औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात, मराठा शक्ति ने उत्तर भारत में विस्तार की नीति अपनाई, जिससे वे मालवा व गुजरात में आक्रमण करने लगे। मराठों का मालवा व गुजरात पर आक्रमण, राजस्थानी शासकों के लिए चिंता का विषय बन गया।
राजस्थान में सर्वप्रथम 1711 ई. में मराठों ने मेवाड़ में प्रवेश किया। 1720 ई. में पेशवा बाजीराव ने, मराठा ध्वज 'अटक से कटक' तक फहराने का लक्ष्य निर्धारित किया, अतः उत्तरी भारत की ओर मराठा अग्रसर होने लगे। 1726 ई. में मराठों ने कोटा व बूँदी पर आक्रमण किए, इसके पश्चात 1728 ई. में डूँगरपुर, बांसवाडा के शासकों ने खिराज देना स्वीकार किया। 22 अप्रैल 1734 ई. में मराठों ने बूँदी के शासक बुधसिंह को पुनः वहाँ का शासक बना दिया। यह मराठों का राजस्थान की राजनीति में प्रथम हस्तक्षेप था। इससे यहाँ के शासक भयभीत होने लगे, उन्होंने मराठों के विरूद्ध कोई ठोस नीति बनाने का निर्णय लिया।
राजस्थान के राजपूत राजाओं ने, मराठों की बढ़ती शक्ति को रोकने के लिए 17 जुलाई 1734 को हुरड़ा (भीलवाड़ा) में एक सम्मेलन बुलाया, जिसकी अध्यक्षता मेवाड़ के महाराणा जगतसिंह (द्वितीय) ने की, इसमें आमेर के सवाई जयसिंह, जोधपुर के अभयसिंह, नागौर के बख्तसिंह, कोटा के महाराव दुर्जनशाल आदि शासकों ने भाग लिया।
इस सम्मेलन में यह निश्चित हुआ कि सभी एक दूसरे के साथ मिलकर रहेंगे, एक का शत्रु व मित्र दूसरे का शत्रु व मित्र होगा। कोई भी नई योजना सभी मिल कर निश्चित करेंगे। वर्षा ऋतु के पश्चात रामपुरा में सभी एकत्र होंगे किंतु ये सभी शर्तें कागज तक ही सीमित होकर रह गई, इसकी कोई पालना नहीं की गई।
पेशवा बाजीराव ने राजस्थान-नीति का आकलन करने के लिए, अपनी माता राधाबाई को 1735 ई. में राजस्थान में तीर्थयात्रा पर भेजा। अपनी माता के सम्मान सहित सकुशल लौट आने पर, पेशवा बाजीराव अगले ही वर्ष राजस्थान के दौरे पर आए व यहाँ से चौथ वसूली की।
18वीं शताब्दी में राजस्थान के राजपूत शासकों में उत्तराधिकार के लिए संघर्ष होने लगा, यही कारण था कि मराठों को, उत्तराधिकार के निर्णय में दखल का अवसर मिल गया।
उदयपुर के महाराणा अमरसिंह (द्वितीय) की पुत्री चंद्रकुंवर बाई का विवाह, सवाई जयसिंह के साथ 1708 ई. में इस शर्त पर हुआ कि, मेवाड़ की राजकुमारी से उत्पन्न पुत्र ही जयपुर के सिंहासन पर बैठेगा। 1743 ई. में सवाई जयसिंह की मृत्यु हो गई, तब मेवाड़ की राजकुमारी चंद्रकुंवर बाई से उत्पन्न पुत्र माधोसिंह ने अपने मामा महाराणा जगतसिंह (द्वितीय) के सहयोग से, सवाई जयसिंह के ज्येष्ठ पुत्र ईश्वर सिंह को चुनौती दी।
मराठा सरदार मल्हार राव होल्कर द्वारा माधोसिंह का पक्ष लिया गया। ईश्वर सिंह व माधोसिंह के मध्य “राजमहल” और “बगरू” के युद्ध हुए। अपने सेनापति हरगोविंद नाटाणी की कुटिलता के कारण, ईश्वरसिंह को आत्महत्या करनी पड़ी और माधोसिंह मराठों के सहयोग से जयपुर का शासक बन गया।
जयपुर की भाँति जोधपुर में भी मराठों ने हस्तक्षेप किया। वहाँ भी रामसिंह और बख्तसिंह के मध्य उत्तराधिकार संघर्ष प्रारम्भ हो गया। दोनों ही मराठा सहायता के प्रयास में जुट गए। पेशवा, सिंधिया व होल्कर के हस्तक्षेप बढ़ गए। अंततः रामसिंह को राज्य का आधा भाग मिल गया। मारवाड़ का विभाजन ही नहीं हुआ, अपितु उसकी आर्थिक दशा भी शोचनीय हो गई। व्यापार नष्ट हो गए, कृषि बर्बाद हो गई और मराठों की माँगें दिन-प्रति दिन बढ़ती गई। वे कोई समझौता करने पर सहमत नहीं थे।
1761 ई. में महाराणा राजसिंह द्वितीय की मृत्यु होने से अरिसिंह को मेवाड़ के राज सिंहासन पर बैठा दिया गया। इसके कुछ समय बाद मेवाड़ गद्दी के भी दो दावेदार हो गये थे, एक अरिसिंह व दूसरा रतनसिंह। दोनों ने मराठों से सहायता प्राप्त करने के प्रयास किये। परिणामस्वरूप गृहयुद्ध में मराठा हस्तक्षेप होने लगा, जिससे मेवाड़ की सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक व राजनैतिक प्रगति के मार्ग अवरूद्ध हो गये।
