“रेगिस्तान का गौरव” अथवा “थार का कल्पवृक्ष” जिसका वैज्ञानिक नाम “प्रोसेसिप-सिनेरेरिया” है। इसको 1983 में राज्य वृक्ष घोषित किया गया।
5 जून 1988 को विश्व पर्यावरण दिवस के अवसर पर खेजड़ी वृक्ष पर 60 पैसे का डाक टिकट जारी किया गया।
खेजड़ी के वृक्ष सर्वाधिक शेखावटी क्षेत्र में देखे जा सकते है तथा नागौर जिले में सर्वाधिक है। इस वृक्ष की पुजा विजयाशमी/दशहरे पर की जाती है। खेजड़ी के वृक्ष के निचे गोगाजी व झुंझार बाबा का मंदिर/थान बना होता है। खेजड़ी को पंजाबी व हरियाणावी में जांटी व तमिल भाषा में पेयमेय कन्नड़ भाषा में बन्ना-बन्नी, सिंधी भाषा में - धोकड़ा व बिश्नोई सम्प्रदाय के लोग शमी के नाम से जानते है। स्थानीय भाषा में सीमलो कहते हैं।
खेजडी की हरी फली-सांगरी, सुखी फली- खोखा, व पत्तियों से बना चारा लुंग/लुम कहलाता है।
खेजड़ी के वृक्ष को सेलेस्ट्रेना(कीड़ा) व ग्लाइकोट्रमा(कवक) नामक दो किड़े नुकसान पहुँचाते है।
वैज्ञानिकों ने खेजड़ी के वृक्ष की कुल आयु 5000 वर्ष मानी है। राजस्थान में खेजड़ी के 1000 वर्ष पुराने 2 वृक्ष मिले है।(मांगलियावास गाँव, अजमेर में)
पाण्डुओं ने अज्ञातवास के समय अपने अस्त्र-शस्त्र खेजड़ी के वृक्ष पर छिपाये थे। खेजड़ी के लिए राज्य में सर्वप्रथम बलिदान अमृतादेवी के द्वारा सन 1730 में दिया गया। अमृता देवी द्वारा यह बलिदान भाद्रपद शुक्ल दशमी को जोधुपर के खेजड़ली गाँव में 363 लोगों के साथ दिया गया। इस बलिदान के समय जोधपुर का शासक अभयसिंग था। अभयसिंग के आदेश पर गिरधरदास के द्वारा 363 लोगों की हत्या कर दी गई। अमृता देवी रामो जी बिश्नोई की पत्नि थी। बिश्नोई सम्प्रदाय द्वारा दिया गया यह बलिदान साका/खडाना कहलाता है। 12 सितम्बर को प्रत्येक वर्ष खेजड़ली दिवस के रूप में मनाया जाता है। प्रथम खेजड़ली दिवस 12 सितम्बर 1978 को मनाया गया था। वन्य जीव सरंक्षण के लिए दिया जाने वाला सर्वक्षेष्ठ पुरस्कार अमृता देवी वन्य जीव पुरस्कार है। इस पुरस्कार की शुरूआत 1994 में की गई। इस पुरस्कार के तहत संस्था को 50,000 रूपये व व्यक्ति को 25,000 रूपये दिये जाते है। प्रथम अमृता देवी वन्यजीव पुरस्कार पाली के गंगाराम बिश्नोई को दिया गया।
राजस्थान सरकार ने राज्य जीव-जंतु कल्याण बोर्ड का नाम ‘अमृता देवी राज्य जीव-जंतु कल्याण बोर्ड’ करने का अहम निर्णय लिया है।
ऑपरेशन खेजड़ा की शुरूआत 1991 में हुई।
वर्गीकरण के जन्मदाता: केरोलस लीनीयस थे।
उन्होने सभी जीवों व वनस्पतियों का दो भागो में विभाजन किया। मनुष्य/मानव का वैज्ञानिक नाम: “होमो-सेपियन्स” रखा होमो सेपियन्स या बुद्धिमान मानव का उदय 30-40 हजार वर्ष पूर्व हुआ।
रोहिडा के फुल को 21 अक्टूबर 1983 को राज्य पुष्प घोषित किया गया। इसे “मरूशोभा” या “रेगिस्थान का सागवान” भी कहते है। इसका वैज्ञानिक नाम- “टिको-मेला अंडुलेटा” है।
