भूमी की सबसे ऊपरी परत जो पेड़-पौधों के उगने के लिए आवश्यक खनिज आदि प्रदान करती है, मृदा या मिट्टी कहलाती है।
भिन्न स्थानों पर भिन्न प्रकार की मिट्टी पाई जाती है इनकी भिन्नता का सम्बन्ध वहां की चट्टानों की सरंचना, धरातलीय स्वरूप, जलवायु, वनस्पति आदि से होता है।
मिट्टी के अध्ययन के विज्ञान को मृदा विज्ञान यानी पेडोलोजी कहा जाता है।
मिट्टी के सामान्य प्रकार निम्न है -
इसका निर्माण मानसूनी जलवायु की आर्द्रता और शुष्कता के क्रमिक परिवर्तन के परिणामस्वरूप उत्पन्न विशिष्ट परिस्थितियों में होता है। गहरी लेटेराइट मिट्टी में लोहा ऑक्साइड और पोटाश की मात्रा अधिक होती है। लौह आक्साइड की उपस्थिति के कारण प्रायः सभी लैटराइट मृदाएँ जंग के रंग की या लालापन लिए हुए होती हैं। शैलों यानी रॉक्स की टूट-फूट से निर्मित होने वाली इस मिट्टी को गहरी लाल लैटेराइट, सफेद लैटेराइट और भूमिगत जलवायी लैटेराइट के रूप में वर्गीकृत किया जाता है। लैटेराइट मिट्टी चाय की खेती के लिए सबसे उपयुक्त होती है।
इसका निर्माण उच्च तापमान, कम आर्द्रता वाले क्षेत्रों में ग्रेनाइट एवं बलुआ पत्थर के क्षरण से हुआ है।
इसका निर्माण जल वायु परिवर्तन की वजह से रवेदार और कायांतरित शैलों के विघटन और वियोजन से होता है।इस मिट्टी में सिलिका और आयरन बहुलता होती है। लाल मिट्टी का लाल रंग आयरन ऑक्साइड की उपस्थिति के कारण होता है, लेकिन जलयोजित रूप में यह पीली दिखाई देती है.
इसका निर्माण बेसाल्ट चट्टानों के टूटने-फूटने से होता है। इसमें आयरन, चूना, एल्युमीनियम जीवांश और मैग्नीशियम की बहुलता होती है। इस मिट्टी का काला रंग टिटेनीफेरस मैग्नेटाइट और जीवांश (ह्यूमस) की उपस्थिति के कारण होता है इस मिट्टी को रेगुर मिट्टी के नाम से भी जाना जाता है। काली मिट्टी कपास की खेती के लिए सबसे ज्यादा उपयुक्त होती है इसलिए इसे काली कपास की मिट्टी यानी ब्लैक कॉटन सॉइल भी कहा जाता है। इस मिट्टी में कपास, गेंहू, दालें और मोटे अनाजों की खेती की जाती है।
यह नदियों द्वारा लायी गयी मिट्टी है. इस मिट्टी में पोटाश की बहुलता होती है, लेकिन नाइट्रोजन, फॉस्फोरस और ह्यूमस की कमी होती है।
यह मिट्टी 2 प्रकार की होती है:-
1.बांगर (Bangar)
2.खादर (Khadar)
पुरानी जलोढ़ मिट्टी को बांगर और नयी जलोढ़ मिट्टी को खादर कहा जाता है।
राजस्थान की अधिकांश मिट्टीएं जलोढ़ और वातोढ़ हैं। यहां की जलवायु शुष्क होने के कारण जलोढ़ मैदान धीरे-धीरे वातीय मैदानों में बदल गये तथा सम्पूर्ण पश्चिमी क्षेत्र में रेतीला मरूस्थल हो गया। पश्चिमी राजस्थान की मिट्टियां प्रायः बालूमय हैं। वहीं दक्षिणी-पूर्वी पठारी भाग मालवा के पठार का हिस्सा है, जहां काली एवं कहीं-कहीं लाल लाल मिट्टी है। राज्य में मिट्टी की उर्वरता पश्चिम से पूर्व की ओर बढ़ती है। चम्बल, बनास, माही, बाणगंगा, लूनी एवं इनकी सहायक नदियों की घाटियों में उपजाऊ मिट्टी पाई जाती है।
राजस्थान में मृदा क्षेत्रों को उनकी विशेषताओं और उर्वरता के आधार पर 9 भागों में बांटा गया है -