राजस्थान के शासकों के पारस्परिक वैमनस्य के कारण मराठों का हस्तक्षेप बढ़ता रहा, फलतः यहाँ का विकास अवरुद्ध होने लगा।
वॉरेन हेस्टिंग्ज (1772-1785) ने ‘सुरक्षा घेरे की नीति’ (Policy of Ring Fence) का प्रतिपादन किया जिसके अनुसार कम्पनी अपने अधिकृत प्रदेशों को मुख्य शत्रुओं से बचाए रखने के लिए पड़ोसी राज्यों के साथ मैत्री संधि कर उन्हें बफर राज्यों के रूप में प्रयुक्त करती थी। हेस्टिंग्ज के बाद लॉर्ड चार्ल्स कॉर्नवालिस 1786 ई. में भारत के गवर्नर जनरल बने। लॉर्ड कार्नवालिस ने भारतीय शासकों के मामलों में ‘अहस्तक्षेप की नीति’ अपनाई।
राजस्थान के शासकों ने मराठों के बढ़ते आतंक से मुक्ति पाने के लिए मराठों के शत्रु अंग्रेजों से मित्रता करने के प्रयास शुरू कर दिए। सर्वप्रथम जयपुर के महाराजा पृथ्वीसिंह ने 1776 ई. में अपने एक प्रतिनिधि को गवर्नर जनरल के पास भेजा और अंग्रेजों से मैत्री की इच्छा प्रकट की। जोधपुर राज्य ने भी ऐसा ही प्रयास किया, पर वह सफल नहीं हुआ।
1798 ई. में लॉर्ड वैलेजली भारत का गवर्नर जनरल बनकर आया। वैलेजली ‘सहायक संधि’ (Subsidiary Alliance) का जन्मदाता था। देशी राज्यों को अंग्रेजों की राजनीतिक परिधि में लाने के लिए वैलेजली ने सहायक संधियाँ करनी प्रारम्भ की तथा उन्हें सुरक्षा की गारन्टी दी। इसके तहत देशी राज्यों की आंतरिक सुरक्षा व विदेश नीति का उत्तरदायित्व अंग्रेजों पर था जिसका खर्च संबंधित राज्य को उठाना पड़ता था। कम्पनी इस हेतु उस राज्य में एक अंग्रेज रेजीडेंट की नियुक्ति करती थी व सुरक्षा हेतु उस देशी रियासत के खर्च पर अपनी सेना रखती थी। भारत में प्रथम सहायक संधि 1798 ई. में हैदराबाद के निजाम के साथ की गई।
अगस्त 1803 ई. में आंग्ल-मराठा युद्ध में मराठों को पराजय झेलनी पड़ी थी। दौलतराव सिन्धिया ने 30 दिसम्बर, 1803 ई. को अंग्रेजों के साथ सुर्जी अर्जन गाँव की संधि की थी। इस संधि के अनुसार जयपुर और जोधपुर के राज्यों को अंग्रेजों के प्रभाव में कर दिया गया। अतः मराठों की हार ने राजपूत शासकों को अंग्रेजों से सहयोग के लिए अवसर प्रदान कर दिया।
1803 ई. में अपनी नीति में परिवर्तन कर अंग्रेज भी राजपूत राज्यों से संधि करने के इच्छुक हो गए।
1803 ई. की संधि की शर्तों में तय किया गया कि दोनों एक दूसरे के प्रति मैत्रीपूर्ण व्यवहार रखेंगे; कम्पनी इन राज्यों से खिराज नहीं लेगी तथा आन्तरिक मामलों में भी हस्तक्षेप नहीं करेगी; इन राज्यों की सुरक्षा का दायित्व कम्पनी पर होगा; अन्य राज्यों से विवाद कम्पनी की सहायता से सुलझाए जाएंगे, इत्यादि। भरतपुर, अलवर, जयपुर, जोधपुर आदि ने इस संधि पर हस्ताक्षर कर दिए।
19वीं सदी के आरम्भ में 20 रियासतें थी। इनमें से 17 राजपूत, 2 जाट और एक मुस्लिम शासक द्वारा शासित थी। इन राज्यों के साथ की गई संधियों में कुछ सामान्य शर्ते थीं तो कुछ विशिष्ट, जो उस राज्य से संबंधित थीं। संधि की सामान्य शर्तें इस प्रकार थीं-
खिराज की यह राशि निर्धारित करने के लिए मराठों को दिए जाने वाले चौथ को आधार बनाया गया था। ब्रिटिश संरक्षण स्वीकार करने के फलस्वरूप राजस्थान के रियासती नरेशों को सुरक्षा तो प्राप्त हुई, पर उन्हें अपनी स्वतंत्रता खोनी पड़ी।
करौली (मराठों को कर देता था), बीकानेर, किशनगढ़ और जैसलमेर व अलवर को खिराज से मुक्त रखा गया था, क्योंकि ये राज्य (करौली को छोड़कर) मराठों को चौथ नहीं देते थे।