रोहिड़ा सर्वाधिक राजस्थान के पष्चिमी क्षेत्र में देखा जा सकता है। रोहिडे़ के पुष्प मार्च-अप्रैल के महिने मे खिलते है। इन पुष्पों का रंग गहरा केसरिया-हीरमीच पीला होता है।
जोधपुर में रोहिड़े को मारवाड़ टीक के नाम से जाना जाता है।
राजस्थान में राज्य पशु की दो श्रेणियाँ हैं –
चिंकारा- चिंकारा को 1981 में राज्य पशु घोषित किया गया।यह “एन्टीलोप” प्रजाती का एक मुख्य जीव है। इसका वैज्ञानिक नाम गजेला बेनेट्टी है। चिंकारे को छोटा हरिण के उपनाम से भी जाना जाता है। चिकारों के लिए नाहरगढ़ अभ्यारण्य जयपुर प्रसिद्ध है। राजस्थान का राज्य पशु ‘चिंकारा’ सर्वाधिक ‘मरू भाग’ में पाया जाता है।
“चिकारा” नाम से राजस्थान में एक तत् वाद्य यंत्र भी है।
राजस्थान सरकार ने 30 जून 2014 को ऊँट को राजस्थान के राज्य पशु का दर्जा दिया था। जिसकी घोषणा 19 सितम्बर 2014 को बीकानेर में की गई।
राजस्थान में सर्वाधिक ऊँटों वाला जिला बाड़मेर तथा सबसे कम ऊँटों वाला जिला प्रतापगढ़ है।
राजस्थान में ऊँटों की नस्लें – गोमठ ऊँट, नाचना ऊँट, जैसलमेरी ऊँट, अलवरी ऊँट, सिंधी ऊँट, कच्छी ऊँट, बीकानेरी ऊँट
राजस्थान के लोकदेवता पाबूजी को ऊंटो का देवता भी कहते है।
राजस्थान में ऊँट पालने के लिए रेबारी जाति प्रसिद्ध है।
ऊँट की खाल पर की जाने वाली कलाकारी को उस्ता कला तथा ऊंट की खाल से बनाये जाने वाले ठण्डे पानी के जलपात्रों को काॅपी कहा जाता है।
ऊंटनी के दूध में भरपुर मात्रा में Vitamin-C पाया जाता है। बीकानेर में स्थित उरमूल डेयरी भारत की एकमात्र ऊँटनी के दूध की डेयरी है।
गोरबंद राजस्थान का ऊँट श्रृंगार का गीत है।
ऊँट के नाक में डाले जाने वाला लकड़ी का बना आभूषण गिरबाण कहलाता है।
गंगासिंह ने पहले विश्वयुद्ध में ‘गंगा रिसाला’ नाम से ऊंटों की एक सेना बनाई थी जिसके पराक्रम को (पहले और दूसरे विश्वयुद्ध में) देखते हुए बाद में इसे बीएसएफ में शामिल कर लिया गया।
संयुक्त राष्ट्र ने वर्ष 2024 को ‘अंतर्राष्ट्रीय कैमलिड्स’ वर्ष भी घोषित किया है।
1981 में इसे राज्य पक्षी के तौर पर घोषित किया गया। इसे ग्रेट इंडियन बस्टर्ड भी कहा जाता है। यह शर्मिला पक्षी है और इसे पाल-मोरडी व सौन-चिडिया भी कहा जाता है। इसका वैज्ञानिक नाम “एरडेओटिस नाइज्रीसेप्स” है।
गोडावण को सारंग, कुकना, तुकदर, बडा तिलोर के नाम से भी जाना जाता है। गोडावण को हाडौती क्षेत्र(सोरसेन) में माल गोरड़ी के नाम से जाना जाता है।
गोडावण पक्षी राजस्थान में 3 जिलों में सर्वाधिक देखा जा सकता है।
गोडावण के प्रजनन के लिए जोधपुर जंतुआलय प्रसिद्ध है।
गोडावण का प्रजनन काल अक्टूबर-नवम्बर का महिना माना जाता है। यह मुलतः अफ्रीका का पक्षी है। इसका ऊपरी भाग का रंग नीला होता है व इसकी ऊँचाई 4 फुट होती है। इनका प्रिय भोजन मूगंफली व तारामीरा है। गोडावण को राजस्थान के अलावा गुजरात में भी सर्वाधिक देखा जा सकता
