एक व्यवस्थित राज्य के लिये प्रशासनिक व्यवस्था अनिवार्य तत्त्व है। मध्यकाल में राजस्थान की प्रशासनिक व्यवस्था से तात्पर्य मुगलों से सम्पर्क के बाद से लेकर 1818 ई. में अंग्रेजों के साथ हुई सन्धियों की काल अवधि के अध्ययन से है। इस काल अवधि में राजस्थान 22 छोटी-बड़ी रियासतें थी, और अजमेर मुगल सूबा था, इन सभी रियासतों का अपना प्रशासनिक तन्त्र था, लेकिन कुछ मौलिक विशेषताये एकरूपता लिये हुए भी थी। रियासते मुगल सूबे के अन्तर्गत होने के कारण मुगल प्रभाव भी था। राजस्थान की मध्यकालीन प्रशासनिक व्यवस्था के मूलतः तीन आधार थे –
सम्पूर्ण शासन तंत्र राजा और सामन्त व्यवस्था पर आधारित था। प्रशासन को चुस्त दुरुस्त बनाने की दृष्टि से मुगल शासन प्रणाली की कुछ व्यवस्थाओं को राजस्थान में भी लागू किया गया। रियासतों ने अपने प्रशासन को परगनों, तहसीलों और ग्रामों जिसे तपो भी कहते थे, अंतिम इकाई गाँव अर्थात मोजा आदि में विभाजित किया, विभिन्न इकाइयों पर मुत्सददी अर्थात अधिकारी नियुक्त किये, यह एक नई नौकरशाही विकसित हुई धीरे-धीरे यह मुत्सददी (अधिकारी) वर्ग भी वंशानुगत हो गया मुत्सददी वर्ग को वेतन के रूप में जागीर प्रदान की जाती थी, लेकिन यह जागीर वंशानुगत नहीं होती थी वरन् मुत्सददी की मृत्यु के बाद जागीर खालसा कर दी जाती थी। मध्यकालीन नौकरशाही के लिये कोई निश्चित नियम नहीं थे, शासक इन अधिकारियों से परामर्श किया करता था।
राजा - राजा सम्पूर्ण शक्ति का सर्वोच्च केन्द्र था, लेकिन पिता तुल्य शासन कर्ता एवं मंत्री परिषद से परामर्श लेता था। राजा के प्रशासनिक कार्यों को सम्पादित करने के लिये मुत्सददी वर्ग की पदसोपान व्यवस्था थी |
प्रधान - राजा के बाद यह प्रमुख होता था तथा राजा की अनुपस्थिति में राजकार्य देखता था।
विभिन्न रियासतों में प्रधान के अलग-अलग नाम थे- कोटा और बूंदी में दीवान, मेवाड़, मारवाड़ और जैसलमेर में प्रधान, जयपुर में मुसाहिब और बीकानेर में मुखत्यार कहते थे। आवश्यक नहीं था कि सभी रियासतों में यह पद राजपूतों को ही दिया जाय।
जाट शासित भरतपुर रियासत में राजा सूरजमल (1756-25 दिसम्बर 1763ई.) ने नया प्रशासनिक ढांचा स्थापित किया, शासकीय पदों के लिये धर्म और जाति को आधार नहीं माना, सूरजमल एक योद्धा के साथ-साथ योग्य प्रशासक एवं कृषि विशेषज्ञ भी था। भरतपुर में राजा के बाद प्रधान को मुखत्यार कहते थे।
दीवान एवं बक्षी - अधिकाशतः जहाँ तीन प्रमुख थे वहाँ बक्षी होते थे; यह सेना विभाग का प्रमुख होता था, जोधपुर में फौज बक्षी भी होता था।
बक्षी सेना विभाग के अतिरिक्त रसद व्यवस्था, सेना का अनुशासन एवं प्रशिक्षण आदि देखता था।
नायब बक्षी - यह सेना और किलों पर होने वाले खर्च का विवरण रखता था और सामन्तों की रेख’ का भी हिसाब रखता था।
शिकदार - यह मुगल प्रशासनिक व्यवस्था के कोतवाल के समान होता था, यह गैर सैनिक कर्मचारियों के रोजगार से सम्बंधित कार्य देखता था।
परम्परागत न्याय व्यवस्था थी, राजा सर्वोच्च न्यायाधीश होता था, सामन्त अपनी जागीर में प्रमुख न्यायाधीश की स्थिति रखता था। इसके अतिरिक्त गाँवों में ग्राम पंचायते होती थी। खालसा क्षेत्र में न्याय का कार्य हाकिमों के द्वारा किया जाता था, जागीर में जागीरदार न्यायाधिकारी होता था।