भरतपुर राज्य के साथ संधि: राजस्थान में सर्वप्रथम भरतपुर राज्य के महाराजा रणजीत सिंह के साथ 29 सितम्बर, 1803 ई. को लॉर्ड वैलेजली ने सहायक संधि की। इसकी पुष्टि 22 अक्टूबर, 1803 ई. को की गई। इस संधि के तहत सिंधिया के विरुद्ध मदद के परिणामस्वरूप पुरस्कार के रूप में भरतपुर को कुछ परगने दिए गए लेकिन अंग्रेजों के प्रस्ताव के विरुद्ध भरतपुर के शासक रणजीत सिंह ने 1804 में यशवंतराव होल्कर को अपने यहाँ शरण दे दी व उसे अंग्रेजों को समर्पित करने से मना कर दिया। इस पर लॉर्ड लेक के नेतृत्व में अंग्रेजों ने भरतपुर पर 5 बार भयंकर आक्रमण किए। अंग्रेजी सेना 5 माह के घेरे के बाद भी भरतपुर को नहीं जीत सकी। 17 अप्रैल, 1805 ई. को अंततः घेरा उठा लिया गया एवं भरतपुर के साथ अप्रैल, 1805 ई. में नई संधि पर हस्ताक्षर हुए जिसमें भरतपुर की पूर्व की स्थिति रखी गई, भरतपुर राज्य की सीमा व क्षेत्रफल में परिवर्तन नहीं किया गया तथा अतिरिक्त परगने अलवर को दे दिए गये। भरतपुर को डीग क्षेत्र लौटा दिया गया। भरतपुर अंग्रेजों के प्रति विश्वसनीय रहे, इसके लिए शर्त रखी गई कि भरतपुर का राजकुमार राज्य के प्रतिनिधि के रूप में अंग्रेजों के साथ रहे। भरतपुर ने 20 लाख रुपए क्षतिपूर्ति के रूप में अंग्रेजों को दिए अन्य शर्तें अन्य राज्यों की शर्तों के समान थीं। अँग्रेजों ने भरतपुर के साथ जो पहली संधि 1803 में की थी, उसकी तुलना में 1805 ई. की संधि अपमानजनक थी लेकिन फिर भी इस संधि के पश्चात् भरतपुर को मराठों व अँग्रेजों के भावी आक्रमणों से सुरक्षा मिल गई तथा डीग के क्षेत्र पर जाट राजा का स्थाई रूप से अधिकार हो गया।
अलवर राज्य के साथ संधि: अलवर राज्य के साथ अंग्रेजों ने 14 नवम्बर, 1803 को वहाँ के शासक बख्तावर सिंह के साथ संधि की। बख्तावर सिंह अलवर रियासत के संस्थापक प्रतापसिंह के पुत्र थे। इस संधि के तहत ईस्ट इंडिया कम्पनी ने अलवर राज्य का पृथक अस्तित्व स्वीकार करके अलवर के आंतरिक प्रशासन में हस्तक्षेप नहीं करने का वचन दिया। कम्पनी ने अलवर से किसी प्रकार का कर वसूल नहीं करने की शर्त भी रखी।
अलवर के महाराजा ने अपनी सेना कम्पनी की सहायतार्थ ऐसे शत्रु के विरुद्ध भेजने का वचन दिया जो कम्पनी अथवा उसके सहयोगी राज्यों पर आक्रमण करने की योजना बनाए।इसके बदले कम्पनी ने अलवर को उसके शत्रुओं के विरुद्ध सुरक्षा का आश्वासन दिया। इसके अनुसार अलवर ने नवम्बर, 1803 ई. में सिंधिया के विरुद्ध लासवाड़ी के युद्ध में सहयोग प्रदान किया। इस प्रकार अलवर ऐसा प्रथम राज्य था जिसने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी के साथ विस्तृत रक्षात्मक एवं आक्रामक संधि की थी।
जयपुर के साथ संधि: जयपुर के महाराजा जगतसिंह द्वितीय (सवाई प्रतापसिंह के पुत्र) के साथ 12 दिसम्बर, 1803 को संधि की गई। यह संधि अलवर के साथ की गई संधि जैसी ही थी किन्तु सन् 1805 ई. में जनरल बार्लो द्वारा यह संधि भंग कर दी गई।
जोधपुर के साथ संधि: जोधपुर के साथ 22 दिसम्बर, 1803 ई. को संधि की गई। यह संधि बराबरी के आधार पर की गई थी, जिसमें एक-दूसरे की सहायता करने, परस्पर मित्रता बनाए रखने, खिराज नहीं देने एवं जोधपुर राज्य में किसी फ्रांसिसी को नौकरी नहीं देने अथवा देने से पूर्व कम्पनी से सलाह मशविरा करने आदि प्रमुख शर्तें थीं। इसकी पुष्टि गवर्नर जनरल द्वारा 15 जनवरी, 1804 को कर दी गई। इन संधियों का मुख्य उद्देश्य सिंधिया के शक्ति साधनों को कम करना तथा रियासतों से आवश्यकतानुसार सहायता लेना था लेकिन महाराजा मानसिंह संधि की अलग शर्तें चाहते थे अतः उन्होंने इस संधि की पुष्टि नहीं की बल्कि एक नई वैकल्पिक संधि प्रस्तुत की लेकिन अंग्रेजों ने उसे स्वीकार नहीं किया। साथ ही 1803 ई. की संधि को भी मई, 1804 ई. में रद्द कर दिया। मानसिंह ने 1805 ई. तथा पुनः 1806 में अंग्रेजों से दोबारा संधि करने का प्रस्ताव किया लेकिन फिर अंग्रेजों ने उसे स्वीकार नहीं किया।
उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट है कि ब्रिटिश सरकार ने मुख्यतः मराठों के विरुद्ध राजपूताना की कुछ रियासतों से सहयोग प्राप्त करने के लिए 1803 ई. में सहायक संधियाँ कीं। अंग्रेज चाहते थे कि मराठे उनके विरुद्ध राजपूताना के राज्यों से सहायता प्राप्त न कर सकें, लेकिन 1803 ई. में मराठों के साथ सुर्जी अर्जन गाँव की संधि के बाद कम्पनी सरकार की राजपूत शासकों पर निर्भरता समाप्त हो गई थी। इस संधि के द्वारा एक सीमा रेखा तय की गई थी जिसके उत्तरी क्षेत्र ब्रिटिश सरकार को सौंप दिए गए जिससे जयपुर, जोधपुर व गोहद के क्षेत्र ब्रिटिश सरकार के नियंत्रण में आ गए थे।