IUCN की संकटग्रस्त प्रजातियों पर प्रकाशित होने वाली लाल डाटा पुस्तिका में इसे ‘गंभीर रूप से संकटग्रस्त’ श्रेणी में तथा भारतीय वन्यजीव संरक्षण अधिनियम 1972 की अनुसूची 1 में रखा गया है।
इस गीत को सर्वप्रथम उदयपुर की मांगी बाई के द्वारा गया। इस गीत को अन्तराष्ट्रीय स्तर पर बीकानेर की अल्ला जिल्ला बाई के द्वारा गाया गया। अल्ला जिल्ला बाई को राज्य की मरूकोकिला कहते है। इस गीत को मांड गायिकी में गाया जाता है। अल्ला जिल्ला बाई ने सबसे पहले केसरिया बालम बीकानेर महाराजा गंगासिंह के दरबार में गाया था।
घुमर (केवल महिलाओं द्वारा किया जाने वाला नृत्य) इस राज्य नृत्यों का सिरमौर (मुकुट), राजस्थानी नृत्यों की आत्मा कहा जाता है।
कत्थक उत्तरी भारत का प्रमुख नृत्य है। इनका मुख्य घराना भारत में लखनऊ है तथा राजस्थान में जयपुर है।
कत्थक के जन्मदाता भानू जी महाराज को माना जाता है।
बास्केटबाॅंल को राज्य खेल का दर्जा 1948 में दिया गया।
इस खेल में 5 सक्रिय खिलाड़ी वाली दो टीमें होती हैं
इस खेल को नियंत्रित करने वाली संस्था “अन्तर्राष्ट्रीय बास्केटबॉल संघ “(International Basketball Federation, FIBA) है।
हर जिले को अब किसी किसी वन्यजीव (पशु या पक्षी) के नाम से जाना जाएगा। हर जिले की यह जिम्मेदारी होगी कि वह अपने जिला स्तरीय वन्यजीव को बचाने और संरक्षित करने की दिशा में काम करें। सरकारी कागजों पर भी उस वन्यजीव को लोगो के तौर पर इस्तेमाल किया जाएगा, जिससे उस वन्यजीव का अधिक से अधिक प्रचार प्रसार हो सकें।
2015 में राजस्थान सरकार ने प्रत्येक जिले का एक वन्य जीव घोषित किया। राजस्थान ऐसा पहला राज्य है, जिसने वन्यजीवों के अनुसार जिलों का मस्कट तय किया है। यह अपने आप में एक नया प्रयोग है। अभी तक प्रदेश स्तर पर राज्य पशु या पक्षी के नाम तय किए जाते थे। उसे संरक्षण प्रदान करने की दिशा में सरकारें काम करती थी। नए प्रयोग से सीधे तौर पर प्रदेश की 33 प्रजातियों को संरक्षित करने में मदद मिलेगी।
जिलों के पुनर्गठन के बाद शुभंकर से संबंधित कभी कोई घोषणा नहीं हुई है।
जिला | शुभंकर |
---|---|
अजमेर | खड़मौर |
अलवर | सांभर |
बांसवाड़ा | जलपीपी |
बांरा | मगर |
बाड़मेर | मरू लोमड़ी |
भरतपुर | सारस |
भीलवाड़ा | मोर |
बीकानेर | भट्टतीतर |
बूंदी | सुर्खाब |
चित्तौड़गढ़ | चौसिंगा |
चुरू | काला हिरण |
दौंसा | खरगोश |
धौलपुर | पंछीरा(इंडियन स्क्रीमर) |
डुंगरपुर | जंगील धोक |
हनुमानगढ़ | छोटा किलकिला |
झुंझुनूं | काला तीतर |
जयपुर | चीतल |
जैसलमेर | गोडावन |
जालौर | भालू |
झालावाड़ | गगरोरनीतोता |
जोधपुर | कुरजां |
करौली | घड़ियाल |
कोटा | उदबिलाव |
नागौर | राजहंस |
पाली | तेंदुआ |
राजसमंद | भेडि़या |
प्रतापगढ़ | उड़नगिलहरी |
सवाईमाधोरपुर | बाघ |
श्री गंगानगर | चिंकारा |
सीकर | शाहीन |
सिरोही | जंगली मुर्गी |
टोंक | हंस |
उदयपुर | बिज्जू |
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