भारत में लगभग 31.7 लाख हैक्टेयर भूमि रेतीली है। अरावली के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र, जो थार मरूस्थल का भाग, में अधिकतर मिट्टी रेतीली है। इस मिट्टी के कण मोटे होते हैं जिस कारण इसकी जल ग्रहण क्षमता कम होती है, इसमें नाइट्रोजन व कार्बनिक लवणों व जैविक पदार्थों का अभाव होता है, परन्तु इसमें कैल्शियम लवणों की अधिकता होती है। यह सम्पूर्ण क्षेत्र वायु द्वारा लाई गई मिट्टी से निर्मित है। यह बाजरा, मोठ तथा मूंग की फसल के लिए उपयुक्त है।
अरावली के पश्चिमी जिलों बाड़मेर, जालौर, जोधपरु, सिरोही, पाली, नागौर, सीकर और झुन्झुनूं जिले में पायी जाती है। इस मिट्टी में फास्फेट के तत्व अधिक मिलते हैं।
इन मिट्टियों का लाल व पीला रंग लौह आॅक्साइड के जलयोजन की उच्च मात्रा के कारण है। इसमें कैल्शियम कार्बोनेटकी नगण्यता एवं नाइट्रोजन एवं जैविक कारकों की अल्पता होती है। यह मिट्टी सवाईमाधोपुर, भीलवाड़ा, अजमेर और सिरोही जिलों पायी जाती है। इन भागों में चीका व दोमट प्रकार की मिट्टियां पाई जाती है। इस मिट्टी का पी. एच. मान 5.5 से 8.5 के बीच है।
इसका लाल रंग इसमें लौह तत्वों की मौजूदगी को दर्शाता है। ऐसी मिट्टी का कण बारीक होने से इसमें पानी अधिक समय तक रहता है। इसमें नाइट्रोजन, फास्फोरस और केल्शियम लवणों की कमी होती है। तथा पोटाश एवं लौह तत्वों की अधिकता होती है। यह मिट्टी दक्षिणी राजस्थान के डूंगरपुर, बांसवाड़ा, उदयपुर व चित्तौड़गढ़ के कुछ भागों में पाई जाती है। इस प्रकार की मिट्टी में रासायनिक खाद देने और सिंचाई करने से चावल, कपास, मक्का, गेहूं, गन्ना आदि पैदा किये सकते हैं।
यह मालवा पठार की काली मिट्टी का ही विस्तार है। इसमें साधारणतया फास्फेट, नाइट्रोजन, कैल्शियम और कार्बनिक पदार्थो की कमी होती है। सामान्यतया यह उपजाऊ मिट्टी है जिसमें कपास, मक्का आदि की फसलें प्राप्त की जाती है। यह मिट्टी भीलवाड़ा, चित्तोड़गढ़, डूंगरपरु व बांसवाड़ा और उदयपुर के पूर्वी भागों में मिलती है।
इस मिट्टी का रंग गहरा भूरा होता है। इस प्रकार की मिट्टी का निर्माण लावा पदार्थों से हुआ है। इसका कण बारीक होता है। जिसके कारण इसकी जल धारण क्षमता उच्च होती है। इन मिट्टियों में फास्फेट, नाइट्रोजन और पोटाश की मात्रा पर्याप्त होती है। यह उपजाऊ मिट्टी है। कपास की खेती के लिए सर्वाधिक उपयुक्त है। इस कारण इसे रेगुर एवं कपास मिट्टी भी कहा जाता है। यह मिट्टी मुख्यतः झालावाड़, बूंदी, बारां और कोटा जिलों में पायी जाती है।
यह नदियों द्वारा बहाकर लाई गई सबसे उपजाऊ मिट्टी मानी जाती है। इसमी जल धारण क्षमता उच्च होती है। इसमें नाइट्रोजन तथा कार्बनिक लवण पर्याप्त मात्रा में होते हैं। लेकिन चूना, फास्फोरिक अम्ल और जैविक अंश(ह्यूमस) की कमी पाई जाती है। यह गेंहू, चावल, कपास तथा तम्बाकू के लिये उपयुक्त है।
इस प्रकार की मिट्टी में क्षारीय लवणों की मात्रा अधिक होती है। यह अनुपजाऊ होती है। इसका विस्तार बाड़मेर, जालौर में है। इसके अलावा यह गंगानगर व बीकानेर में भी यह पाई जाती है।
इसमें चुना, फाॅस्फोरस व ह्यूमस की कमी पायी जाती है। यह उपजाऊ है। इसका विस्तार गंगानगर के मध्य भाग , अलवर व भरतपुर के उत्तरी भाग में है।