इस सीमा रेखा के दक्षिण में स्थित क्षेत्र सिंधिया के पास रखे गए थे। राजपूत राज्यों को उनके भाग्य पर छोड़ दिया गया। इस प्रकार 1803 ई. की संधियों का बनना व भंग होना अंग्रेजों की राजपूत राज्यों पर निर्भरता पर आधारित था।
जयपुर, जोधपुर, अलवर व भरतपुर के साथ की गई संधियाँ लगभग समान थीं। इन संधियों द्वारा राजपूत राज्यों को मराठों से जीते गए क्षेत्रों की सुरक्षा हेतु ब्रिटिश सरकार को समस्त सैनिक सहायता देनी होती थी, जिसके बदले में ईस्ट इंडिया कम्पनी राजपूत राज्यों की सीमाओं की बाह्य आक्रमणों से सुरक्षा की गारन्टी देती थी तथा इसकी एवज में कोई शुल्क या खिराज नहीं लेती थी। इन संधियों द्वारा राजपूत राजाओं ने अप्रत्यक्ष रूप से अंग्रेजों की अधीनस्थता स्वीकार कर ली थी। इस प्रणाली का परिणाम यह हुआ कि सुरक्षित और स्वतंत्र देशी रियासतों का आंतरिक प्रशासन एवं आर्थिक व्यवस्था नष्ट होने लगी।
राजपूत राज्यों के संबंध में कार्नवालिस व बार्लो की ‘अहस्तक्षेप की नीति’ लॉर्ड मिंटो (1807-1813 ई.) द्वारा भी जारी रखी गई। 1813 ई. में लॉर्ड हेस्टिंग्ज भारत के गवर्नर जनरल बने। लार्ड हेस्टिंग्ज का यह विचार था कि यदि ब्रिटिश सत्ता को यहाँ प्रभावी होना है तो यहाँ के राजाओं को पूर्णतया अंग्रेजी संरक्षण में लिया जाए ताकि मराठों व पिण्डारियों के अतिक्रमण को रोककर राज्यों के साधनों का उपयोग कम्पनी के हित में किया जा सके।
इससे कम्पनी को आर्थिक लाभ भी होगा और सुरक्षा व्यवस्था भी सुदृढ़ होगी। लॉर्ड हेस्टिंग्ज (1813-1823 ई.) की ब्रिटिश आधिपत्य व प्रसार की नीति का स्वरूप पूर्ववर्ती परिवेश से भिन्न था। उसने अपने शासन के प्रारम्भ में ही कम्पनी की देशी रियासतों के प्रति नीति में आमूल चूल परिवर्तन किया। उसने 'घेरे की नीति' के स्थान पर 'अधीनस्थ पार्थक्य की नीति' (Subordinate Isolation Policy) का क्रियान्वयन किया। हेस्टिंग्ज ने शीघ्र ही अपनी समस्त विरोधी शक्तियों (यथा- मराठा, पिण्डारियों आदि) को परास्त कर उनका दमन कर दिया। उसने देशी रियासतों पर यथार्थरूप में ब्रिटिश सर्वोच्चता तथा सम्प्रभुता स्थापित करने के उद्देश्य से उन्हें संधि करने के लिए बाध्य किया। संधियाँ करने का कार्य दिल्ली के रेजीडेन्ट चार्ल्स मेटकॉफ को सौंपा गया जिसने इन राज्यों के प्रतिनिधियों से बातचीत कर संधिपत्र तैयार किए एवं कंपनी की ओर से उन संधियों पर हस्ताक्षर कर उन संधियों को पूर्ण किया।
जॉन माल्कम, कर्नल जेम्स टॉड, जी.एच. ओझा आदि इतिहासकार इसका प्रमुख कारण मराठों के आक्रमण तथा उनकी चौथ वसूली मानते हैं, किन्तु अन्य मतावलम्बी इतिहासकारों को यह उचित प्रतीत नहीं होता है, क्योंकि उनके अनुसार 1818 ई. से पूर्व तक मराठा शक्ति समाप्त हो चुकी थी। पुनःश्च राजपूत राज्यों को संधियों द्वारा उतना ही खिराज अंग्रेजों को देना पड़ रहा था जितना वह मराठों को देते थे। अतः देशी राजाओं के लिए आर्थिक लाभ संधि का कोई कारण प्रतीत नहीं होता।
राजपूत राज्यों से अंग्रेजों द्वारा संधि किए जाने का प्रमुख कारण मराठा शक्ति के विस्तार पर तथा लूटमार की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाना था। ऐसा नहीं था कि अंग्रेज अकेले ऐसा करने में असमर्थ थे। माल्कम के अनुसार ‘सैनिक कार्यवाही तथा रसद आपूर्ति के लिए इन राज्यों पर हमारा पूर्ण नियंत्रण होना चाहिये अन्यथा यह राज्य अपने साधन हमारे शत्रुओं को उपलब्ध करवा देंगे।’
गवर्नर-जनरल हेस्टिंग्ज संधियों द्वारा भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की सीमाओं का विस्तार करना चाहता था। संधियों के अन्य उद्देश्य वित्तीय लाभ, व्यापार, वाणिज्य के विकास हेतु भारत के सभी राज्यों को ब्रिटिश हुकूमत के अधीन लाना था।
