स्थायी रूप से बसने के लिए जनजातियों द्वारा सरल भूमि हथियाने की प्रक्रिया शुरू की गई थी, जो अंत में सुनियोजित समुदायों में बदल गई. इन समुदायों ने राज्यों या ‘जनपदों’ को जन्म दिया और आदिवासी पहचान एक विशेष राज्य के क्षेत्र को परिभाषित करने के लिए एक प्रमुख कारक बन गई. धीरे-धीरे, इनमें से कुछ राज्यों का विस्तार होने लगा और इसलिए उन्हें महाजनपद के रूप में जाना जाने लगा। बौद्ध और जैन धर्म के प्रारंम्भिक ग्रंथों में महाजनपद नाम के सोलह राज्यों का विवरण मिलता है।
सिकन्दर के अभियानों से आहत तथा अपनी स्वतन्त्रता को सुरक्षित रखने को उत्सुक दक्षिण पंजाब की मालव, शिवि तथा अर्जुनायन जातियाँ, जो अपने साहस और शौर्य के लिए प्रसिद्ध थी, अन्य जातियों के साथ राजस्थान में आयीं और सुविधा के अनुसार यहाँ बस गयीं। इनमें भरतपुर का राजन्य और मत्स्य जनपद, नगरी का शिवि जनपद, अलवर का शाल्व जनपद प्रमुख हैं।
मत्स्य शब्द का सर्वप्रथम उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है जहां मत्स्य निवासियों को सुदास का शत्रु बताया गया है।
मत्स्य जनपद आधुनिक जयपुर, अलवर, भरतपुर के मध्यवर्ती क्षेत्र में विस्तृत था।
इसकी राजधानी विराटनगर थी।
राज्य में अलवर का उत्तरी भाग कुरु जनपद का हिस्सा था। इसकी राजधानी इन्द्रपथ थी।
इसका क्षेत्र वर्तमान पूर्वी अलवर,धौलपुर,भरतपुर तथा करौली था।
इसकी राजधानी मथुरा थी।
वासुदेव पुत्र कृष्ण का संबंध किस जनपद से था।
अवंति महाजनपद महत्व वर्तमान मध्य प्रदेश की सीमा में था परंतु सीमावर्ती राजस्थान का क्षेत्र इसके अंतर्गत आता था।
योद्धेय जनपद वर्तमान श्रीगंगानगर हनुमानगढ़ क्षेत्र में विस्तृत था।
राजन्य जनपद वर्तमान भरतपुर क्षेत्र में विस्तृत था।
अर्जुनायन जनपद अलवर क्षेत्र में विस्तृत था।
शाल्वजनपद अलवर क्षेत्र में विस्तृत था।
बीकानेर और जोधपुर जिलों को महाभारत काल में कहा जाता है।
मालव जनपद का समीकरण टोंक जिले में स्थित नगर या ककोर्टनगर से किया जाता है।
मालवो में श्री सोम नामक राजा हुआ जिसने 225 ई. में अपने शत्रुओं को परास्त करने के उपलक्ष में एकषष्ठी यज्ञ का आयोजन किया।
ऐसा प्रतीत होता है कि समुद्रगुप्त के काल तक वे स्वतंत्र बने रहे।
हमें राज्य में जिस जनपद के सर्वाधिक सिक्के अब तक प्राप्त हुए हैं वह मालवजनपद ही है। राज्य में मालवजनपद के सिक्के रैढ तथा नगर (टोंक) से प्रमुखता से मिले हैं।
मालवो द्वारा 57 ईसवी पूर्व को मालव संवत के रूप में उपयोग किया गया। यह संवत पहले कृत फिर मालव और अंततः विक्रम संवत कहलाया।
मेवाड़ प्रदेश (चितौड़गढ) नामकरण की दृष्टि से द्वितीय शताब्दी में शिवजनपद (राजधानी माध्यमिका) के नाम से प्रसिद्ध था। बाद में ‘प्राग्वाट‘ नाम का प्रयोग हुआ। कालान्तर में इस भू भाग को ‘मेदपाट‘ नाम से सम्बोधित किया गया।
राज्य में शिविजनपद के अधिकांश सिक्के नगरी क्षेत्र से ही प्राप्त हुए हैं।
इस जनपद का उल्लेख पाणिनी कृत अष्टाध्यायी से मिलता है।
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