इस वर्गीकरण को प्रो. थार्प व स्मिथ ने प्रस्तुत किया -
लाल बलुई मिट्टी मुख्यतः मरुस्थलीय भागों में पाई जाती है ।लाल बलुई मिट्टी में नाइट्रोजन व कार्बनिक तत्त्वों की मात्रा कम होती है। लाल बलुई मिट्टी वाले क्षेत्रों में बरसाती घास व कुछ झाड़ियाँ पाई जाती है। लाल बलुई मिट्टी वाले क्षेत्रों में खरीफ के मौसम में बारानी खेती की जाती है, जो पूर्णतः वर्षा पर निर्भर होती है। लाल बलुई मिट्टी वाले क्षेत्रों में रासायनिक खाद डालने और सिंचाई करने पर ही रबी की फसलें (गेंहूँ, जौ,चना आदि) होती है। लाल बलुई मिट्टी का विस्तार जालौर, जोधपुर, नागौर, पाली, बाड़मेर, चूरू और झुंझनू जिलों के कुछ भागों पाई जाती है ।
भूरी मिट्टी का जमाव विशेषतः बनास व उसकी सहायक नदियों के प्रवाह क्षेत्र में पाया जाता है। राजस्थान में भूरी मिट्टीयुक्त क्षेत्र अरावली के पूर्वी भाग में माना जाता है। भूरी मिट्टी में नाइट्रोजन और फॉस्फोरस लवणों का अभाव होता है। भूरी मिट्टी राज्य के टोंक, सवाई माधोपुर, बूँदी, भीलवाड़ा, उदयपुर, राजसमंद व चित्तौड़गढ़ जिलों में पाई जाती है ।
पीले और भूरे रंग की मिट्टी सीरोजम होती है । सीरोजम मिट्टी के कण मध्यम मोटाई के होते हैं । सीरोजम मिट्टी में नाइट्रोजन और कार्बनिक पदार्थों की कमी होती है । सीरोजम मिट्टी की उर्वरा शक्ति भी कम होती है। सीरोजम मिट्टी में बारानी खेती की जाती है । सीरोजम मिट्टी में रबी की फसलों के लिए निरन्तर सिंचाई तथा अधिक मात्रा में रासायनिक खाद की आवश्यकता होती है । सीरोजम मिट्टी का विस्तार ज्यादातर अरावली के पश्चिम में पाया जाता है। सीरोजम मिट्टी का विस्तार पाली, नागौर, अजमेर व जयपुर जिले के बहुत बड़े क्षेत्र में पाया जाता है । सीरोजम मिट्टी छोटे टीलों वाले भागों में पाई जाती है।
लाल दुमट मिट्टी के कण बारीक होते हैं। पानी ज्यादा समय तक रहने के कारण लाल दुमट मिट्टी में नमी लम्बे समय तक बनी रहती है । लाल दुमट मिट्टी का रंग लाल होने का कारण लौह ऑक्साइड की अधिकता हैं। लाल दुमट मिट्टी में नाइट्रोजन, फॉस्फोरस और कैल्सियम लवणों की कमी होती है। लाल दुमट मिट्टी में रासायनिक खाद देने व सिंचाई करने से कपास, गेंहूँ, जौ, चना आदि की फसलें अच्छी होती हैं। लाल दुमट मिट्टी राजस्थान के डूँगरपुर, बाँसवाड़ा, उदयपुर, राजसमंद व चित्तौड़गढ़ जिलों(दक्षिणी राजस्थान) के कुछ भागों में पाई जाती है।
बलुई मिट्टी पश्चिमी राजस्थान में पाई जाती है । बलुई मिट्टी के कण मोटे होते हैं, जिनमें पानी शीघ्र ही विलीन हो जाता है । और सिंचाई का भी विशेष लाभ नहीं होता। बलुई मिट्टी में नाइट्रोजन व कार्बनिक लवणों की कमी होती है । बलुई मिट्टी में कैल्सियम लवणों की अधिकता रहती है । बलुई मिट्टी वाले क्षेत्रों में बाजरा, मोठ, मूँग आदि खरीफ की फसलें होती हैं । बलुई मिट्टी के ऊँचे टीलों के निचले भाग में बारीक कणों वाली मटियारी मिट्टी पाई जाती है। बलुई मिट्टी के ऊँचे टीलों के निचले भू-भागों को खडीन कहते हैं, ये बहुत उपजाऊ होते हैं।