1. पिंडारियों के उपद्रव : राजस्थान के राज्यों द्वारा संधि का एक कारण पिंडारियों के उपद्रव तथा लूटमार से रक्षा था लेकिन यह प्रमुख कारण कहना ठीक नहीं होगा। क्योंकि अंग्रेज पिंडारियों का खात्मा 1818 ई. से पूर्व ही कर चुके थे। पिंडारियों के प्रमुख नेता अमीर खाँ ने 17 नवम्बर, 1817 ई. में अंग्रेजों से संधि कर ली थी। संधि द्वारा अंग्रेजों ने उसे टोंक तथा रामपुरा का स्वतंत्र नवाब स्वीकार कर लिया था।
2. सामंतों के विद्रोह : मुगल काल में सामंतों की शक्ति क्षीण हो गई थी। कारण यह था कि सामंतों के दमन हेतु मुगल सैनिक शक्ति उपलब्ध थी लेकिन अब स्थिति विपरीत थी। मराठा सैनिक शक्ति धन के बदले जहाँ राजाओं के लिए थी तो वहीं सामंतों के लिए भी उपलब्ध थी। महाराणा भीमसिंह ने चूंडावतों के दमन के लिए महादजी (माधव राव) सिंधिया से सहायता ली।
पोकरण के सामंत सवाई सिंह ने लकवा दादा को जोधपुर पर आक्रमण हेतु आमंत्रित किया। मराठा सरदारों ने इसके बदले धन वसूल लिया। धन न मिलने पर परगनों पर अधिकार कर लिया। इस नीति से एक ओर जहाँ राजस्थान की जनता को मराठों की लूट का शिकार होना पड़ा वहीं राज्यों की आर्थिक स्थिति खराब हो गई। अनेक बार राजाओं ने मराठों को अपने जागीरदारों से धन वसूली का अधिकार भी दे दिया।
3. आर्थिक दुरावस्था : निरंतर युद्ध तथा लूट खसोट से कृषि, व्यापार तथा उद्योग धंधे चौपट हो गये। मराठों की चौथ वसूली का भार राजकोष पर पड़ा। राजाओं ने इसकी पूर्ति के लिए प्रजा पर करों का भार बढ़ा दिया। मराठों ने अपनी बकाया वसूली के लिए बार-बार आक्रमण किए। फलतः राजस्थान की अर्थव्यवस्था बर्बाद हो गई।
दिल्ली में चार्ल्स मेटकॉफ की रेजीडेन्ट पद पर नियुक्ति के बाद अंग्रेजी नीति में परिवर्तन आने लगा। मेटकॉफ राजस्थान के राज्यों को अंग्रेजी संरक्षण दिए जाने का पक्षधर था।
1817 ई. में लार्ड हेस्टिंग्ज ने यह कहते हुए कि मराठे पिंडारियों की लूटमार नियंत्रित करने में असफल रहे हैं अतः उनके साथ की गई संधियों के दायित्व को त्यागना उचित होगा, उसने मेटकॉफ को राजपूत राज्यों से संधियाँ करने का निर्देश दे दिया।
गवर्नर जनरल के आदेश से चार्ल्स मेटकॉफ ने राजपूत राज्यों को संधियाँ करने हेतु पत्र भेजे। चार्ल्स मेटकॉफ का निमंत्रण पाते ही 1818 ई. के अंत तक सिरोही राज्य को छोड़कर सभी राज्यों ने अंग्रेजों के साथ संधि कर ली। 1823 ई. में जोधपुर के प्रभुत्ता के दावे को अस्वीकार कर अंग्रेजों ने सिरोही राज्य के साथ भी संधि कर ली।
रियासत | शासक | संधि की तिथि | विशेष विवरण |
---|---|---|---|
करौली | महाराजा हरबक्शपाल सिंह | 9 नवंबर, 1817 | यह अधीनस्थ पार्यक्य की नीति के तहत प्रथम संधि करने वाली राजस्थान की प्रथम रियासत थी। |
टोंक | अमीर खाँ पिण्डारी | 17 नवम्बर, 1817 | संधि के तहत् अमीर खाँ पिण्डारी को टोंक व रामपुरा की स्वतंत्र रियासत गठित कर वहाँ का नवाब बनाया गया। इसके साथ ही उससे लूटमार व युद्ध का मार्ग बंद करने की शर्त रखो गई। |
कोटा | महाराव उम्मेदसिंह-I | 26 दिसंबर 1817 | कोटा का दीवान झाला जालिम सिंह कंपनी सरकार के साथ संधि करने के लिए तत्पर था। अतएव शिवदान सिंह, सेठ जीवनराम व लाला हुक्मचंद को महाराव कोटा के प्रतिनिधि के रूप में दिल्ली भेजा गया। उन्होंने चार्ल्स मेटकॉफ से वार्ता कर संधि सम्पन्न की। |
जोधपुर | महाराजा मानसिंह | 6 जनवरी, 1818 | युवराज छत्रसिंह जोधपुर के वकील आसोपा बिशनराम व व्यास अभयराम ने जोधपुर राजा की ओर से कम्पनी सरकार के साथ संधि की। कंपनी की ओर से चार्ल्स मेटकॉफ ने हस्ताक्षर किए। |
मेवाड़ (उदयपुर) | महाराणा भीमसिंह | 13 जनवरी, 1818 | मेवाड़ के महाराणा भीमसिंह के प्रतिनिधि ठाकुर अजीतसिंह ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी के प्रतिनिधि सर चार्ल्स मेटकॉफ के साथ संधि पत्र पर हस्ताक्षर किए। उदयपुर को अपनी वार्षिक आय का 25% खिराज देना तय हुआ जो 5 वर्ष बाद 3/8 हो जाएगा। |
