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राजस्थान में किसान तथा आदिवासी आन्दोलन

राजस्थान में किसान आन्दोलन

1. बिजौलिया किसान आन्दोलन

बिजौलिया का पुराना नाम- विजयावल्ली

राणा सांगा ने अशोक परमार को अपरमाल (उतमादि) की जागीर दी थी। इस जागीर का मुख्य केन्द्र बिजौलिया था।

अशोक परमार ने खानवा के युद्ध में भाग लिया था।

बिजौलिया मेवाड़ रियासत का प्रथम श्रेणी ठिकाना था।

बिजौलिया वर्तमान भीलवाड़ा जिले में स्थित है।

किसान आन्दोलन के कारण :

  1. 84 प्रकार के कर
  2. अधिक भू- राजस्व
  3. लाटा कुन्ता
  4. चंवरी कर
  5. तलवार बंधाई कर

कृष्णसिंह ने 1903 में लड़कियों की शादी पर चंवरी कर कर लगाया। (5 रुपये)

तलवार बंधाई कर नये सामन्त द्वारा राजा को दिया जाता था लेकिन 1906 में पृथ्वीसिंह ने यह कर जनता पर लगा दिया था

बिजौलिया के किसानों में धाकड़ जाति के लोग अधिक थे।

बिजौलिया किसान आन्दोलन तीन चरणों में पुरा हुआ था।

  1. 1897 से 1916 - नेतृत्व - साधु सीताराम दास
  2. 1916 से 1923 - नेतृत्व - विजयसिंह पथिक
  3. 1923 से 1941 - नेतृत्व - माणिक्यलाल वर्मा, हरिभाऊ उपाधाय, जमनालाल बजाज, रामनारायण चैधरी।

प्रथम चरण (1897 से 1916 तक)

धाकड़ जाति के किसानों द्वारा आन्दोलन किया गया।

यह आन्दोलन गिरधरपुरा नामक गांव से प्रारम्भ हुआ था।

साघु सीताराम दास के कहने पर नानजी पटेलठाकरी पटेल को मेवाड़ महाराना फतेहसिंह के पास सिकायत के लिए उदयपुर भेजा।

महाराणा ने हामिद नामक अधिकारी को जोच के लिए भेजा।

प्रथम-चरण में किसानों को अधिक सफलता नहीं मिली।

स्थानीय नेताओं द्वारा आन्दोलन चलाया गया।

स्थानीय नेता - प्रेमचन्द भील, ब्रह्मदेव, फतेह करण चारण

1915 में पृथ्वी सिंह ने साधु सीताराम दास व इसके सहयोगी फतेह करण चारण व ब्रह्मदेव को बिजौलिया से निष्कासित कर दिया।

द्वितीय चरण (1916 से 1923 तक)

विजयसिंह पथिक तथा माणिक्यलाल वर्मा आन्दोलन से जुड़े।

विजयसिंह पथिक ने 1917 में बैरीसाल नामक गाँव में हरियाली अमावस्य के दिन ऊपरमाल पंच बोर्ड की स्थापना की तथा मन्ना पटेल को इसका अध्यअ बनाया।

विजयसिंह पथिक ने ‘ऊपरमाल सेवा समिति’ का गठन किया तथा ‘अपरमाल का डंका’ नाम से पत्र प्रकाशित किया।

बिजौलिया किसान आन्दोलन को लोकप्रिय व प्रचलित करने वाले समाचार पत्र 1. प्रताप 2. ऊपरमाल डंका थे।

मेवाड़ रियासत ने 1919 में बिन्दुलाल भट्टाचार्य आयोग बनाया। इस आयोग ने लगान कि दरें कम करने तथा लाग-बागों को हटाने की सिफारिश की किन्तु मेवाड के महाराणा ने इसकी कोई भी सिफारिश स्वीकार नहीं की।

1922 में ए.जी.जी. रॉबर्ट हॉलेण्ड तथा मेवाड़ के P.A विलकिन्स ने किसानों के साथ समझौता करवाया तथा किसानों के 35 कर माफ कर दिए गए। बिजौलिया के सामंत ने इस समझौते को स्वीकार नहीं किया।

