन्दोबस्त का कार्य किया गया।

महाराजा गंगासिंह (1887-1943 ई.)

यह डूंगरसिंह के भाई तथा लालसिंह के पुत्र थे। 13 वर्ष की आयु में बीकानेर के राजा बने। गंगासिंह के अल्पव्यस्क होने के कारण अंग्रेजों ने रिजेन्सी कॉन्सिल परिषद का गठन किया। जिसके अध्यक्ष कर्नल थार्नटन थे।

गंगासिंह की शिक्षा व्यवस्था के लिए मेयो कॉलेज के पंडित रामचन्द्र दुबे को शिक्षक नियुक्त किया।

1891 ई. बीकानेर में रेल की शुरूआत हुई व तार सेवा भी प्रारंभ हो गई।

1896-97 ई. इन्होंने गंगा रिसाला (ऊँट सैनिक) दल का गठन किया।

विक्रमी संवत् 1956 ईस्वी 1899- 1900 में बीकानेर ही नहीं सम्पूर्ण राजपूताने में अकाल पड़ा। अकाल के साथ लोगों में हैजे की बीमारी फैल गई। इस समय गंगा सिंह ने सहायक कार्यों में राजधानी में शहरपनाह का कार्य बढ़ाया गया, ‘गजनेर झील’ का निर्माण प्रारम्भ किया। भारत सरकार ने अकाल के समय किये गये जनता के हित के कार्यों से खुश होकर गंगासिंह को प्रथम श्रेणी का केसर-ए-हिंद पदक दिया।

चीन में एक नया आन्दोलन चला जिसे ‘बॉक्सर आन्दोलन’ नाम दिया गया, बॉक्सर दल ने चीन में रहने वाले ईसाइयों पर आक्रमण कर दिया, ईसाइयों की हत्याऐं की, बॉक्सर दल ने पटरियों को उखाड़ना, स्टेशनों को नष्ट करना शुरू कर दिया। इस विद्रोह को दबाने के लिए 3 फौज की टुकडियां भारत से भी भेजी गई थी, गंगासिंह ने भी इस युद्ध में जाने की अभिलाषा प्रकट की, महारानी विक्टोरिया ने स्वीकृति दे दी तब 1900 ई. में गंगासिंह गंगारिसाला सेना लेकर रवाना हुये। भारतीय राजाओं में केवल गंगासिंह ही स्वयं चीन युद्ध में सम्मिलित हुए थे।

1902 में एडवर्ड सप्तम के राज्यारोहण में लंदन गये वहाँ प्रिंस ऑफ वेल्स ने गंगासिंह को अपना ए.डी.सी. नियुक्त किया और इसी अवसर पर इन्हें चीन युद्ध पदक भी दिया गया।

1904 में गंगासिंह को के.सी.एस.आई. (नाईट कमाण्डर ऑफ दी स्टार ऑफ इण्डिया) की उपाधि दी।

1905 में अंग्रेजों ने जब औरंगाबाद छावनी का विस्तार करने का निर्णय लिया तब गंगासिंह ने करणपुरा, पदमपुरा, केसरीसिंहपुरा आदि गांव अंग्रेजों को दिये अंग्रेजों ने इन गांवों के बदले बावलवास गांव (हिसार जिला) व रत्ताखेड़ा गांव व 25000 रुपये गंगासिंह को दिये।

1905 में प्रिंस ऑफ वेल्स भारत में घूमने आया था। वह बीकानेर भी आया। गंगासिंह ने इनकी याद में ’प्रिंस जॉर्ज मेमोरियल हॉल’ बनवाया इसकी नींव प्रिंस ने ही रखी थी। बाद में सम्राट जॉर्ज पंचम के रजत जुबली की याद में इसे पुस्तकालय में परिवर्तन कर दिया।

