विश्व के अधिकांश देशों में जिस संस्था को ऑम्बुड्समैन कहा जाता है, उसे हमारे देश में लोकपाल या लोकायुक्त के नाम से जाना जाता है। भारत में लोकपाल या लोकायुक्त नाम 1963 में मशहूर कानूनविद डॉ. एल. एम. सिंघवी ने दिया था। लोकपाल शब्द संस्कृत भाषा के शब्द लोक (लोगों) और पाला (संरक्षक) से बना है।
लोकपाल या ऑम्बुड्समैन नामक संस्था ने प्रशासन के प्रहरी बने रहने में अन्तर्राष्ट्रीय सफलता प्राप्त की है। इसका प्रारम्भिक श्रेय स्वीडन को जाता है जहाँ सर्वप्रथम इस संस्था की अवधारणा की कल्पना की गई। वहाँ वर्ष 1713 में किंग चार्ल्स 12 ने कानून का उल्लंघन करने वाले अधिकारियों को दण्डित करने के लिए अपने एक सभासद को नियुक्त किया। स्वीडन में नया संविधान बनाने हेतु गठित संविधान सभा के सदस्यों का आग्रह रहा कि पूर्व व्यवस्था से भिन्न उनका ही एक अधिकारी जाँच का कार्य करे जो किसी भी स्थिति में सरकारी अधिकारी नहीं होना चाहिए। इस पर वर्ष 1809 में स्वीडन के संविधान में ‘ऑम्बुड्समैन फॉर जस्टिस’ के रूप में प्रथम बार इस संस्था की व्यवस्था हुई जो लोकसेवकों द्वारा कानूनों तथा विनियमों के उल्लंघन के प्रकरणों की जाँच करेगा।
आम्बड्समैन स्वीडिश भाषा का एक शब्द है जिसका शाब्दिक अर्थ लोगों का रिप्रेन्जेटेटिव या एजेन्ट होता है। वस्तुतः ‘ऑम्बुड्समैन‘ का अर्थ एक ऐसे व्यक्ति से है जिसे कुप्रशासन, भ्रष्टाचार, विलम्ब, अकुशलता, अपारदर्शिता एवं पद के दुरूपयोग से नागरिक अधिकारों की रक्षा हेतु नियुक्त किया जावे।
हमारे देश में 5 जनवरी, 1966 को श्री मोरारजी देसाई की अध्यक्षता में पहलेे प्रशासनिक सुधार आयोग का गठन किया गया। इस आयोग ने ‘‘प्रॉब्लम ऑफ रिड्रेस ऑफ सिटीजन्स ग्रीवन्सेज‘‘ से सम्बन्धित अपने वर्ष 1966 के अन्तरिम प्रतिवेदन में व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार, चारों ओर फैली अकुशलता तथा जनसामान्य की आवश्यकताओं के प्रति प्रशासन की संवेदनशून्यता के विरूद्ध प्रायः उभरने वाले आक्रोश पर विचार कर यह सिफारिश की थी कि जन अभियोग निवारण तथा दुराचारपूर्ण व्यवस्था से उत्पन्न भ्रष्टाचार और अन्याय का अभिकथन करने वाली शिकायतों की जॉंच के लिए केन्द्र में लोकपाल तथा राज्यों में लोकायुक्त नामक कानूनी संस्था की स्थापना की जाये किन्तु इस सिफारिश को पर्याप्त लम्बे समय तक स्वीकार नहीं किया गया।
देश में सर्वप्रथम 1970 में ओडिशा में लोकपाल बिल पारित किया गया, परंतु ओडिशा में लोकायुक्त पद की स्थापना 1983 में की गई।
सर्वप्रथम 1971 में महाराष्ट्र में लोकायुक्त पद की स्थापना की गई।
1973 में राजस्थान में और इसके उपरान्त लगभग 20 से अधिक राज्यों में लोकायुक्त संस्था की स्थापना हुई। इसके पूर्व भी राजस्थान में जन अभियोग की देखभाल के लिए जन अभियोग निराकरण विभाग विद्यमान था किन्तु सरकार के इस तंत्र में किसी ऐसी संस्था का प्रावधान नहीं था जिसके द्वारा मंत्रियों, सचिवों और लोक सेवकों के विरूद्ध पद के दुरूपयोग, भ्रष्टाचार और निष्क्रियता की शिकायतों की जॉंच व अन्वेषण किया जा सके। राजस्थान में सर्वप्रथम 1963 में हरिश्चंद्र माथुर की अध्यक्षता में गठित प्रशासनिक सुधार समिति ने लोकायुक्त जैसी संस्था की स्थापना की सिफारिश की थी जो कार्यपालिका के कार्यो पर नजर रखें तथा शिकायतों व भष्ट्राचार के मामलों की जांच कर सकें।
वर्ष 1973 में राजस्थान लोकायुक्त तथा उप लोकायुक्त अध्यादेश पारित हुआ, जो 3 फरवरी, 1973 से राजस्थान में प्रभावी हुआ। इसे 26 मार्च, 1973 को महामहिम राष्ट्रपति की स्वीकृति प्राप्त हो गई और तब से यह अधिनियम के रूप में प्रदेश में प्रभावी है।