बूँदी | महाराव विष्णुसिंह | फरवरी, 1818 | बूंदी के राव विष्णुसिंह ने 10 फरवरी, 1818 ईस्ट इंडिया कम्पनी से संधि कर ली व अंग्रेजों को 80 हजार वार्षिक खिराज देना तय हुआ। |
बीकानेर | महाराजा सूरतसिंह | 9 मार्च, 1818 | बीकानेर नरेश महाराजा सूरतसिंह की ओर से ओझा काशीनाथ तथा गवर्नेर जनरल की ओर से सर चार्ल्स मेटकॉफ के मध्य 9 मार्च, 1818 को संधि हुई। इसकी पुष्टि लॉर्ड हेस्टिंग्ज ने 21 मार्च, 1818 ई. को घाघरा नदी पर पातारसा घाट (Patarsa Ghat) पर की। |
किशनगढ़ | महाराजा कल्याणसिंह | 26 मार्च, 1818 | किशनगढ़ के साथ संधि में विशेष बात यह थी कि कम्पनी ने किशनगढ़ को खिराज से मुक्त रखा क्योंकि यहाँ का शासक मराठों को चौथ नहीं देता था। |
जयपुर | महाराजा जगतसिंह-II | 2 अप्रैल, 1818 | जयपुर के साथ 2 अप्रैल, 1818 ई. को की गई संधि पर चार्ल्स मेटकॉफ व ठाकुर रावल बैरिसाल नाथावत के हस्ताक्षर हुए और साथ ही गवर्नर जनरल और महाराजा ज़गतसिंह द्वितीय के हस्ताक्षर हुए। गवर्नर जनरल के सचिव टी.जे.एडम ने 15 अप्रैल, 1818 ई. के दिन संधि का अनुमोदन कर दिया। |
प्रतापगढ़ | महारावल सामंत सिंह | 5 अक्टूबर, 1818 | ..... |
डूँगरपुर | महारावल जसवंत सिंह-II | 11 दिसंबर, 1818 | ..... |
जैसलमेर | महारावल मूलराज-II | 12 दिसंबर, 1818 | 12 दिसंबर, 1818 ई. को मूलराज द्वितीय के साथ संधि हुई जिसमें अंग्रेजों को खिराज या शुल्क देने के संबंध में कोई प्रावधान नहीं था। |
बाँसवाड़ा | महारावल उम्मेदसिंह | 25 दिसंबर, 1818 .... | |
सिरोही | महाराजा शिवसिंह | 11 सितम्बर, 1823 | सिरोही पर जोधपुर राज्य द्वारा दावा किए जाने के कारण उससे संधि बाद में की गई। |
अँग्रेजों द्वारा देशी रियासतों के साथ की गई संधियों में चार्ल्स मेटकॉफ की भूमिका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण थी। उसी ने कंपनी सरकार की ओर से उन संधियों पर हस्दाक्षर कर वे संधियाँ की थी।
राजपूताने में हेस्टिंग्ज की अधीनस्थ पार्थक्य की नीति का पहला शिकार नवम्बर, 1817 ई. में करौली का शासक हुआ। राजपूताने में अधीनस्थ पार्थक्य की यह प्रथम संधि थी। इससे करौली राज्य अंग्रेजों के संरक्षण में आ गया।
विस्तृत एवं व्यापक प्रभावशाली संधि 26 दिसम्बर, 1817 ई. को कोटा के प्रशासक झाला जालिमसिंह ने कोटा राज्य की ओर से की। कोटा का मुख्य प्रशासक झाला जालिम सिंह योग्य कूटनीतिज्ञ था। उसने मराठों से मैत्री तथा नियमित ‘खण्डनी’ चुकाकर कोटा को मराठा आक्रमणकारियों से बचाये रखा। उसने चालीस पिण्डारी नेताओं को अपने यहाँ जागीरें दे रखी थीं। मराठों का पतन निकट देखकर उसने अंग्रेजों से मैत्री स्थापित कर ली। जालिम सिंह ने अपने प्रतिनिधि भेजकर अंग्रेजों से संधि कर ली।
संधि की शर्तें -
पूरक संधि -झाला जालिम सिंह के बढ़ते प्रभाव के कारण हाड़ा सामंतों में उसका विरोध बढ़ रहा था लेकिन अंग्रेजों से उसके मैत्री संबंध दृढ़ थे। अतः 20 फरवरी, 1818 ई. को गुप्त रूप से झाला जालिम सिंह ने उपरोक्त संधि में दो पूरक धाराएँ जुड़वा दीं-
1. महाराव उम्मेदसिंह के पश्चात् उसका बड़ा पुत्र तथा उसके वंशज राज्य के शासक पद पर बने रहेंगे।
2. राज्य के समस्त प्रशासनिक अधिकार राजराणा झाला जालिम सिंह तथा उसके वंशजों के पास रहेंगे। इससे कोटा के हाडा शासक केवल नाममात्र के शासक रह गये तथा शासन की समस्त वास्तविक शक्तियाँ जालिमसिंह व उसके वंशजों के पास आ गई।
इस पूरक संधि ने कोटा राज्य में महाराव तथा झाला प्रशासक के बीच संघर्ष के बीज बो दिए। जिसका अंत 1838 ई. में कोटा राज्य का विभाजन करके अलग झालावाड़ राज्य की स्थापना द्वारा हुआ।
कृष्णा कुमारी विवाद के समय अमीरखाँ पिण्डारी ने महाराणा भीमसिंह को भयभीत किया इसके अतिरिक्त 1812-13 में मेवाड़ में अकाल पड़ा, मेवाड़ की आर्थिक स्थिति कमजोर हो गई। सैनिकों को वेतन देने में जैवर बेचने पड़े। भीमसिंह ने ठाकुर अजीतसिंह को मेटकॉफ के पास भेजा, मेटकॉफ ने प्रस्ताव स्वीकार किया। 13 जनवरी 1818 भीमसिंह व ईस्ट इंडिया कम्पनी के मध्य संधि हुई। महाराणा की ओर से संधि पर हस्ताक्षर ठाकुर अजीतसिंह ने किया, संधि दिल्ली में हुई।
