अनुच्छेद 214 - प्रत्येक राज्य के लिए एक उच्च न्यायालय होगा।
7वें संशोधन अधिनियम 1956 द्वारा संसद को अधिकार दिया गया कि वह दो या अधिक राज्यों या केन्द्र शासित प्रदेशों के लिए साझे उच्च न्यायालय का भी गठन कर सकती है।
वर्तमान में देश में 25 उच्च न्यायालय हैं।
भारतीय संविधान के भाग 6 के अध्याय 5 में अनुच्छेद 214 से लेकर अनुच्छेद 232 तक राज्यों के उच्च न्यायालय के संगठन एवं प्राधिकार संबंधी प्रावधानों का वर्णन दिया गया है। अनुच्छेद 214 के अनुसार प्रत्येक राज्य मे एक उच्च न्यायलय की की व्यवस्था की गई है लेकिन अनुच्छेद 231 के अनुसार संसद दो या दो से अधिक राज्यों के लिए एक ही उच्च न्यायालय की व्यवस्था कर सकती है।
संविधान के अनुच्छेद 216 में उच्च न्यायालय के गठन का उल्लेख किया गया है इसमें यह कहा गया है कि प्रत्येक उच्च न्यायालय मुख्य न्यायमूर्ती और अन्य न्यायाधीशों से मिलकर बनेगा जिनकी नियुक्ति राष्ट्रपति समय-समय पर करेगा।
सर्वोच्च न्यायालय की तरह उच्च न्यायालय की स्थिति में अन्य न्यायाधीशों की संख्या संविधान द्वारा निश्चित नहीं की गई है
यही कारण है कि सिक्किम में सबसे कम न्यायाधीश हैं तथा उत्तर प्रदेश में सबसे अधिक न्यायाधीश हैं
राष्ट्रपति को संविधान के अनुच्छेद 223 के अंतर्गत कार्यकारी मुख्य न्यायाधीश से तथा अनुच्छेद 224 के अंतर्गत अतिरिक्त न्यायाधीशों की नियुक्ति करने का अधिकार है।
अनुच्छेद 217 में उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति का प्रावधान है। उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति के द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश तथा उस राज्य के राज्यपाल के परामर्श से की जाएगी। उच्च न्यायालयों के अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति में राष्ट्रपति सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश, उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश तथा उस राज्य के राज्यपाल का परामर्श लेगा।
अनुच्छेद 217(2) में उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की योग्याताओं का वर्णन किया गया है।
वह भारत का नागरिक हो।
कम से कम 10 वर्ष तक अधीनस्थ न्यायालय में न्यायाधीश के पद पर रहा हो अथवा किसी भी उच्च न्यायालय में लगातार 10 वर्ष तक वकालत की हो अथवा राष्ट्रपति की दृष्टि में वह पारंगत अथवा प्रतिष्ठित अधिवक्ता हो।
न्यायाधीश बनने के लिए कोई न्यूनतम आयु सीमा निश्चित नहीं है अथवा 62 वर्ष की आयु पूरी न किया हो।
राज्यपाल या राज्यपाल द्वारा नियुक्त किसी व्यक्ति के समक्ष।
संविधान में उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के निश्चित कार्यकाल का निर्धारण नहीं। तथापि इस संबंध में 4 प्रावधान दिये गए हैं -
मुख्य न्यायाधीश व अन्य न्यायाधीश राष्ट्रपति को अपना त्यागपत्र देते हैं।
उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों का एक उच्च न्यायालय से दूसरे उच्च न्यायालय में राष्ट्रपति के द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के परामर्श से स्थानांतरण किया जा सकता है।
उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के वेतन तथा भत्ते को निर्धारित करने की शक्ति संसद को दी गई है। उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को वेतन 90000 रु प्रतिमाह तथा अन्य न्यायाधीश को वेतन 80000 रु प्रतिमाह मिलता है।
वर्तमान में उच्च न्यायालयों को निम्नलिखित शक्तियां प्राप्त है -
वे मामले जिनमें सीधे उच्च न्यायालय जा सकते हैं। ऐसे मामले निम्न हैं -
मूल अधिकार के प्रवर्तन संबंधी मामले।
अधीनस्थ न्यायालय में उपस्थित कोई ऐसा विषय जिसमें संविधान की व्याख्या संबंधी प्रश्न निहित है।
संसद सदस्यों व राज्य विधानमण्डल सदस्यों के निर्वाचन संबंधी विवाद।
राजस्व संग्रहण एवं अन्य राजस्व मामलों में।
विवाह, तलाक, वसीयत, कंपनी कानून आदि मामले में।
न्यायिक अवमानना संबंधी मामले।
अधिक धनराशि वाले(सिविल मामलों में चार उच्च न्यायलयों को प्रारम्भिक/मूल क्षेत्राधिकार प्राप्त हैं- कलकत्ता, बम्बई, मद्रास व दिल्ली उच्च न्यायालय)
प्रारम्भ में कलकत्ता, बम्बई व मद्रास उच्च न्यायालय को आपराधिक मामलों में भी प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार था जिसे आपराधिक प्रक्रिया संहिता 1973 द्वारा समाप्त कर दिया गया।
उच्च न्यायालय मूलतः अपीलीय न्यायालय है, जो अधीनस्थ न्यायालयों के निर्णयों के विरूद्ध अपील सुनता है। यह सिविल तथा आपराधिक दोनों मामलों में अपील सुन सकता है।
क. सिविल मामले संबंधी अपील
निर्धारित सीमा से अधिक राशि वाले मामलों में सभी अधीनस्थ न्यायालयों के निर्णयों के विरूद्ध उच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है। चाहे वह मामला कानून से संबंधित हो या फिर तथ्य से।
ऐसे मामले जिसमें विधि का सारवान प्रश्न निहित हो, के संबंध में जिला एवं अधीनस्थ न्यायालय के निर्णय के विरूद्ध उच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है।
1997 के बाद प्रशासनिक तथा अन्य अधिकरणों के निर्णयों को भी उच्च न्यायालय के अपीलीय क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत लाया गया। अर्थात् इन मामलों में पीड़ित सीधे सर्वोच्च न्यायालय नहीं जा सकता।
कलकत्ता, बम्बई व मद्रास उच्च न्यायालय में अन्तः न्यायालीय अपील की व्यवस्था है।
ख. आपराधिक मामले संबंधी अपील
सात साल से अधिक सजा वाले मामलों में सत्र न्यायालय/अतिरिक्त सत्र न्यायालय के निर्णय के विरूद्ध उच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है।
मृत्युदण्ड संबंधी मामलों की पुष्टि उच्च न्यायालय द्वारा किया जाना आवश्यक है। चाहे पीड़ित ने अपील किया हो या नहीं।
सहायक सत्र न्यायाधीश नगर दण्डाधिकारी या अन्य दण्डाधिकारी के निर्णय के विरूद्ध उन मामलों में उच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है ‘जो आपराधिक प्रक्रिया संहिता 1973’ में वर्णित है।
अनुच्छेद 226 के तहत उच्च न्यायालय मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन तथा ‘किसी अन्य प्रयोजन’ हेतु रिट (बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, उत्प्रेषण, अधिकार पृच्छा), आदेश या निर्देश जारी कर सकता है।
नोट - उच्च न्यायालय का न्यायादेश/रिट संबंधी क्षेत्राधिकार उच्चतम न्यायालय से अधिक विस्तृत है।