जलोढ़ मिट्टी की रचना नदी-नालों के किनारे तथा उनके प्रवाह क्षेत्र में होती है। जलोढ़ मिट्टी नदियों द्वारा बहाकर लाई गई मिट्टी होती है। जलोढ़ मिट्टी बहुत उपजाऊ होती है। जलोढ़ मिट्टी में नाइट्रोजन व कार्बनिक लवण पर्याप्त मात्रा में होते हैं । जलोढ़ मिट्टी में कहीं-कहीं कंकरों का जमाव भी होता है, जिसमें कैल्सियम तत्त्वों की मात्रा बढ़ जाती है। जलोढ़ मिट्टी में खरीफ व रबी दोनों प्रकार की फसलें उगाई जा सकती हैं । जलोढ़ मिट्टी अलवर, जयपुर, अजमेर, टोंक, सवाई माधोपुर, भरतपुर व धौलपुर, कोटा आदि जिलों में पाई जाती है ।
लवणीय मिट्टी में क्षारीय लवण तत्त्वों की मात्रा अधिक होती है । लवणीय मिट्टी में लवणों का जमाव अधिक सिंचाई से भी हो जाता है । लवणीय मिट्टी पूर्णतः अनुपजाऊ होती है । लवणीय मिट्टी में केवल झाड़ियाँ व बरसाती पेड़ ही उग सकते हैं। लवणीय मिट्टी के अधिकांश क्षेत्र पश्चिमी राजस्थान में पाए जाते हैं । लवणीय मिट्टी राजस्थान के बाड़मेर व जालौर में विशेषतः तथा श्री गंगानगर, हनुमानगढ़, भरतपुर व कोटा जैसे सिंचाई वाले भागों में पाई जाती है।
पर्वतीय मिट्टी का रंग लाल से लेकर पीले, भूरे रंग तक होता है। पर्वतीय मिट्टी पहाड़ी ढालों पर होने के कारण पर्वतीय मिट्टी की गहराई कम होती है, कुछ गहराई के बाद चट्टानी धरातल होता है । पर्वतीय मिट्टी पर खेती नहीं की जा सकती । पर्वतीय मिट्टी सिरोही, उदयपुर, पाली, अजमेर और अलवर जिलों के पहाड़ी भागों में पाई जाती है ।
वैज्ञानिकों का यह प्रयास रहा है कि मृदा का ऐसा वर्गीकरण हो जिसमें विश्व की सभी मिट्टियों को आसानी से रखा जा सके। इसके लिए अमेरिकी कृषि विभाग के वैज्ञानिकों ने एक नई पद्वति को विकसित किया। इस नई पद्धति में मृदा की उत्पत्ति के कारकों को आवश्यकतानुसार महत्व देते हुए अधिक महत्वपूर्ण मृदाओं में मौजुद गुणों को दिया जाता है।
इसके अनुसार राजस्थान में मिट्टियों का वर्गीकरण -
पश्चिमी राजस्थान में। ऐसा मृदा वर्ग जिसके अंतर्गत भिन्न प्रकार की जलवायु में स्थित मृदाओं का समावेश होता है। पश्चिमी राजस्थान के लगभग सभी जिलों में इस प्रकार की मृदा पार्इ जाती है। इसका रंग प्राय: हल्का पीला-भूरा
वह खनिज मृदा जो अधिकतर शुष्क जलवायु में पायी जाती है। चूरू, सीकर, झुंझूनू, नागौर, जोधपुर, पाली, जालौर जिलों में।
काली व रेगुर मिट्टी का क्षेत्र। ।इसमें अत्यधिक क्ले उपस्थिति होने के कारण इसमें मटियारी मिट्टी की विशेषताएं पायी जाती है। झालावाड़, बारां, कोटा, बूँदी
अर्द्धशुष्क से आर्द्र जलवायु क्षेत्रों में।जलोढ़ मृदाओं के मैदान में भी। शुष्क जलवायु में पूर्णत: अभाव। सिरोही, पाली, राजसमन्द, उदयपुर, भीलवाड़ा, झालावाड़।
जलोढ़ मिट्टी का क्षेत्र। जयपुर, दौसा, अलवर, भरतपुर, सवार्इमाधोपुर, करौली, टोंक, भीलवाड़ा, चित्तौड़गढ़, बांसवाड़ा, राजसमन्द, उदयपुर, डूंगरपुर, बूंदी, कोटा, बारां, झालावाड़। मटियारी मिट्टी की मात्रा अधिक।
जयपुर – सामान्य मिट्टी प्रयोगशाला।
जोधपुर – समस्याग्रस्त मिट्टी प्रयोगशाला।
राज्य में केन्दीय भू-संरक्षण बोर्ड कार्यालय – कोटा, जोधपुर।
लाल मिट्टी मे बालु की मात्रा अधिक होती है। इसमें CaCO3 नही पाया जाता है। ऐसी मृदा सामान्यतया उदासीन होती है जिसका (pH मान 0-7.5) होती है।