निम्न शर्तों से संधि हुई-
इस संधि के विषय में डॉ. मोहनसिंह मेहता ने कहा था कि इस संधि के पूर्व मेवाड़ ने इस प्रकार से किसी के आगे समर्पण नहीं किया था।
इस पर जोधपुर के महाराजा मानसिंह की ओर से युवराज छत्रसिंह, बिशन राम व्यास तथा कंपनी की ओर से चार्ल्स मेटकॉफ ने हस्ताक्षर किये। इसकी शर्तें निम्नानुसार थीं-
जोधपुर राज्य द्वारा दिए जाने वाले खिराज की राशि एक लाख आठ हजार रुपये वार्षिक निर्धारित की गई लेकिन संधि होने के कुछ वर्षों बाद ही जोधपुर के सवारों के अकुशल होने के बहाने कम्पनी ने ‘जोधपुर लीजन’ का गठन कर दिया। इसका खर्च एक लाख पन्द्रह हजार रुपये भी जोधपुर राज्य पर ही थोप दिया गया।
आमेर के कच्छवाहों के वशंज प्रतापसिंह नरोका ने जयपुर से अलग अलवर राज्य की स्थापना की। इसकी मृत्यु के बाद बख्तावरसिंह शासक बना। बख्तावरसिंह के विरुद्ध इसके सेवक दीवानराम ने विद्रोह कर दिया व अपनी सहायता के लिए मराठों को निमंत्रण दिया, मराठों से मुक्ति पाने के लिए बख्तावरसिंह ने 10 जुलाई, 1811 में संधि कर ली।
बीकानेर में मराठों का इतना प्रभाव नहीं था। फिर भी बीकानेर शासक सूरतसिंह ने संधि की क्योंकि सूरतसिंह गजसिंह के पुत्र राजसिंह व पौत्र प्रतापसिंह को मारकर राजगद्दी पर बैठा था। इस कारण व जनता व सामंतों में अलोकप्रिय था। सामंत विद्रोह करते थे, विद्रोह दबाने में इतनी शक्ति लग गई कि वह कमजोर हो गया। इस कारण सूरतसिंह ने काशीनाथ को मेटकॉफ के पास भेजकर 9 मार्च, 1818 को संधि कर ली।
किशनगढ़ का शासक कल्याणसिंह जब राजगद्दी पर बैठा उस समय वह 3 वर्ष का अल्पवय शासक था। सामंत विद्रोह करने लगे। मुगलों से सहायता की आशा नहीं थी। इस कारण कल्याणसिंह ने 26 मार्च, 1818 में ईस्ट इंडिया कम्पनी से संधि कर ली। किशनगढ़ के साथ संधि में विशेष बात यह थी कि कम्पनी ने किशनगढ़ को खिराज से मुक्त रखा क्योंकि यहाँ का शासक मराठों को चौथ नहीं देता था।
1803 में जयपुर का शासक जगतसिंह बना इसने रसकपूर वैश्या के कारण खजाना खाली कर दिया। गिगोली के युद्ध में सैन्य शक्ति कमजोर कर ली, अमीरखां पिण्डारी से भी परेशान था। इस कारण जगतसिंह ने 2 अप्रैल, 1818 को संधि कर ली।
सभी शर्तें वही थी जो अन्य शासकों के साथ की गयी थी, एक अन्य शर्त, भिन्न यह थी, कि संधि के प्रथम वर्ष में खिराज नहीं लिया जायेगा। दूसरे वर्ष 4 लाख, तीसरे वर्ष 5 लाख, चौथे वर्ष 6 लाख, पाचवें वर्ष 7 लाख, छठे वर्ष 8 लाख है। जब रियासत की आय 40 लाख से अधिक हो जायेगी तब खिराज की रकम 1 पर 5 आना अतिरिक्त देना होगा।
राजपूत राज्यों के साथ संधियाँ (ईस्ट इण्डिया कम्पनी के द्वारा) करने का श्रेय दिल्ली के तात्कालीन रेजीडेन्ट चार्ल्स मेटकॉफ को प्राप्त है, परन्तु डूंगरपुर, बाँसवाड़ा और प्रतापगढ़ राज्यों के साथ मालवा के रेजीडेन्ट जॉन वाल्कम ने संधियाँ की थी।
शासकों में निष्क्रियता आना : सन् 1832 में राजपूताना को दिल्ली के नियंत्रण से मुक्त कर एक पृथक एजेन्सी अजमेर में स्थापित की गई और यहाँ नियुक्त एजेन्ट टू गवर्नर जनरल (ए.जी.जी.) का सम्मान उदयपुर, जयपुर और जोधपुर को छोड़कर अन्य राजाओं के समकक्ष रखा गया। सब राज्यों को अपने वकील अजमेर भेजने को कहा गया। वकीलों के द्वारा ए.जी.जी. आसानी से अपनी बात राजाओं से मनवा सकता था। अब अंग्रेजों की नीति का उद्देश्य हो गया, युद्ध के समय में कुशल और मैत्रीपूर्ण सहयोग प्राप्त करना तथा शांति के समय में सम्पन्नता तथा सुव्यवस्था को प्रोत्साहन देना। ऐसी दशा में प्रशासन में कार्य कुशलता लाने, अराजकता और विनाशा से बचने, अपराधों को रोकने, सामान्य जनता की भलाई हेतु सामाजिक कुरीतियों-सती प्रथा, कन्या वध, दासता, डाकन प्रथा आदि का उन्मूलन करने आदि के मामलों में राजाओं को अंग्रेजी सलाह माननी आवश्यक कर दी गई। अंग्रेजों की ऐसी कार्यवाइयों से राज्यों के आंतरिक मामलों में पूर्ण हस्तक्षेप होने लगा। अंग्रेज समर्थक अधिकारियों को प्रोत्साहन दिया जाने लगा। अतः रियासत के शासक शासन सम्बन्धी कार्यों के प्रति उदासीन हो गये।