सर्वोच्च न्यायालय की भांति उच्च न्यायालयों को भी अभिलेख न्यायालय संबंधी एवं न्यायिक अवमानना मामलों में दण्ड देने की शक्ति प्राप्त है।
न्यायिक अवमानना पद संविधान में परिभाषित नहीं।
इसे न्यायिक अवहेलना अधिनियम 1971 में परिभाषित किया गया है।
न्यायिक अवमानना दो प्रकार की होती है।
सिविल अवमानना - जानबूझकर न्यायल के आदेशों का पालन न करना।
आपराधिक अवमानना -
सर्वोच्च न्यायालय(अनुच्छेद 13) की भांति उच्च न्यायालयों (अनुच्छेद 226) को भी न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति प्राप्त है।
उच्च न्यायालयों की अधीनस्थ न्यायालयों(जैसे - जिला तथा उसके नीचे के न्यायालयों) पर नियंत्रण की व्यापक शक्ति प्राप्त है।
जिस प्रकार उच्चतम न्यायालय द्वारा घोषित कानून भारत के सभी न्यायालयों पर बाध्यकारी है। उसी प्रकार उच्च न्यायालय के कानून उन सभी अधीनस्थ न्यायालयों पर बाध्यकारी है जो उच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकार में आते हैं।
उच्च न्यायालयों को अपने क्षेत्र के अन्तर्गत आने वाले सभी न्यायालयों व सहायक न्यायालयों के क्रियाकलापों के पर्यवेक्षण का अधिकार है।
यह उच्च न्यायालय की असाधारण शक्ति है किन्तु असीमित नहीं।
उच्च न्यायालय इस शक्ति का प्रयोग तभी करती है जब अधीनस्थ न्यायालय निम्नलिखित कार्य करें -
अ. अपने क्षेत्राधिकार का अतिक्रमण।
ब. प्राकृतिक न्याय का उल्लंघन।
स. विधि संबंधी त्रुटि या विधि के प्रति असम्मान
उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को हटाने के लिए वही प्रक्रिया अपनायी जाती है जो उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों के लिए विहित है। अर्थात् इन्हें भी केवल दो आधारों पर हटाया जा सकता है -
अनुच्छेद 214 - राज्यों के लिए एक उच्च न्यायालय होगा।
अनुच्छेद 215 - अभिलेख न्यायालय।
अनुच्छेद 216 - उच्च न्यायालय का गठन।
अनुच्छेद 217 - नियुक्ति व पद संबंधी शर्तें।
अनुच्छेद 219 - शपथ या प्रतिज्ञान।
नियुक्ति की विधि।
कार्यकाल की सुरक्षा।
निश्चित सेवा शर्तें।
वेतन, भत्ते आदि संचित निधि पर भारित।
न्यायाधीशों के कार्यों पर संसद या राज्य विधानमण्डल में चर्चा नहीं।
न्यायिक अवमान हेतु दण्डित करने की शक्ति।
अपने कर्मचारियों के नियुक्ति की शक्ति।
इनके न्यायिक क्षेत्र में कटौती नहीं की जा सकती।
कार्यपालिका से पृथक्करण।
संविधान के भाग 6 में अनुच्छेद 233 से 237 तक अधीनस्थ न्यायालयों के संगठन एवं इनके कार्यपालिका से स्वतंत्रता संबंधी प्रावधान दिये गए हैं।
जिला न्यायाधीशों की नियुक्ति, पदस्थापना एवं पदोन्नति राज्यपाल द्वारा (उच्च न्यायालय के परामर्श पर) की जाती है।
केन्द्र या राज्य सरकार की सेवा में कार्यरत ना हो।
कम से कम 7 वर्ष का अधिवक्ता का अनुभव हो।
उसकी नियुक्ति की सिफारिश उच्च न्यायालय द्वारा की गई हो।
राज्यपाल जिला न्यायाधीश के अलावा राज्य की न्यायिक सेवा के अन्य पदों पर भी नियुक्तियां कर सकता है परंतु इस संबंध में निम्नलिखित का परामर्श आवश्यक है -
1. राज्य लोक सेवा आयोग
2. संबंधि उच्च न्यायालय
उच्च न्यायालय को जिला न्यायालयों व अन्य न्यायालयों में न्यायिक सेवा से संबंधित व्यक्ति की पदस्थापना, पदोन्नति एवं अन्य मामलों पर नियंत्रण का अधिकार होता है।