1923 में विजय सिंह पथिक को गिरफ्दार कर लिया जाता है और 6 वर्ष की सजा सुना देते है।

तृतीय चरण (1923 से 1941)

1941 में मेवाड़ के प्रधानमंत्री सर टी. विजयराघवाचार्य थे इन्होंने अपने राजस्व मंत्री डा. मोहन सिंह मेहता को बिजौलिया भेजा इसने ठिकानेदार व किसानों के मध्य समझौता किया। लगान की दरे कम कर दी, अनेक लाग-बाग हटा दिये और बेगार प्रथा को समाप्त कर दिया।

यह किसान आन्दोलन सफलता पूर्वक समाप्त होता है।

इस किसान आन्दोलन में दो महिलाओं रानी भीलनीउदी मालन ने भाग लिया।

किसान आन्दोलन के समय माणिक्यलाल वर्मा ने पंछीड़ा गीत लिखा।

तिलक ने अपने ‘मराठा’ समाचार पत्र में बिजौलिया किसान आन्दोलन के पक्ष में लेख लिखा था तथा तिलक ने मेवाड़ महाराणा फतेहसिंह को पत्र भी लिखा।

गणेश शंकर विद्यार्थी कानपुर से ‘प्रताप नामक समाचार- पत्र’ प्रकाशित करते थे तथा इसमें बिजौलिया किसान आन्दोलन की खबरे प्रकाशित होती थी।

विजयसिंह पथिक ने गणेश शंकर विद्यार्थी को चाँदी की राखी भेजी थी।

प्रेमचन्द का रंगभुमि उपन्यास बिजौलिया किसान आन्दोलन पर आधारित है।

आन्दोलन का महत्व

  1. राजस्थान का पहला संगठित किसान आन्दोलन था।
  2. विश्व का सबसे लम्बा अहिंसक आन्दोलन था।
  3. किसानों में राजनैतिक चेतना का विकास हुआ।
  4. राजस्थान के अन्य किसान आन्दोलनों को प्रेरणा मिली।

बेंगू किसान आन्दोलन - चित्तौड़गढ़(1921 से 1924)

बेंगूं मेवाड़ रियासत का प्रथम श्रेणी ठिकाना था।

वर्तमान चितौड़गढ़ जिले में स्थित है।

यहाँ पर भी धाकड़ किसानों द्वारा आन्दोलन किया गया।

नेतृत्व - रामनारायण चैधरी

1921 में मेनाल (भीलवाड़ा) नामक स्थान से आन्दोलन प्रारम्भ हुआ।

बेंगूं के सामन्त अनूपसिंह ने किसानों से समझौता कर लिया लेकिन मेवाड़ रियासत ने इसे मानने से मना कर दिया तथा इसे बोल्शेविक समझौता कहा।

मेवाड़ महाराणा ने ट्रेन्च को जाँच करने के लिए भेजा।

13 जुलाई 1923 को गोविन्दपुरा में किसानों की सभा पर ट्रेन्च ने फायरिंग कर दी, रूपाजी व किरपाजी नामक दो धाकड़ किसान शहीद हो गये।

1924 में लगान की दरें घटा दि जाती है और बेगार प्रथा को समाप्त कर दि जाती है। इस प्रकार यह आन्दोलन सफलता पूर्वक समाप्त हो जाता है।

बुंदी/बरड़ किसान आन्दोलन(1923 से 1943 तक)

बूंदी किसान आन्दोलन में गुर्जर किसानों की संख्या अधिक थी।

नेतृत्व - पं. नयनूराम शर्मा (राजस्थान सेवा संघ के सदस्य)

डाबी हत्याकाण्ड - 2 अप्रैल 1923

2 अप्रैल 1923 को डाबी में किसानों की सभा पर इकराम हुसेन ने फ़ायरिंग कर दी, नानकजी भील तथा देवीलाल गुर्जर शहीद हो गये। (नानकजी भील झण्डा गीत गा रहे थे)

यह असफलता के कारण 1943 में समाप्त हो गया।

माणिक्य लाल वर्मा ने नानक जी मील की स्मृति में “अर्जी” गीत लिखा।

इस किसान आन्दोलन में महिलाओं ने सक्रिय रूप से भाग लिया

मुख्य नेता : पं. नयनूराम शर्मा, नारायणसिंह, भंवरलाल सुनार

अलवर किसान आंदोलन (1924 ई.)

