वल्कनीकरण (vulcanisation) एक रासायनिक प्रक्रिया है जिसमें गंधक या इसी प्रकार का कोई दूसरा पदार्थ मिला देने से रबर या संबंधित बहुलकों को अपेक्षाकृत अधिक टिकाऊ पदार्थ में बदल दिया जाता है।
प्राकृतिक रबर पेड़ों और लताओं के रस, या रबरक्षीर (latex) से बनता है। पेड़ों के धड़ के छेवने, या काटने, से रबरक्षीर निकलता है। शुद्ध रबर में न गंध होती है और न रंग। यह प्रत्यास्थ और पारदर्शक होता है।बैक्टीरियों की क्रिया के कारण रंग पीला हो जाता और नीले धब्बे पड़ जाते हैं।कच्चे रबर में भौतिक या यांत्रिक बल नहीं हाता। प्रकाश और ऊच्च ताप से इसका ह्रास हाता है। रबर को अधिक उपयोगी बनाने के लिए उसमें कुछ मिलाना आवश्यक होता है। रबर को अधिक उपयोगी व टिकाऊ बनाने के लिए इसमें गंधक आदि तत्व मिलाये जाते हैं जिसे वल्कनीकरण कहते हैं।
वल्कनीकरण के लिए कच्चे रबर को गंधक के साथ लगभग 140° सें. पर तीन से चार घंटे तक गरम करते हैं। गंधक के साथ त्वरक को मिला देने से वल्कनीकरण शीघ्र संपन्न हो जाता और रबर में कुछ अधिक उपयोगी गुण भी आ जाते हैं।इन पदार्थों के मिलाने से रबर में मौजूद बहुलक शृंखलाएं परस्पर 'क्रॉसलिंक्ड' (cross linked) हो जाती हैं। वल्कनीकरण प्रेस में, या भाप की उपस्थिति में, या शुष्क ताप पर संपन्न हाता है। वल्कनीकृत रबर का गुण वल्कनीकरण के ढंग पर बहुत कुछ निर्भर करता है। वल्कनीकृत रबर पर पानी का कोई असर नहीं होता। यह चिपचिपा नहीं होता।
उन्नीसवीं सदी के शुरुआती दौर में अनेक वैज्ञानिक ऐसी रबर तैयार करने की कोशिश में लगे थे, जिसे लंबे समय तक इस्तेमाल किया जा सके और जो मौसम या तापमान से ज्यादा प्रभावित न हो। अमेरिकी विज्ञानी चार्ल्स गुडइयर भी इन्हीं वैज्ञानिकों में से एक थे, जो सालों से इस दिशा में प्रयोग कर रहे थे।
वर्ष 1839 में रबर व सल्फर के मिश्रण के साथ ऐसे ही एक प्रयोग के दौरान उनका यह मिश्रण गर्म स्टोव पर गिर गया, लेकिन यह देखकर उनके आश्चर्य का कोई ठिकाना न रहा कि स्टोव की गर्मी से पिघलने के बजाय मिश्रण चमड़े जैसा सख्त हो गया और इसका लचीलापन भी बरकरार था। बाद के प्रयोगों से साबित हो गया कि रबर के इस नए पॉलीमर को भीषण ठंड में रखा जाए, तब भी इसका लचीलापन नहीं जाता। इस तरह यह वल्कित रबर (वल्कनाइज्ड रबर) अस्तित्व में आई, जिसका टायर-ट्यूब, रबर बैंड, वाटरप्रूफ कोट व फुटवियर तथा गुब्बारे इत्यादि बनाने में व्यापक इस्तेमाल होता है।
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