अंग्रेजों को दिए जाने वाले भारी खिराज व खिराज पर ब्याज और अन्य खर्चों से उनकी आर्थिक स्थिति खोखली होने लगी।
स्वदेशी उद्योग, हस्तशिल्प और व्यापार नष्ट होने लगा।
अंग्रेजों ने पाश्चात्य शिक्षा और आचार-विचार राजस्थान की जनता पर थोपने आरम्भ कर दिए।
राजस्थान में ईसाई मिशनरियों ने ईसाई धर्म का प्रचार करना आरम्भ कर दिया। धर्मान्तरण बढ़ने लगा।
सन्धियों के बाद बड़े राज्यों व छोटे राज्यों के समूह पर पोलिटिकल एजेण्ट या रेजीडेन्ट नियुक्त किये गये। बड़े राज्यों में अंग्रेज अफसर रेजीडेन्ट कहलाते थे और छोटे राज्यों के अधिकारी पॉलिटिकल एजेंट। इसका यह कर्त्तव्य था कि वह राज्य से खिराज वसूल करे और राज्य में शांति बनाए रखने में सहयोग दे तथा नरेशों की गतिविधियाँ को देखता रहे और ब्रिटिश हितों की रक्षा करे। सब रेजीडेन्टों और पॉलिटिकल एजेन्टों के ऊपर एजेन्ट टू दी गवर्नर जनरल (ए.जी.जी.) नियुक्त किया जाता था जो गवर्नर जनरल के अधीन था। उसका मुख्यालय अजमेर था जो 1857 में माउंट आबू हस्तांतरित कर दिया गया।
विभिन्न रेजीडेन्टों व पॉलिटिकल एजेन्टों के क्षेत्राधिकार इस प्रकार थे-
पॉलिटिकल एजेन्ट राज्य में व्यवस्था बनाए रखने के नाम पर निरन्तर हस्तक्षेप करने लगे व तानाशाह बन गए।
शासकों के उत्तराधिकारी का निर्णय भी अब अंग्रेज गवर्नर-जनरल के दरबार में होने लगा।
अंग्रेजों ने राज्य के आर्थिक साधनों पर भी अधिकार करने का प्रयास किया। उन्होंने नमक उत्पादन के प्रमुख क्षेत्र सांभर झील और मेवाड़ के अफीम उत्पादन क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया।
शांति और व्यवस्था बनाए रखने के नाम पर लगभग सभी राज्यों में अंग्रेजी सैनिक टुकड़ियाँ स्थापित कर दी गयीं जिनका खर्च भी संबंधित राज्यों को ही वहन करना पड़ता था। जयपुर के शेखावाटी क्षेत्र में सामन्तों को दबाने के लिए अंग्रेजी सरकार ने शेखावाटी ब्रिगेड की स्थापना की जिसका नियंत्रण अंग्रेज अधिकारियों द्वारा किया जाता था लेकिन इसका व्यय जयपुर राज्य उठाता था।
मेरवाड़ा क्षेत्र में मेरों और मीणों के उपद्रव दबाने के लिए मेरवाड़ा बटालियन बनाई गई और उसका व्यय जोधपुर व उदयपुर राज्यों को उठाना पड़ा। इसी प्रकार भीलों को दबाने हेतु मेवाड़ भील कोर व ऐरनपुरा में जोधपुर लीजियन स्थापित की गई और इनका व्यय उदयपुर व जोधपुर पर थोप दिया गया।
जोधपुर महाराजा को 1839 में सबक सिखाने हेतु मेरवाड़ा व जोधपुर लीजियन की सेना ने अंग्रेज सरकार के आदेश से जोधपुर दुर्ग पर अधिकार कर लिया।
रेजीडेंटों ने सामंतों पर अंकुश हेतु उनकी शक्ति नष्ट करना आरंभ कर दिया था। संरक्षण मिल जाने से अब शासकों को सामंतों द्वारा दी जाने वाले सैनिक सहायता की आवश्यकता नहीं रह गई थी।
इस प्रकार देश की अन्य देशी रियासतों की तरह राजस्थान की रियासतों पर भी अंग्रेजों की सार्वभौमिकता स्थापित हो गयी। राजाओं के अध:पतन की यह चरम सीमा थी।
भील, गरासिया, मेर आदि पूर्व में राजभक्ति के लिए प्रसिद्ध थे लेकिन अब वन सम्पदा पर कर आदि लगने से आर्थिक कठिनाइयों में पड़कर ज्यादा ही लूट-खसोट करने लगे। यह अंग्रेज नीतियों का ही कुप्रभाव था।
इस प्रकार 1818 की संधि के बाद, अंग्रेजों द्वारा राजपूताना के राज्यों के प्रशासन में अवांछनीय हस्तक्षेप, आर्थिक संसाधनों पर आधिपत्य, अंग्रेजों द्वारा वसूल की जाने वाली वार्षिक खिराज की राशि, सामन्तों के विशेषाधिकारों पर कुठाराघात और राजपूताना के सामाजिक जीवन में हस्तक्षेप ने सर्वत्र असन्तोष को जन्म दिया। राजा, सामन्त और साधारण जनता-सभी वर्ग अंग्रेजों से असन्तुष्ट थे। ऐसी स्थिति में 1857 ई. में ब्रिटिश भारत में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम हुआ।
© 2024 RajasthanGyan All Rights Reserved.