अलवर के किसानों ने जंगली सुअरों को मारने को लेकर एक आन्दोलन चलाया क्योंकी जंगली सुअरों को अलवर राज्य में मारने की अनुमति नहीं थी। अन्त में किसानों को जंगली सुअरों को मारने की अनुमति मिल जाती है।

नीमूचाणा किसान आन्दोलन - कोटपूतल-बहरोड़ (14 मई 1925 अलवर)

1924 में अलवर के महाराणा जयसिंह ने लगान की दरों में वृद्धि कर दी। इसके विद्रोह में अलवर के किसान आन्दोलन करते है।

14 मई 1925 को नीमूचाणा ग्राम में एकत्रित होते है। छाजूसिंह नामक पुलिस अधिकारी ने फायरिंग कर दी जिसमें 156 लोग शहीद हुये थे। इसे राजस्थान का जलीयावाला बाग हत्याकाण्ड भी कहा जाता है।

गांधीजी ने अपने ‘यंग इण्डिया’ समाचार यत्र में इसे दोहरी डायरशाही बताया तथा जलियावाला काण्ड से भी अधिक भयानक बताया।

रियासत’ समाचार पत्र ने नीमूचणा हत्याकाण्ड की तुलना जलियाबाला हत्याकाण्ड से की।

तरुण राजस्थान’ समाचार - पत्र ने इस घटना को सचित्र प्रकाशित किया था।

नीमूचणा किसान आन्दोलन में राजपूत किसानों की संख्या अधिक थी।

शेखावाटी किसान आन्दालन

1922 में सीकर के सामन्त कल्याण सिंह ने करों में वृद्धि कर दी।

राजस्थान सेवा संघ के मंत्री रामनारायण चौधरी के नेतृत्व में आन्दोलन चलाया गया।

लंदन के समाचार पत्र 'डेली हेराल्ड' में आन्दोलन की खबरे छपती थी।

1925 में पैथिक लॉरेन्स ने ब्रिटेन के हाउस ऑफ कॉमन्स में आन्दोलन की बात की।

1931 में राजस्थान जाट क्षेत्रिय महासभा का गठन होता है इस सभा ने शेखावटी किसान आन्दोलन का नेतृत्व किया।

महासभा का प्रथम अधिवेशन (1933) - पलथाना (सीकर)

20 जनवरी 1934 को बसंत पंचमी के दिन ठाकुर देशराज ने जाट प्रजापति महायज्ञ' का आयोजन करवाया।

मुख्य पुरोहित खेमराज शर्मा

मुख्य यज्ञपति- कुंवर हुकुमसिंह

कटराथल सम्मेलन - सीकर (25 अप्रैल 1934)

शेखावाटी के सीहोट के ठाकुर मानसिंह द्वारा सोतियां का बास नामक गांव की जाट महिलाओं के साथ किए गए दुर्व्यवहार का विरोध करने के लिए 25 अप्रैल, 1934 को कटराथल नामक स्थान पर ‘श्रीमती किशोरी देवी’ (हरलाल सिंह खर्रा की पत्नी) के नेतृत्व में एक विशाल महिला सम्मेलन आयोजित किया गया जिसमें लगभग 10,000 जाट महिलाओं ने भाग लिया। ठाकुर देशराज की पत्नी श्रीमती उत्तमादेवी के ओजस्वी भाषण ने महिलाओं में साहस और निर्भिकता का संचार किया।

जयसिंहपुरा हत्याकाण्ड- झुंझुनूं (21 जून1934)

डूंडलोद, झुन्झुनूं में ठाकुर ईश्वरसिंह ने खेती कर रहे किसानों पर गोलीबारी करवाई, जिसमें ठाकुर ईश्वरसिंह को डेढ़ वर्ष की सजा हुई।

यह प्रथम हत्याकाण्ड था जिसमें किसानों के हत्यारों को सजा मिली।

कूदन हत्याकाण्ड (25 अप्रैल 1935)