1907 में सम्राट एडवर्ड सप्तम ने गंगासिंह की उत्तम शासन प्रणाली व कर्तव्य पालन के उपलक्ष्य में जी. सी. आई. ई. (नाइट ग्रेड कमाण्डर ऑफ दी इण्डियन एम्पायर) की उपाधि दी।

1909 में एडवर्ड सप्तम ने अंग्रेजी सेना का सम्मानित पद लेफ्टिनेन्ट कर्नल गंगासिंह को दिया।

1911 में लंदन में जॉर्ज पंचम के राज्याभिषेक में गये। वहाँ केम्ब्रीज युनिवर्सिटी ने इन्हें एल. ई. डी. (डॉक्टर ऑफ लॉ) की उपाधि दी।

1912 में गंगासिंह को राज्य करते हुए 25 वर्ष हो गये थे। बीकानेर में रजत जयंती महोत्सव मनाया गया, इस अवसर पर गंगासिंह ने डूंगर मेमोरियल कॉलेज का उद्घाटन किया, जिसमें बालकों को अंग्रेजी की उच्च शिक्षा दी जाती थी।

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद में वर्सिलेज की संधि में भारतीय राजाओं में सिर्फ गंगासिंह के हस्ताक्षर हैं। इस समय जब ये गंगासिंह यूरोप में थे तब उन्हें ऑक्सर्फोड यूनिवर्सिटी ने इन्हें डी. सी. एल. (डॉक्टर ऑफ सिविल लॉ) की उपाधि दी।

मिश्र के सुल्तान ने इन्हें ‘ग्रैन्ड कॉर्डन ऑव दी ऑर्डर ऑव दी नाइल’ की उपाधि दी।

मॉन्टेग्यू चेम्सफॉर्ड सुधारों को सही रूप में लागू करने के लिए जॉर्ज पंचम ने अपने चाचा ड्यूक ऑफ कनोट को 1921 में भारत भेजा इसने दिल्ली के ‘दरबार आम’ में दरबार लगाया, यहाँ नरेन्द्र मण्डल की स्थापना की जिसका चांसलर गंगासिंह को बनाया गया।

1921 में गंगासिंह ने जमीदार-परामर्शिणी सभा की स्थापना की गई इसमें चुने गये तीन प्रतिनिधियों की व्यवस्थापक सभा थी, इसमें जमीदारों की शिकायतों को दूर किया गया।

महाराजा गंगासिंह बीकानेर में गंगनहर लेकर आये, गंगनहर लाने के कारण गंगासिंह को आधुनिक भारत का भागीरथ कहा जाता है।

गंगनहर का निर्माण कार्य 1927 ई में पूर्ण हुआ इसका उद्घाटन लार्ड इरविन ने किया, इस उद्घाटन में मदनमोहन मालवीय भी थे।

महाराजा गंगासिंह तीनों गोलमेज सम्मेलनों (1930, 1931, 1932) में देशी राज्यों के प्रतिनिधित्व के रूप में भाग लिया था।

1932 ई. में गंगासिंह ने बीकानेर में “सार्वजनिक सुरक्षा कानून” लागू किया। जिसे बीकानेर का काला कानून कहते हैं।

पहले बीकानेर रेलवे का प्रबंध जोधपुर के तहत था। महाराजा गंगासिंह ने 1924 बीकानेर रेलवे विभाग अलग से बना दिया

सार्दुल सिंह(1943-47 ई.)

यह बीकानेर रियासत के अन्तिम महाराजा थे।

बीकानेर राजस्थान की प्रथम रियासत थी, जिसने सर्वप्रथम भारतीय संघ में शामिल होने की स्वीकृति दी। सार्दुलसिंह स्पोर्ट्स नाम से स्कूल बीकानेर में है। आई.जी.एन.पी के इंजीनियर कंवर सेन इनके दरबार में थे। राजस्थान एकीकरण के समय 30 मार्च 1949 ई. को बीकानेर राजस्थान में शामिल हो गया।

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