ब्लू पाॅटरी को जयपुर की पारंपरिक शिल्प के रूप में मान्यता प्राप्त है। लेकिन यह मूल रूप से तुर्क - फारसी कला है। ब्लू पाॅटरी नाम पाॅटरी (मिट्टी के बर्तन) पर नीले रंग की डाई का उपयोग करने के कारण पड़ा।
ब्लू पाॅटरी बनाने के लिए जिस मिश्रण का उपयोग किया जाता है उसमें कार्टज पत्थर का पाउडर, कांच का पाउडर, मुल्तानी मिट्टी, बोरेक्स, गम व पानी का उपयोग किया जाता है
इसमें चिकनी मिट्टी का उपयोग नहीं किया जाता है।
पाॅटरी बनाने के बाद इसको पाॅलीस कर आग में पकाया जाता है।
इन पर ज्यादातर पशु पक्षियों का चित्रांकन किया जाता है।
इस कला का विकास मंगोल कारिगरों द्वारा फारसी सजावट कला को चीनी कांच की पाॅलिस करने के तकनिक के साथ प्रयोग कर किया गया। प्रारंम्भ में इस कला का उपयोग महलों, मस्जिदों आदि के लिए टाइल्स बनाने में किया जाता था।
14 वीं सदी में यह कला भारत में आयी।
यह कला सवाई राम सिंह द्वितीय(1835 - 1880) के शासन काल के दोरान जयपुर आयी। जयपुर के राजा ने यहां के कुछ स्थानीय कलाकारों को दिल्ली भेजा ताकि वे इस कला को जान सकें।
जयपुर के राम बाग में इस कला के कुछ पुराने नमूने देखे जा सकतें हैं।
1950 के करीब यह कला जयपुर से लुप्त होने के कगार पर थी, तब कृपाल सिंह शेखावत के प्रयासों ने इसे पुनः जिवंत कर दिया।
ब्लू पाॅटरी का उपयोग जार, बर्तन, चाय सेट, कप, गिलास, कटोरे आदि वस्तुओं पर किया जाता है।
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