संरचना एवं अधिकार क्षेत्र
वह जिले का सबसे बड़ा न्यायिक अधिकारी होता है।
जब वह ‘सिविल मामलों’ की सुनवाई करता है तो ‘जिला न्यायाधीश’ कहलाता है।
जब वह ‘फौजदारी मामलों’ की सुनवाई करता है तो ‘सत्र न्यायाधीश कहलाता है।
उसे न्यायिक व प्रशासनिक दोनों प्रकार की शक्तियां प्राप्त होती है।
वह मृत्युदंड भी दे सकता है किन्तु उस पर उच्च न्यायालय की सहमति/पुष्टि आवश्यक है।
यह जिला न्यायालय के नीचे कार्य करता है तथा केवल दीवानी (सिविल) मामलों को सुनता है।
यह केवल फौजदारी मामलों की सुनवाई करता है तथा 7 वर्ष तक के कारावास की सजा दे सकता है।
यह भी जिला न्यायालय के नीचले स्तर पर कार्य करता है।
जिले का सबसे निचले स्तर का न्यायालय जो केवल सिविल (दीवानी) मामलों की सुनवाई करता है।
यह केवल फौजदारी मामलों की सुनवाई करने वाला जिले का सबसे निचला न्यायालय है।
यह तीन वर्ष तक के कारावास की सजा दे सकता है।
लोक अदालत एक ऐसा मंच है जहां निम्नलिखित मामले लाए जा सकते हैं -
1. वे मामले जो न्यायालय में लंबित है।
2. वे मामले जो अभी तक न्यायालय के समक्ष नहीं लाए गए हैं।
लोक अदालत की अवधारणा अत्यन्त प्राचीन है किन्तु स्वतंत्र भारत में इसका सर्वप्रथम प्रयोग गुजरात में 1982 में किया गया।
लोक अदालतें गांधीवादी दर्शन पर आधारित है जो विवादों का वैकल्पिक समाधान सुझाती है। यहां विवादो का समाधान निम्नलिखित तरीकों से किया जाता है -
जन अदालत - लोक अदालतों को जन अदालत भी कहते हैं क्योंकि यह आमजन को अनौपचारिक, सस्ता तथा त्वरित न्याय उपलब्ध कराता है।
‘वैधानिक सेवाएं प्राधिकरण अधिनियम 1987’ के द्वारा लोक अदालतों को वैधानिक दर्जा प्रदान किया गया। इसमें निम्न उपबन्ध किये गए।
1. लोक अदालतों को वही शक्तियां प्राप्त है जो ‘सिविल कोर्ट’ को कोड आफ सिविल प्रोसीजर के तहत प्राप्त है।
2. लोक अदालत द्वारा किया गया फैसला अंतिम तथा सभी पक्षों पर बाध्यकारी होगा।
इसमं किसी प्रकार की अदालती फीस नहीं लगती। यदि न्यायालय में फीस का भुगतान कर दिया गया है किन्तु मामले का निपटान लोक अदालत द्वारा किया गया तो न्यायालय द्वारा जमा फीस को लौटा दिया जाता है।
सभी पक्ष अपने वकीलों के माध्यम से न्यायाधीश् से सीधे संवाद कर सकते हैं।
इस प्रकार लोक अदालतें कम समय व कम लागत में तकनीकी जटिलताओं से मुक्त न्याय प्रदान करने में सहायक है।
‘परिवार न्यायालय अधिनियम 1984’ द्वारा ‘परिवार न्यायालय’ स्थापना का प्रावधान किया गया।
एक ऐसे विशेषीकृत न्यायालय का सृजन जो केवल पारिवारिक मामले ही देखेगा।
विवाह एवं परिवार संबंधी विवादों को मध्यस्थता एवं बातचीत के जरिये तीव्र गति से सुलझाना।
परिवार न्यायालय की स्थापना राज्य सरकार द्वारा उच्च न्यायालय की सहमति से की जाएगी।
एक लाख से अधिक जनसंख्या वाले प्रत्येक नगर हेतु एक परिवार न्यायालय अनिवार्य है।
परिवार न्यायालय के निर्णय विरूद्ध केवल संबंधित उच्च न्यायालय में ही अपील की जा सकती है, अन्य कहीं नहीं।
ग्राम न्यायलय अधिनियम 2008 - यह अधिनियम प्रत्येक पंचायत के लिए एक ग्राम न्यायालय की स्थापना का प्रावधान करता है।