केन्द्रीय स्तर पर लोकपाल एवं राज्य स्तर पर लोकायुक्त संस्थाओं की स्थापना के लिए बहुप्रतीक्षित लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम, 2013 (2014 का अधिनियम सं. 1) संसद द्वारा वर्ष 2014 में पारित हुआ, जिसे दिनांक 1 जनवरी, 2014 को महामहिम राष्ट्रपति की स्वीकृति प्राप्त हुई। भारत के राजपत्र में प्रकाशित अधिसूचना दिनांक 16 जनवरी, 2014 के द्वारा इस अधिनियम के उपबन्ध दिनांक 16 जनवरी, 2014 से प्रवृत्त किये गये हैं।
राजस्थान लोकायुक्त तथा उप-लोकायुक्त अधिनियम, 1973 (अधिनियम सं. 9 सन् 1973) द्वारा राजस्थान के मंत्रियों, सचिवों, राजकीय प्रतिष्ठानों के अध्यक्षों, स्वायत्त शासन संस्थाओं के अध्यक्षों, उपाध्यक्षों, प्रमुखों, प्रधानों एवं अन्य अधिकारियों व कर्मचारियों के विरूद्ध भ्रष्टाचार, पद के दुरूपयोग एवं अकर्मण्यता की जांच के लिए स्थापित यह एक उच्चस्तरीय वैधानिक एवं स्वतंत्र संस्थान है।
न्याय मूर्ति आई डी दुआ राजस्थान के पहले लोकायुक्त थे।
लोकायुक्त की नियुक्ति राज्यपाल द्वारा की जाती है।
राजस्थान में लोकायुक्त की नियुक्ति मुख्यमंत्री, नेता प्रतिपक्ष एवं हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की सलाह के बाद राज्यपाल द्वारा की जाती है।
हाई कोर्ट के सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश या सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश को लोकायुक्त नियुक्त किया जा सकता है।
राजस्थान में लोकायुक्त का कार्यकाल 5 वर्ष का था जिसे मार्च 2018 में सरकार द्वारा बढ़ाकर 8 वर्ष कर दिया गया है।
जुलाई 2019 में लोकपाल एवं उप लोकायुक्त कानून में संशोधन किया गया और लोकायुक्त का कार्यकाल वापिस 8 वर्ष से 5 वर्ष कर दिया गया।
अतः वर्तमान में राजस्थान में लोकायुक्त का कार्यकाल 5 वर्ष अथवा 65 वर्ष की आयु तक, जो भी पहले हो।
वह पुनर्नियुक्ति का पात्र नहीं होता है।
राजस्थान के प्रथम तथा एकमात्र उप लोकायुक्त श्री के पी यू मेनन थे।
कदाचार या असमर्थता की स्थिति में लोकायुक्त को राज्यपाल द्वारा हटाया जा सकता है।
लोकायुक्त का वेतन हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के समान होता है।
प्राप्त शिकायतों और उनके निराकरण के सम्बन्ध में की गई कार्यवाही से माननीय राज्यपाल को अवगत करवाने के लिये लोकायुक्त प्रतिवर्ष उन्हें एक प्रतिवेदन प्रस्तुत करते हैं। आवश्यक होने पर शिकायतकर्ता को सूचित कर विशेष प्रतिवेदन भी भेजा जाता है। माननीय राज्यपाल लोकायुक्त से प्राप्त विशेष प्रतिवेदन और वार्षिक प्रतिवेदन अपने ज्ञापन सहित राज्य विधानसभा के पटल पर प्रस्तुत करवाते हैं।
लोकायुक्त का पद रिक्त होने पर उप लोकायुक्त तथा उप लोकायुक्त का पद रिक्त होने पर लोकायुक्त उसके कार्यों का निर्वहन करता है।
दोनों का ही पद रिक्त होने पर राज्यपाल हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश से सलाह करके हाईकोर्ट के किसी भी न्यायाधीश को इनका कार्यभार सौंप सकता है।
राज्य के सभी मंत्री, राज्य का कोई भी लोक सेवक।
जिला प्रमुख तथा उप जिला प्रमुख।
पंचायत समितियों के प्रधान तथा उपप्रधान।
नगर निगम के महापौर तथा उपमहापौर।
स्थानीय प्राधिकरण नगर परिषद तथा नगर पालिका के अध्यक्ष व उपाध्यक्ष।
नगर विकास न्यास (यूआईटी) के अध्यक्ष।
उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधिपति या न्यायाधीश अथवा संविधान के अनुच्छेद 236 के खण्ड (ख) में यथा परिभाषित न्यायिक सेवा का सदस्य,
भारत में किसी भी न्यायालय के अधिकारी अथवा कर्मचारी,
मुख्यमंत्री, राजस्थान
महालेखाकार, राजस्थान,
राजस्थान लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष अथवा सदस्य,
मुख्य निर्वाचन आयुक्त, निर्वाचन आयुक्त, प्रादेशिक आयुक्त तथा मुख्य निर्वाचन अधिकारी, राजस्थान,
राजस्थान विधानसभा सचिवालय के अधिकारी एवं कर्मचारी,
सरपंचों, पंचों व विधायकों के विरूद्ध भी शिकायतें की जाती हैं किन्तु उनके विरूद्ध प्रसंज्ञान नहीं लिया जा सकता है क्योंकि वे अधिकार क्षेत्र में नहीं हैं,
सेवानिवृत्त लोक सेवक ।
NOTE : 5 वर्ष से अधिक पुराने मामलों में शिकायत व जांच नहीं की जा सकती है।
शिकायतकर्ता अपने स्पष्ट नाम व पते के साथ ₹10 के शपथ पत्र द्वारा शिकायत कर सकता है। शिकायतकर्ता इस पत्र को लोकायुक्त, सचिव, उप सचिव, सहायक सचिव किसी को भी भेज सकता है।
लोकायुक्त देखेगा कि किस लोकसेवक के विरुद्ध शिकायत की गई है यदि शिकायत दुर्भावना के साथ की गई है तो लोकायुक्त जांच प्रक्रिया को वहीं रोक देगा अन्यथा जांच प्रक्रिया शुरू की जाएगी।
लोकसेवक या उसके विभाग से तथ्यात्मक रिपोर्ट या दस्तावेज मांगे जा सकते हैं। स्वयं लोक सेवक को भी पूछताछ के लिए बुलाया जा सकता है।
शिकायत सही पाए जाने पर लोकायुक्त राज्य सरकार को संबंधित लोक सेवक पर अनुशासनात्मक कार्यवाही के लिए लिख सकता है।
इस आधार पर यह भी कहा जा सकता है कि लोकायुक्त एक सलाहकार संस्थान है।
किसी भी लोक सेवक, राजनीति पदाधिकारी के खिलाफ शिकायत प्राप्त करना।
शिकायत की जांच करना।
शिकायत सही नहीं होने पर शिकायतकर्ता को भी दंडित कर सकता है।
स्वत: संज्ञान लेकर भी जांच प्रारंभ कर सकता है।
लोक सेवकों के कृत्यों के विरुद्ध भी शिकायत मिलने पर जांच कर सकता है। जैसे - लोक सेवक द्वारा किसी को हानि पहुंचाना।
लोक सेवक या उसके विभाग से जांच हेतु दस्तावेज मंगवाना।
लोक सेवक से शपथ पत्र लेना।
जांच के दौरान किसी भी व्यक्ति विशेष या लोक सेवक को लोकायुक्त कार्यालय में बुला सकता है।
उच्च न्यायालय से किसी भी प्रकार के अभिलेख की प्रतिलिपि मांग सकता है।
बहुत से लोक सेवक एवं पदाधिकारी अभी भी लोकायुक्त की जांच के दायरे से बाहर है। जैसे - मुख्यमंत्री, महालेखाकार, विधायक, सरपंच, पंच।
लोकायुक्त की रिपोर्ट पर सदन में उचित चर्चा नहीं होती है।
स्वयं की जांच एजेंसी का अभाव।
कर्मचारियों की कमी।
लोकायुक्त को लेकर लोगों में जागरूकता का अभाव है।
सभी लोक सेवक एवं पदाधिकारियों को लोकायुक्त की जांच के दायरे में लाया जाए।
इसकी सिफारिशों को सरकार द्वारा गंभीरता से लिया जाए।
किसी भी लोक सेवक के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्यवाही की सिफारिश करने पर सरकार द्वारा तत्काल कार्यवाही की जानी चाहिए।
लोकायुक्त का स्वयं का जांच तंत्र विकसित किया जाना चाहिए।
गौरतलब है कि राजस्थान सरकार द्वारा 28 फरवरी 2014 को मौजूदा लोकायुक्त अधिनियम में संशोधन कर इसे सशक्त तथा प्रभावी बनाने हेतु महाधिवक्ता नरपत मल लोढा की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय कमेटी का गठन किया गया।
12वें लोकायुक्त न्यायमूर्ति एसएस कोठारी के इस्तीफे के बाद वर्तमान में ‘राजस्थान के 13वें (तेरहवें) लोकायुक्त न्यायमूर्ति प्रताप कृष्ण लोहरा है।
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