बायो टॉयलेट का अविष्कार रक्षा अनुसन्धान और विकास संगठन (DRDO) तथा भारतीय रेलवे द्वारा संयुक्त रूप से किया गया है. बायो टॉयलेट्स में शौचालय के नीचे बायो डाइजेस्टर कंटेनर में एनेरोबिक बैक्टीरिया होते हैं जो मानव मल को पानी और गैसों में बदल देते हैं. इस प्रक्रिया के तहत मल सड़ने के बाद केवल नाइट्रोजन गैस और पानी ही शेष बचते हैं, जिसके बाद पानी को पुनःचक्रित (री-साइकिल) कर शौचालयों में इस्तेमाल किया जा सकता है. इन गैसों को वातावरण में छोड़ दिया जाता है जबकि दूषित जल को क्लोरिनेशन के बाद पटरियों पर छोड़ दिया जाता है.
1. पारंपरिक शौचालयों द्वारा मानव मल को सीधे रेल की पटरियों पर छोड़ दिया जाता था, जिससे पर्यावरण में गंदगी फैलने के साथ ही रेल पटरियों की धातु को नुकसान पहुंचता था. अब ऐसा नही होगा.
2. फ्लश टॉयलेट्स को एक बार इस्तेमाल करने पर कम से कम 10 से 15 लीटर पानी खर्च होता था जबकि वैक्यूम आधारित बॉयो टॉयलेट एक फ्लश में करीब आधा लीटर पानी ही इस्तेमाल होता है.
3. भारत के स्टेशन अब साफ़ सुथरे और बदबू रहित हो जायेंगे जो कि कई बीमारियों को रोकने की दिशा में अच्छा कदम है.
4. स्टेशन पर मच्छर, कॉकरोच और चूहों की संख्या में कमी आएगी और चूहे स्टेशन को अन्दर से खोलना नही कर पाएंगे.
5. बायो टॉयलेट्स के इस्तेमाल से मानव मल को हाथ से उठाने वाले लोगों को इस गंदे काम से मुक्ति मिल जाएगी.
यहाँ पर यह बताना जरूरी है कि दुनिया के लगभग 50% लोगों के पास पिट लैट्रिन (गड्ढे वाली लेट्रिन) है जहाँ मल नीचे गड्ढे में इकट्ठा होता है. आँकडों के अनुसार इनमें से अधिकतर पिट लैट्रिन से मल रिस-रिस कर जमीन में जाता है जिससे पीने वाला पानी प्रदूषित हो रहा है. फ्लश लैट्रिन की एक समस्या यह भी है कि इसकी मल सामग्री का 95% से अधिक भाग आज भी बगैर किसी ट्रीटमेंट के नदियों के माध्यम से समुद्र में पहुँच जाता है.
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