जातिय पंचायते भी होती थी। छोटी चौरियों और सामाजिक अपराध सम्बन्धित झगड़े जाति पंचायत, ग्राम पंचायत द्वारा सुलझालिये जाते थे, वहाँ नहीं सुलझने पर हाकिम और जागीरदार के न्यायालय में जाते, भूमि विवाद सम्बन्धि त झगड़े भी आवश्यकता पड़ने पर हाकिम और जागीरदार के न्यायालय में जाते थे। बड़े अपराध एवं मृत्यु दण्ड सम्बन्धित विवादों में अन्तिम निर्णय राजा का होता था।
न्याय का आधार परम्परागत सामाजिक एवं धार्मिक व्यवस्था थी। मुकदमों का कोई लिखित रिकार्ड नहीं रखा जाता था। गवाही सम्बन्धित कोई पृथक अधिनियम नहीं था।
डॉ. एम.एस. जैन ने लिखा है कि “अपराध को व्यक्ति के विरुद्ध अपराध माना जाता था, समाज के विरुद्ध नहीं। कानून के समक्ष सब बराबर नहीं थे। एक ही अपराध के लिये दण्ड देते समय दोनो अपराधी और जिसके विरुद्ध अपराध किया गया की सामाजिक स्थिति देखकर ही दण्ड दिया जाता था।” न्याय व्यवस्था के अनुसार सामन्त को ‘सरणा’ (शरणागत) का अधिकार था, यदि कोई सामन्त की शरण में चला जाय तो उसकी रक्षा करना सामन्त की प्रतिष्ठा का प्रश्न बन जाता था, कई बार अपराधी भी सामन्त की शरण में चले जाते थे, जिसका समाज और न्याय व्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता। मध्यकालीन न्याय व्यवस्था की मुख्य विशेषता न्याय का सस्ता होना और शीघ्र होना था। उस समय दण्डविधान भी कठोर नहीं थे।
भू राजस्व व्यवस्था में सामन्तों की भूमिका महत्त्वपूर्ण थी। मध्यकाल में कृषि ही आय का मुख्य स्रोत था, इस दृष्टि से भूमि और उस पर उत्पादित फसल पर लगान वसूल करने वाली संस्था का विशेष महत्व था। भूमि दो भागों में विभाजित थी एक खालसा भूमि जो कि सीधे शासक के नियंत्रण में होती थी, जिसे केन्द्रीय भूमि भी कह सकते है। दूसरी जागीर भूमि यह चार प्रकार की थी।
भौम की जागीर राज्य को अपनी सेवायें देते थे, और कुछ निश्चित कर देते थे।
सासण जगीर-धर्मार्थ, शिक्षण कार्य, साहित्य लेखन कार्य चारण व भाट आदि को अनुदान स्वरूप दी जाती यह माफी जागीर भी कहलाती थी क्योंकि यह कर मुक्त जागीर होती थी।
हुकूमत जागीर- यह मुत्सदद्धियों को दी जाती थी परगने के हाकिम का उत्तरदायित्व था कि वह लगान राजकोष में जमा कराये यह वेतन के रूप में दी गई जागीर होती थी, जो उस जागीरदार की मृत्यु के बाद खालसा कर दी जाती थी।
सामन्त जागीर जन्मजात जागीर थी, इसका लगान सामन्त द्वारा वसूल किया जाता था “भूमि दो प्रकार की होती थी – कृषि भूमि और चरनोता भूमि। कृषि भूमि वह थी जो कि खेती योग्य हो, और चरनोता भूमि पर पशुओं के लिये चारा उगाया जाता था, जिसे आधुनिक राजस्व भाषा में चरागाह या गोचर भूमि कहा जाता है। वस्तुतः चरनोत भूमि सार्वजनिक भूमि थी।
कृषक मुख्यतः दो प्रकार के होते थे- बापीदार और गैरबापीदार, बापीदार किसान को खुदकाश्तकार भी कहते थे, यह वह किसान होते थे जो खेती की जाने वाली भूमि का स्थाई स्वामी होता था, वह जोत के लिये आवश्यक सामग्री जुटा सके, किसान लम्बे समय से वहाँ रह रहा हो। गैरबापीदार को शिकमी काश्तकार भी कहते थे, इन्हे वंशानुगत अधिकार प्राप्त नहीं थे भूमि के स्वामी नहीं थे, ये खेतीहर मजदूर थे। बापीदार किसानों को कई रियासतें थी – – उनके खेत की लकड़ी और कुओं पर उनका स्वामित्व था, – कर निर्धारण के समय यह ध्यान रखा जाता था कि कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिये बापीदार ने किन साधनों का उपयोग किया है। – बापीदार किसानों के भू-स्वामित्व को तत्काल समाप्त नहीं किया जा सकता था, यदि दुर्भिक्ष के समय किसान गाँव छोड़कर कुछ अवधि के लिये बाहर चला जाता था तब भी भूमि किसान की ही रहती थी, पुनः लौटने पर किसान अपनी भूमि को जोत सकता था। स्पष्ट है कि भूमि पर किसानों का स्वामित्व था। राजस्थान में प्रचलित एक कहावत का कर्नल जेम्स टॉड ने उल्लेख कर शासक कृषक भू-राजस्व पर प्रकाश डाला है, कहावत थी- “भोग रा धणी राज हो, भोम रा धणी मा छौ। अर्थात भूमि (भौम) को मालिक जोतने वाला और राजा राजस्व (भोग) का अधिकारी। किसानो को दी जाने वाली भूमि का पट्टा जागीरदार के रजिस्टर में दर्ज रहता था, जिसे दाखला कहते थे।
भूमि स्वामित्व के बाद उस पर लगान वसूली करना महत्त्वपूर्ण उत्तरदायित्व था, भू राजस्व को लगान, भोग हांसिल, और भोज आदि कहा जाता था। लगान निर्धारण अलग-अलग रियासतों में भिन्नता लिये हुए थे, उस रियासत के सामन्त और जागीरदार उसी रियासत की परम्परा के अनुसार लगान निर्धारण करते थे प्रचलित विभिन्न व्यवस्थाओं में मुख्यतः तीन प्रकार की कर निर्धारण व्यवस्था उभरती है।
प्रथम भूमि का स्वरूप यह दो भागो में विभक्त थी – बारानी अर्थात् बरसात के पानी से सिंचित भूमि ओर उन्नाव अर्थात् जो भूमि तालाब, कुओं, बावड़ियों आदि से सिंचित की जाती हो। दूसरा निर्धारण तत्त्व फसल की विशेषता थी, दो बातों को ध्यान में रखकर राजस्व निर्धारण किया जाता था बाजार भाव और भूमि की उत्पादकता की क्षमता, तीसरा काश्तकार की जाति इस सम्बन्ध में यह मान्यता थी कि राजपूतो और विश्नोइयों की अपेक्षा जाटों से अधिक कर लिया जाता था। राजपूत, ब्राह्यण और महाजन किसानों को भू राजस्व में विशेष छुट दी जाती थी। खरीफ और रबी की फसलों पर भी लगान की दरे भिन्न भिन्न होती थी, लगान निर्धारण एवं वसूली के समय पटेल या चौधरी की भूमिका महत्वपूर्ण होती थी। यह सरकार और कृषक के मध्य मध्यस्तर के रूप में निगरानी में कार्य सम्पादित कराते थे, पटेल या चौधरी सरकारी कर्मचारी नहीं होते थे।
शासक, सामन्त, जागीरदार एवं अधिकारी कृषकों से लगान वसूली के तीन प्रकार की विधि को अपनाते थे:
1. लाटा या बटाई विधि : इसमें फसल कटने योग्य होने पर लगान वसूली के लिये नियुक्त अधिकारी की देखरेख में फसल की कटाई की जाती थी। धान साफ होने के बाद फसल में से राजस्व के लिये दिये जाने वाला भाग तोल कर अलग कर दिया जाता।
2. कुन्ता विधि : इस विधि के अनुसार खड़ी फसल को देखकर अनुमानित लगान निर्धारित करना। कुन्ता विधि में तोल या माप नहीं किया जाता था।
3. अन्य प्रणाली : इसे तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है – मुकाता, डोरी और घूघरी।
डोरी, मुकाता में कर निर्धारण एक मुश्त का निर्धारण करता था नकद कर भी लिया जाता था। डोरी कर निर्धारण में नापे गये भू भाग का निर्धारण करके कर वसूल करना।
घूघरी कर विधि के अनुसार शासक, सामन्त एवं जागीरदार किसान को जितनी घूघरी अर्थात् बीज देता था, उतना ही अनाज लगान के रूप में लेता था। दूसरी घूघरी विधि के अनुसार प्रति कुआं या खेत की पैदावर पर निर्भर था।
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