धापी देवी के उत्साहित करने पर किसानों ने Tax देने से मना कर दिया

केप्टन वेब ने वहाँ पर फायरिंग कर दी जिसमे 4 किसान (चेतराम, टीकराम, तुलहाराम, आशाराम) शहीद हो गये।

इस हत्याकाण्ड की चर्चा ब्रिटेन के हाउस ऑफ कॉमन्स में हुई थी।

तथ्य

रामनारायण चौधरी लंदन के डेली हैराल्ड समाचार पत्र में इस आंदोलन से सम्बंधित लेख लिखते थे, इस कारण शेखावाटी की समस्या इंग्लैण्ड के हाउस ऑफ कॉमन्स (निम्न सदन) में उठी। यह मामला हाउस ऑफ कॉमन्स में मिस्ट्र लॉरेन्स ने उठाया था।

जब जयपुर महाराजा मानसिंह द्वितीय (1922-49 ई.) पर दबाव पड़ा तब उन्होंने आंदोलन की खबर तो ली किन्तु कोई फायदा नहीं हुआ।

भरतपुर किसान आंदोलन

95% कृषि भूमि राज्य सरकार के प्रत्यक्ष नियंत्रण में थी।

1931 में एक नई भूमि बंदोबस्त नीति लागू की गई, जिससे भू-राजस्व में वृद्धि हुई और इसके जवाब में राजस्व अधिकारियों ने इस अचानक वृद्धि का विरोध करना शुरू कर दिया।

23 नवंबर 1931 को “भोजी लम्बरदार” ने एक बड़े पैमाने पर किसान विरोध का आयोजन किया और उन्हें छोटे किसान आंदोलन को समाप्त करने के लिए गिरफ्तार कर लिया गया।

मेव आन्दोलन (1932-33 ई.)

अलवर, भरतपुर क्षेत्र में मोहम्मद हादी ने 1932 ई. में ‘अन्जुमन खादिम उल इस्लाम’ नामक संस्था स्थापित कर मेव किसान आंदोलन को एक संगठित रूप दिया। यह संस्था मुसलमानों के हितार्थ एक सांप्रदायिक संस्था थी। इसने मेवात की मेव जाति के लोगों में जनजागृति लाने का कार्य किया। अलवर के मेव किसान आंदोलन का नेतृत्व गुडगाँव के मेव नेता ‘चौधरी यासीन खान’ द्वारा किया गया। इसके नेतृत्व में मेवों ने खरीफ फसल का लगान देना बंद कर दिया। राज्य सरकार ने मेवों को संतुष्ट करने के लिए राज्य कॉन्सिल में एक मुस्लिम सदस्य खान बहादुर काजी अजीजुद्दीन बिलग्रामी को सम्मिलित कर लिया। अंग्रेजों ने महाराजा जयसिंह को यूरोप भेज दिया तथा इस आन्दोलन की जाँच करने के लिए अजीजुद्दीन बिलग्रामी के नेतृत्त्व में एक जाँच समिति का गठन किया गया। 1934 ई. में मेवों ने विद्रोह को समाप्त कर दिया।

बीकानेर किसान आन्दोलन

गंगनहर क्षेत्र के आन्दोलन : गंगनहर परियोजना का शिलान्यास 5 दिसम्बर, 1925 को स्वयं महाराजा गंगासिंह ने किया था। इस नहर का नाम महाराजा के नाम पर ही 'गंगनहर' रखा गया। यह नहर पंजाब की सतलज नदी से निकाली गई थी। 26 अक्टूबर, 1927 को इसका विधिवत रूप से शुभारम्भ हो गया था, जिसके साथ ही इससे सिंचाई आरम्भ हो दी इस नहर के निर्माण के साथ ही पंजाब से अनेक किसान कृषि कार्य हेतु बस गए थे। अप्रैल, 1929 में ‘जमींदार एमोसिएशन’ का गठन किया तथा दरबारासिंह को अपना अध्यक्ष नियुक्त कर इसकी शाखाएं श्रीगंगानगर मुख्यालय सहित श्री करणपुर, पदमपुर, अनूपगढ़ एवं रायसिंह नगर में खोली गई। इस संगठन के निर्माण के साथ ही इस क्षेत्र के किसानों ने आंदोलन आरम्भ किया। सर्वप्रथम 10 मई, 1929 को श्रीगंगानगर में आयोजित जमींदार एसोसिएशन की बैठक में अपनी समस्याओं का एक मांग पत्र तैयार किया। जमींदार एसोसियेशन 1929 से आरम्भ होकर 1947 तक अपने सदस्यों के हितों को पूरा करती रही। अधिकांशतः इसकी गतिविधियां संवैधानिक व शान्तिपूर्ण ही रही।