ग्राम न्यायालय विधि आयोग की अनुशंसाओं पर आधारित है जो उसने अपनी 114वीं रिपोर्ट में दी।
ग्राम अदालतों की जन्मभूमि राजस्थान ही है।
राजस्थान का पहला ग्राम न्यायालय 27 नवंबर, 2010 को बस्सी में खोला गया।
गरीबों एवं साधनहीनों को उनके दरवाजे पर ही न्याय सुलभ कराना जिससे उन्हें शीघ्र, सस्ता एवं समुचित न्याय मिल सके।
ग्राम न्यायालय एक चलायमान न्यायालय होगा जो दीवानी व फौजदाीर दोनों शक्तियों का उपभोग करेगा।
विवादों का समाधान करने में मध्यस्थता, सुलह व प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों पर बल देगा।
न्यायिक अधिकारी की नियुक्ति राज्य सरकार उच्च न्यायालय की सहमति से करेगी। यह ग्राम न्यायालय की अध्यक्षता करता है।
संविधान के अनुच्छेद 214 के तहत राजस्थान के पहले उच्च न्यायालय का उद्घाटन जयपुर के महाराजा सवाई मानसिंह द्वारा 29 अगस्त, 1949 को जोधपुर में किया गया। मुख्य न्यायाधीश कमलकान्त वर्मा (इलाहाबाद उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश और उदयपुर उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश) एवं 11 अन्य न्यायाधीशों को महाराजा मानसिंह ने शपथ दिलवाई।
संविधान लागु होने के बाद प्रथम मुख्य न्यायाधीश श्री कैलाशनाथ वांचू थे।
न्यायाधीश श्री कैलाशनाथ वांचू मुख्य न्यायाधीश के पद पर सर्वाधिक लम्बी अवधि तक पदासीन रहे। (1951-1958)
पी. सत्यनारायण राव समिति (सदस्य – पी. सत्यनारायण राव, वी. विश्वनाथन, बी. के. गुप्ता) की सिफारिश पर राजस्थान उच्च न्यायालय की जयपुर की ब्रेंच 1958 में समाप्त कर दी गयी। सन् 1977 में पुन: जयपुर ब्रेंच की स्थापना की गयी।
जोधपुर बेंच के तहत जिला न्यायालय | जयपुर बेंच के तहत जिला न्यायालय |
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बालोतरा (बाड़मेर) | अजमेर |
बांसवाड़ा | अलवर |
भीलवाड़ा | बाराँ |
बीकानेर | भरतपुर |
चित्तौड़गढ़ | बूंदी |
चुरू | दौसा |
डूंगरपुर | धौलपुर |
हनुमानगढ़ | जयपुर |
जैसलमेर | जयपुर मेट्रो |
जालौर | झालावाड़ |
जोधपुर मेट्रो | झुंझुनू |
जोधपुर | करौली |
नागौर | कोटा |
पाली | सवाई माधोपुर |
प्रतापगढ़ | सीकर |
राजसमंद | टोंक |
सिरोही | |
श्री गंगानगर | |
उदयपुर |
राजस्थान उच्च न्यायालय में वर्तमान में मुख्य न्यायाधीश सहित 50 न्यायाधीश के पद स्वीकृत है।
वर्तमान राजस्थान उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ऑगस्टिन जार्ज मसीह (मई 2023 से वर्तमान) है।
जस्टिस ऑगस्टिन जॉर्ज मसीह ने राजस्थान उच्च न्यायालय के 41वें मुख्य न्यायाधीश के रूप में शपथ ली। विदित है कि जस्टिस मसीह का जन्म 12 मार्च, 1963 को पंजाब के रोपड़ में हुआ था। उन्होंने सेंट मैरी कॉन्वेंट स्कूल, कसौली (एचपी) में प्रारंभिक स्कूली शिक्षा ली और फिर सैफुद्दीन ताहिर हाई स्कूल, अलीगढ़ से स्कूली शिक्षा पूरी की। जस्टिस ऑगस्टाइन जॉर्ज मसीह सुप्रीम कोर्ट, पंजाब और हरियाणा, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश सहित कई राज्यों की हाईकोर्ट में प्रैक्टिस भी कर चुके हैं। वे सहायक महाधिवक्ता, उप महाधिवक्ता और अतिरिक्त महाधिवक्ता के पदों पर भी रहे।
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