प्राचीन काल से भारत लौह इस्पात उद्योग के लिए प्रसिद्ध रहा है। इसका उदाहरण है। महरौली का लौह स्तंभ।यह लौह स्तंभ दिल्ली में कुतुब मीनार पास स्थित है।
इस लौह स्तंभ में लगे लौह की मात्रा 98 प्रतिशत है और इसमें अभी तक जंग नहीं लगा।इतिहासकारों के अनुसार यह स्तंभ गुप्त वंश के चंद्रगुप्त द्वितीय का है। कुछ अन्य के अनुसार इसका निर्माण सम्राट अशोक ने अपने दादा चंद्रगुप्त मौर्य की याद में करवाया था।
परन्तु विशेषज्ञों का मानना है कि इसका निर्माण इनके पहले हो चुका था। यह पहले हिन्दु व जैन मंदिर का हिस्सा था।
इस स्तंभ पर संस्कृत में जो खुदा हुआ है, उसके अनुसार इसे ध्वज स्तंभ के रूप में खड़ा किया गया था। इस पर गरूड़ स्थापित करने हेतु इसे बनाया गया होगा, इसी कारण इसे ‘गरूड़ स्तंभ‘ भी कहा जाता है। इसे मथुरा में विष्णु पहाड़ी पर भगवान विष्णु के मंदिर के सामने ध्वज स्तंभ रूप में लगाया गया था। बाद में 1050 में यह स्तंभ दिल्ली के संस्थापक अनंगपाल द्वारा यहां लाया गया।
यह लौह स्तंभ लगभग 1600 वर्ष से भी अधिक समय से खुले में खड़ा है। और इतने वर्षों बाद भी इसमें जंग नहीं लगा है, यह बात दुनियां भर के लिए आश्चर्य का विषय है।
इस स्तंभ की ऊंचाई लगभग 735.50 सेमी( लगभग 7 मीटर) है जिसमें से 50 सेमी यह जमीन के अन्दर है। इसका वजन लगभग 6096 किलोग्राम है। 1961 में किये गये एक रासायनिक परीक्षण में पता चला की यह शुद्ध इस्पात का बना है, तथा इसमें कार्बन की मात्रा काफी कम है। भारतीय रसान शास्त्री डा. बी.बी. लाल के अनुसार इसे गर्म लौहे के 20-30 किलो के टुकड़ों को जोड़कर बनाया गया है। परन्तु आश्चर्य की बात यह है कि इसमें एक भी जोड़ दिखाई नहीं देता। इसको जंग से बचाने के लिए इसमें फास्फोरस की मात्रा अधिक व सल्फर व मैंग्नीज की मात्रा कम रखी गई। जो की जंग की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाता है साथ ही इस पर एक पतली परत आक्साइड की है जो इसको जंग से बचाने में मदद करती है।
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