जागीर क्षेत्रों में किसान आंदोलन : बीकानेर के अधिसंख्य निवासी जाट जाति के लोग ही थे। किन्तु यह आंदोलन जातिवाद से मुक्त ही था। इन क्षेत्रो में जागीरदार लगभग 37 प्रकार की लाग-बागें किसानों से लेते थे। मूल रूप से लाग-बागों व बेगार के विरोध में ही किसान आंदोलन आरम्भ हुए थे। इसकी शुरुआत सर्वप्रथम 1937 में उदरासर के किसानों ने की थी जब उन्होंने गैर कानूनी लाग-बागों तथा बेगार के विरुद्ध अपनी आवाज उठाई थीं। यहाँ के किसानों के नेता ‘जीवन चौधरी’ ने बीकानेर किसानों की समस्याएं महाराजा के समक्ष प्रस्तुत की, किन्तु कोई सफलता नहीं मिली।

बीकानेर षड्यंत्र : अप्रैल 1932 में जब बीकानेर के महाराजा गंगा सिंह गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने के लिए लन्दन गए, तब उनके पीछे ‘बीकानेर दिग्दर्शन’ नाम के पर्चे बांटे गए, जिनमें बीकानेर शासन की वास्तविक दमनकारी नीतियों का खुलासा हुआ। लौटकर महाराजा ने जन सुरक्षा अधिनियम लागू किया।

स्वामी गोपालदास, चंदनमल बहादुर, सत्यनारायण सर्राफ, बद्री प्रसाद और खूबचंद सर्राफ को बीकानेर षडयंत्र केस में गिरफ्तार किया गया था।

दूधवाखारा किसान आंदोलन (चूरू)

1944 ई. में यहाँ के जागीरदारों ने बकाया राशि के भुगतान का बहाना कर अनेक किसानों को उनकी जोत से बेदखल कर दियाबीकानेर प्रजा परिषद् ने हनुमानसिंह के नेतृत्व में किसान आंदोलन का समर्थन किया।

कांगड कांड - रतनगढ़ (चूरू)

1946 ई. में बीकानेर में हुआ, कांगड़ वर्तमान में रतनगढ़ (चूरू) में है। ठाकुर गोप सिंह ने किसानों पर अत्याचार किए जिसकी बीकानेर प्रजा परिषद् द्वारा निंदा की गई।

कांगड कांड बीकानेर किसान आन्दोलन की अन्तिम घटना है।

मारवाड़ के कृषक आंदोलन

मारवाड़ में 1915 मेंमरुधर मित्र हितकारिणी सभा’ नामक प्रथम राजनीतिक संगठन की स्थापना हुई थी। इसके पश्चात् 1921 ई. में मारवाड़ सेवा संघ का दूसरा राजनीतिक संगठन स्थापति हुआ जिसका कार्यक्षेत्र अधिक विस्तृत था।

मारवाड़ का तौल आन्दोलन : चान्दमल सुराना व उनके साथियों ने यह आंदोलन जोधपुर सरकार द्वारा 1920-21 ई. में 100 तौले के सेर को 80 तौले के सेर में परिवर्तित करने के निर्णय के विरोध में प्रारंभ किया। अंततः सरकार को अपना निर्णय वापस लेना पड़ा

