अगर प्रलय या भयंकर अकाल जैसी स्थिति आने पर दुनियाभर की फसलें खत्म हो जाएं, तब भी इन्हें दोबारा उगाने की संभावना रहेगी। नॉर्वे के वैज्ञानिकों ने ऐसी किसी आपात स्थिति से निपटने के लिए बीजों को सहेजकर नार्वे में 'डूम्स डे वॉल्ट/ द ग्लोबल सीड वॉल्ट' खाद्य बैंक बनाया है|
आर्कटिक में नॉर्वे और उत्तर ध्रुव के बीच स्थित स्वालबर्ड द्वीपसमूह में बर्फ के नीचे एक भंडारगृह बनाया गया है। यहां 9 लाख 30 हजार प्रकार की फसलों के बीज सुरक्षित रखे गए हैं। साथ ही खेती का 13 हजार साल का इतिहास भी सहेजा गया है।
इस भंडारगृह को ग्लोबल सीड वॉल्ट नाम दिया गया है। इसका प्रबंधन करने वाली संस्था क्रॉप ट्रस्ट के प्रमुख कोऑर्डिनेटर ब्रायन लेनऑफ कहते हैं- यहां आप एग्रीकल्चरल बायोडाइवर्सिटी देख सकते हैं। यहां दुनिया की करीब-करीब हर फसल के बीज मिलेंगे।
'डूम्स डे वॉल्ट' चारों ओर बर्फ से ढके नार्वे में 26 फरवरी 2008 में बनकर तैयार हुआ था| इस स्थान को इसलिए चुना गया था क्योंकि यह जगह उत्तरी ध्रुव के सबसे नजदीक होने का कारण सबसे ज्यादा ठंडी रहती है|
जो भी देश इस बैंक में अपने बीजों को रखना चाहते हैं उनको नॉर्वे सरकार के साथ एक डिपॉज़िट एग्रीमेंट पर हस्ताक्षर करने होते हैं| यहाँ पर यह बात बतानी जरूरी है कि इस बैंक में जमा किये गए बीजों पर मालिकाना हक़ बीज जमा कराने वाले देशों का ही होगा, नार्वे सरकार का नही|
डूम्डे वॉल्ट क्यों बनाया गया है
मनुष्य ने प्रथ्वी पर 13000 साल पहले कृषि करना आरम्भ किया था; तब से लेकर अब तक लाखों बीजों की किस्मों को ढूँढा जा चुका है| लेकिन इस बात की संभावना वैज्ञानिकों द्वारा समय समय पर व्यक्त करते रहे हैं कि प्रथ्वी पर कोई प्राकृतिक आपदा जैसे बाढ़, भूकम्प, सूनामी या मानव निर्मित परमाणु या हाइड्रोजन युद्ध जैसे किसी कारण से मानव सभ्यता का अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है| इसलिए मनुष्य ने कृषि उत्पादों को अगली पीढ़ी के लिए सुरक्षित रखने के लिए इस 'कयामत के दिन की तिजोरी' को बनाया है|
कयामत के दिन की तिजोरी (डूम्सडे वॉल्ट) की खास बातें इस प्रकार हैं:
डूम्स डे वॉल्ट' स्पीट्सबर्गन आयलैंड (नार्वे) में एक सैडस्टोन माउंटेन से 390 फ़ीट अंदर बनाया गया है|
'डूम्स डे वॉल्ट' के लिये ग्रे कॉन्क्रीट का 400 फुट लंबा सुरंग माउंटेन में बनाया गया है|
इस तिजोरी के दरवाजे बुलेट-प्रूफ़ हैं यानी इसे गोली से नहीं भेदा जा सकता है|
कोष में संरक्षित बीजों के प्रजातियों की संख्या दस लाख हो गई। जबकि इसकी क्षमता करीब 45 लाख किस्म के बीजों को संरक्षित करने की है|
इन बीजों को सुरक्षित और संरक्षित रखने के लिये माइनस 18 डिग्री सेल्सियस तामपान की ज़रूरत होती है|
यदि इस तिजोरी में बिजली ना पहुचे तो भी इसमें रखे गए बीज 200 सालों तक सुरक्षित रखे जा सकते हैं अर्थात नयी पीढ़ी द्वारा खेती में प्रयोग किये जा सकते हैं|
डूम्स डे वॉल्ट' की छत और गेट पर प्रकाश परावर्तित करने वाले रिफ़लेक्टिव स्टेनलेस स्टील, शीशे और प्रिज़्म लगाए गए हैं ताकि गर्मी इसके अन्दर ना घुस पाये और इसकी वजह से इसके अन्दर की बर्फ ना पिघले|
डूम्स डे वॉल्ट' में हर देश के लिए एक अलग खाता/स्थान होता है जहाँ पर वे अपने देश के बीजों को रख सकते हैं| यह ठीक उसी प्रकार है जैसे कि बैंकों में लोकर्स होते हैं जिसमे लोग उनमे अपने आभूषण अन्य जरूरी चीजें रखते हैं|
तिजोरी को साल में 3 या 4 बार ही खोला जाता है इसको आखिरी समय मार्च 2016 में बीज जमा करने के लिए खोला गया था|
सीरिया में गृह युद्ध के कारण खेती नष्ट हो गयी थी इसी कारण इस तिजोरी को खोलकर उसमें से दाल,गेंहू, जौ और चने के बीज के लगभग 38 हज़ार सैंपल गुप्त तरीके से सीरिया, मोरक्को और लेबनान भेजे गए थे| हालांकि ख़राब हालातों की वजह से इन बीजों का पूरा इस्तेमाल नही हो पाया है|
इस ‘डूम्स डे वॉल्ट' को जीन बैंक की दुनिया में ‘ब्लैक बॉक्स’ व्यवस्था कहा जाता है| इसे ब्लैक बॉक्स कहा जाना इसलिए भी ठीक है क्योंकि ब्लैक बॉक्स विमान संकट के समय पूरी जानकारी अपने पास इकठ्ठा कर लेता है| ऐसा ही महत्वपूण कार्य ‘डूम्स डे वॉल्ट' करेगा जो कि एक बार मानव सभ्यता के नष्ट होने पर अगली पीढ़ी को नये तरीके से खेती करना सिखा देगा|
यह मिशन इतना गुप्त है कि इसमें जाने की इज़ाज़त सिर्फ कुछ ही लोगों जैसे अमेरिकी संसद के सीनेटर्स और संयुक्त राष्ट्र संघ के सेक्रेटरी जनरल को ही है|
इस तिजोरी को बनाने में दुनिया भर से 100 देशों ने वित्तीय सहायता दी है| भारत अमेरिका उत्तरकोरिया स्वीडन भी इस मिशन का हिस्सा है|
बिल गेट्स फाउंडेशन और अन्य देशों के अलावा नॉर्वे गवर्नमेंट ने वॉल्ट बनाने के लिए 60 करोड़ रुपए दिए थे।
जीन बैंक की दुनिया में इस प्रकार के लोकर को ब्लैक बॉक्स व्यवस्था’ कहा जाता है।
सारांश रूप में यह कहा जा सकता है कि ‘डूम्स डे वॉल्ट' की विचारधारा संवहनीय विकास की विचारधारा पर आधारित है जिसमे वर्तमान पीढ़ी ही नही बल्कि आगे आने वाली पीढी की जरूरतों का भी ख्याल रखा गया है| लेकिन यह प्रोजेक्ट कितना सफल होता है यह तो आने वाला वक्त ही बता पायेगा|