जैसलमेर किले को जैसलमेर की शान के रूप में माना जाता है और यह शहर के केन्द्र में स्थित है। यह 'सोनार किला' या 'स्वर्ण किले' के रूप में भी जाना जाता है क्योंकि यह पीले बलुआ पत्थर का किला सूर्यास्त के समय सोने की तरह चमकता है। इसे 1156 ई0 में एक भाटी राजपूत शासक जैसल द्वारा त्रिकुरा पहाड़ी के शीर्ष पर निर्मित किया गया था।
जैसलमेर दुर्ग मुस्लिम शैली विशेषतः मुगल स्थापत्य से पृथक है। यहाँ मुगलकालीन किलों की तङ्क-भङ्क, बाग-बगीचे, नहरें-फव्वारें आदि का पूर्ण अभाव है
जैसलमेर दुर्ग पीले पत्थरों के विशाल खण्डों से निर्मित है। पूरे दुर्ग में कहीं भी चूना या गारे का इस्तेमाल नहीं किया गया है। मात्र पत्थर पर पत्थर जमाकर फंसाकर या खांचा देकर रखा हुआ है। यह किला एक 30 फुट ऊंची दीवार से घिरा हुआ है। यह एक विशाल 99 बुर्जों वाला किला है। इन बुर्जो को काफी बाद में महारावल भीम और मोहनदास ने बनवाया था। बुर्ज के खुले ऊपरी भाग में तोप तथा बंदुक चलाने हेतु विशाल कंगूरे बने हैं। बुर्ज के नीचे कमरे बने हैं, जो युद्ध के समय में सैनिकों का अस्थाई आवास तथा अस्र-शस्रों के भंडारण के काम आते थे।
वर्तमान में, यह शहर की आबादी के एक चौथाई के लिए एक आवासीय स्थान है। किला परिसर में कई कुयें हैं जो यहाँ के निवासियों के लिए पानी का नियमित स्रोत हैं। दुर्ग के मुख्य द्वारा का नाम अखैपोला है। जो महारवल अखैसिंह (1762 से 1722 ई.) द्वारा निर्मित कराया गया था। राजस्थान के अन्य किलों की तरह, इस किले में भी अखाई पोल, हवा पोल, सूरज पोल और गणेश पोल जैसे कई द्वार हैं। सभी द्वारों में अखाई पोल या प्रथम द्वार अपनी शानदार स्थापत्य शैली के लिए प्रसिद्ध है।
इस दुर्ग को सोनारगढ, त्रिकूटगढ़, उत्तरी भडकिवाड़ के रूप में भी जाना जाता है।इसी किले में इतिहास के प्रसिद्ध ढाई साके हुये हैं।
1292 ई. में अलाउद्दीन खिलजी व मुलराज
फिरोजशाह तुगलक व राव दूदा
कंधार के शासक अमीर अली व राव लुणकरण के मध्य(अर्द्धशाका)
जैसलमेर दुर्ग में हस्त लिखित ग्रंथों का दुर्लभ भंडार है।जिसे जिनभद्र सूरी ग्रन्थ भण्डार के नाम पर जाना जाता है।
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