मारवाड़ हितकारिणी सभा के अन्तर्गत आन्दोलन : 29 अक्टूबर, 1923 को जोधपुर राज्य की कौन्सिल ने राज्य के राजस्व में वृद्धि के ध्येय से राज्य के बाहर पशुधन निर्यात करने का आदेश प्रसारित किया। इसके विरोध में मारवाड़ हितकारिणी सभा के नेतृत्व में 15 जुलाई, 1924 को जोधपुर शहर में जनसभा का आयोजन हुआ, जिससे अपनी मांग मनवाने के लिए राज्य पर दबाव बनाया जा सका। बढ़ते हुए जन दबाव को देखते हुए राज्य ने 15 अगस्त, 1924 को इनकी मांग स्वीकार कर ली। किसानों की ओर जनता का ध्यान आकर्षित करने के उद्देश्य से सभा ने दो पुस्तिकाएँ क्रमशः ‘पोपा बाई की पोल’ एवं ‘मारवाड़ की अवस्था’ प्रकाशित की।

चन्द्रावल एवं डाबड़ा काण्ड, 1947

मारवाड़ के सोजत परगने के ‘चन्द्रावल’ गाँव में 1945 में मारवाड़ लोक परिषद् के कार्यकर्ताओं ने शांतिपूर्वक सम्मेलन किया। उन पर लाठियों एवं भालों से हमला किया गया जिनमें अनेक घायल हो गए। 13 मार्च, 1947 में डीड़वाना परगना के ‘डाबड़ा’ में मारवाड़ लोक परिषद् एवं मारवाड़ किसान सभा का संयुक्त सम्मेलन हुआ। जब यह सम्मेलन आरम्भ हुआ तो उन पर हमला किया गया। जिसमें अनेक लोग घटना स्थल पर ही शहीद हो गए तथा सैंकड़ों लोग घायल हो गए। इस हत्याकाण्ड की पूरे देश में समाचार पत्रों (बम्बई के ‘वन्देमातरम्जयपुर के ‘लोकवाणी’, जोधपुर के ‘प्रजा सेवक’ और दिल्ली के ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’) ने निंदा की।

जनजातीय आन्दोलन

भील आन्दोलन

1. मेवाड़ में भील आंदोलन (1881-83)

1872 से 1875 के बीच बांसवाड़ा में भील विद्रोह की कई घटनाएं हुईं। 1881 – 1882 में उदयपुर राज्य के भीलों ने अंग्रेजों और उदयपुर राज्य के खिलाफ विद्रोह किया, जो 19वीं सदी का सबसे भीषण भील विद्रोह साबित हुआ। 26 मार्च, 1881 को राज्य प्रतिनिधि मामा अमनसिंह और ब्रिटिश प्रतिनिधि लोनारगन के नेतृत्व में सेना बारापाल पहुंची और 27 मार्च को सैकड़ों भील झोपड़ियों को जलाकर राख कर दिया। जल्द ही, पूरे मेवाड़ के भील विद्रोह में शामिल हो गए। राज्य और ब्रिटिश सेना द्वारा विद्रोह को कुचलने का प्रयास विफल रहा। अंत में, कर्नल वाल्टर के नेतृत्व में वार्ता एक समझौते के साथ समाप्त हुई, जिसमें भीलों को उनके वन अधिकारों और करों में रियायतें दी गईं।

2. भगत आन्दोलन

मेवाड़, डूरंगरपुर, बांसवाड़ा की भील जनजाति द्वारा आन्दोलन किया गया।

गोविन्द गुरू ने सुरजी भगत के साथ मिलकर आन्दोलन चलाया था।

गोविन्द गुरु ने 1883 में सम्प सभा का गठन किया।

गीविन्द गुरु स्वामी दयानन्द सरस्वती से प्रभावित थे। जनजातियों को हिन्दु धर्म में रखने के लिए भगत पंथ की स्थापना की।

गोविन्द गुरु ने भीलों का नैतिक व आध्यात्मिक उत्थान किया।

मानगढ़ हत्याकाण्ड (बांसवाड़ा) (17 नवंबर 1913):

मानगढ़ पहाड़ी पर सम्प सभा का अधिवेशन हो रहा था, पुलिस द्वारा फायरिंग की गई जिसमें 1500 से अधिक भील मारे गये

इसे ‘राजस्थान का जलियावाला हत्याकाण्ड’ कहा जाता है।

17 नवम्बर 2012 को मानगढ़ पहाड़ी पर शहीद स्मारक का निर्माण किया गया और इसका लोकार्पण मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने किया।(100 वर्षों के पुरा होने पर )