लवणीय मृदा में pH का मान 5 से कम होता है।
बलुर्इ/रेतीली का pH मान अधिक (क्षारीय) होता है।
आम तौर पर मृदा का pH मान 5 से कम होने पर वह अम्लीय मृदा कहलाती है।
पौधों कि लिए सर्वाधिक उपयुक्त मृदा pH मान 6 से 7 होता है।
सर्वाधिक उत्पादक मृदाओं का pH परास 6-8 होता है।
मिट्टी की ऊपरी सतह पर से उपजाऊ मृदा का स्थानांतरित हो जाना मिट्टी का अपरदन या मिट्टी का कटाव कहलाता है।
अवनालिका अपरदन/कन्दरा समस्या – भारी बारिश के कारण जल द्वारा मिट्टी का कटाव जिससे गहरी घाटी तथा नाले बन जाते हैं। इस समस्या से कोटा (सर्वाधिक), बूंदी, धौलपुर, भरतपुर, जयपुर तथा सवाई माधोपुर जिले ग्रस्त हैं।
परतदार अपरदन- वायु द्वारा मिट्टी की ऊपरी परत का उड़ाकर ले जाना।
मृदा अपरदन मुख्यत: पशुओं द्वारा अत्यधिक चराई, अवैज्ञानिक ढंग से कृषि, वनों की अंधाधुंध कटाई के कारण होता है।
सेम समस्या/जलाधिक्य – नहरों से सिंचित क्षेत्रों में यह समस्या पाई जाती है।
मिट्टी में लवणीयता की समस्या दूर करने हेतु रॉक फॉस्पफेट का प्रयोग।
मिट्टी की क्षारीयता की समस्या दूर करने हेतु जिप्सम का प्रयोग।
राज्य में वायु से मृदा अपरदन का क्षेत्रफल सबसे अधिक, उसके बाद जल से मृदा अपरदन।
मिट्टी का अवनालिका अपरदन सर्वाधिक चम्बल नदी से।
खड़ीन- मरूभूमि में रेत के ऊँचे-ऊँचे टीलों के समीप कुछ स्थानों पर निचले गहरे भाग बन जाते है। जिनके बारीक कणों वाली मटियारी मिट्टी का जमाव हो जाता है।
तलाब में पानी सूखने पर जमीन की उपजाऊ मिट्टी की परत को पणों कहते है।
राजस्थान में सर्वाधिक बंजर व अकृषि भूमि उदयपुर में है।
जैसलमेर दूसरे स्थान पर है।
राज्य की प्रथम मृदा परीक्षण प्रयोगशाला जोधपुर में भारतीय क्षारीय मृदा परीक्षण प्रयोगशाला नाम से स्थापित की गर्इ।
भूमि की सेम समस्या मुख्य रूप से हनुमानगढ़, श्रीगंगानगर जिले में।
हनुमानगढ़ सेम समस्या निदान के लिए इकोडच परियोजना नीदरलैण्ड (हॉलैण्ड) की सहायता से चलार्इ जा रही है।
नीदरलैण्ड आर्थिक एवं तकनीकि सहायता प्रदान कर रहा है।
ऊसर भूमि के लिए हरी खाद तथा गोबर का उपयोग करना चाहिए।
राजस्थान में लगभग 7.2 लाख हैक्टेयर भूमि क्षारीय व लवणीय है।
आवरण अपरदन– जब घनघोर वर्षा के कारण निर्जन पहाड़ियों की मिट्टी जल में घुलकर बह जाती है।
धरातली अपरदन– पहाड़ी एवं सतही ढ़ालों की ऊपरी मूल्यवान मिट्टी को जल द्वारा बहा ले जाना।
नालीनूमा अपरदन– जब जल बहता है। तो उसकी विभिन्न धारायें मिटट्ी को कुछ गहरार्इ, तक काट देती हैं परिणाम स्वरूप धरातल में कर्इ फुट गहरी नालियां बन जाती है। कोटा, सवार्इ माधोपुर, धौलपुर में इस प्रकार अपरदन पाया जाता है।
धमासा (ट्रफोसिया परपूरिया)— एक खरपतवार है जो जयपुर क्षेत्र में अधिक पाई जाती है।
देश की व्यर्थ भूमि का 20% भाग राजस्थान में पाया जाता है, क्षेत्रफल की दृष्टि से सर्वाधिक व्यर्थ भूमि जैसलमेर (37.30%) में है।
उपलब्ध क्षेत्र के प्रतिशत की दृष्टि से सर्वाधिक व्यर्थ पठारी भूमि राजसमंद में हैे।
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