गोविन्द गुरु को गिरफ्तार कर लिया। गोविन्द गुरु को 10 वर्ष बाद रिहा कर दिया गया।

गोविन्द गुरु ने शेष जीवन कान्बिया गांव (गुजरात) में शांतिपूर्ण तरीके से गुजारा।

गोविन्द गुरु अहिंसा के समर्थक थे, उनका सफेद झण्ड़ा शांति का प्रतीक था।

3. एकी आन्दोलन

गोविन्द गिरी के जेल (10 वर्ष कारावास) में जाने के बाद इसका नेतृत्व - मोतीलाल तेजावत करते है इनका जन्म 1886 में कोत्यारी ग्राम(उदयपुर) में ओसवाल(जैन) परिवार में हुआ।

मोतीलाल तेजावत को भीलों का मसीहा कहते है।

भील इन्हें बावसी के नाम से पुकारते है।

मोतीलाल तेजावत द्वारा एकी आन्दोलन चलाया गया। भोमट क्षेत्र में चलाने के कारण इसे भोमट आन्दोलन के नाम से भी जाना जाता है।

एकी आन्दोलन का प्राराम्भ 1921 में मातृकुण्डिया ग्राम(चित्तौड़गढ़) से हुआ।

मोतीलाल तेजावत ने मेवाड़ महाराणा के सामने 21 मांगे रखी जिन्हें ‘मेवाड़ की पुकार’ कहा जाता है लेकिन इन मांगो पर ध्यान नहीं दिया गया।

धीरे-धीरे यह आन्दोलन डूंगरपुर, इडर, विजयनगर (गुजरात), बांसवाड़ा आदि क्षेत्रों में फैल गया।

इन्होंने भीलों का एक विशाल सम्मेल नीमड़ा (विजयनगर) में 7 मार्च 1922 को आयोजित किया। और इनके सम्मेलन पर मेवाड़ भील कोर के सैनिकों द्वारा गोली बारी की और इसमें 1200 भील मारे जाते हैं

इसको महात्मा गांधी ने जलियावाला बाग हत्याकाण्ड से भी भयानक बताया व इसे राजस्थान का दुसरा जलिया वाला बाग हत्याकाण्ड भी कहा जाता है।

मोतीलाल तेजावत भूमिगत रहकर नेतृत्व करते है।

1929 में महात्मा गांधी के परामर्श से आत्म समर्पण कर दिया।

1936 में मेवाड़ के सुप्रीम कोर्ट महाइन्द्राज सभा ने मोतीलाल तेजावत को रिहा कर दिया। इन्होनें अपना शेष जीवन गाँधी जी के रचनात्मक कार्यक्रमों में बिताया।

महाइन्द्राज सभा की स्थापना 1880 में मेवाड़ महाराणा सज्जनसिंह ने की थी।

मीणा आन्दोलन

1924 में आपराधिक जनजाति अधिनियम पारित किया गया तथा इसमें मीणा जनजाति को शामिल किया गया।

1930 मे जयपुर रियासत ने जरायम पेशा कानून पारित किया तथा सभी मीणा महिला-पुरुषों को थाने में हाजिरी लगवाना अनिवार्य कर दिया।

1924 ई. के कानून का विरोध करने और मीणों में जागृति उत्पन्न करने तथा उनमें प्रचलित कुरीतियों को दूर करने के लिए छोटूराम झरवाल, महादेवराम, पबड़ी तथा जवाहरराम मीणा ने ‘मीणा जाति सुधार समिति’ की स्थापना की।

1933 में मीणा क्षेत्रीय महासभा का गठन किया।

सन्त मगन सागर ने 1944 में नीम का थाना में मीणा सम्मेलन का आयोजन किया तथा ‘मीन पुराण’ नामक पुस्तक लिखी।

1944 में बंशीधर शर्मा ने जयपुर मीणा सुधार समिति का गठन किया

28 अक्टूबर 1946 को बागवास सम्मेलन (जयपुर) में सभी चौकीदार मीणाओं ने अपने पदों से इस्तीफे दिए तथा इसे मुक्ति दिवस के रूप में मनाया।

1952 में जरायम पेशा कानून समाप्त कर दिया गया।

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